किश्तियाँ – हरभगवान चावला

‘भूमिहीन खेतिहर मज़दूर के लिए कुँवारी, परित्यक्ता, विधवा कैसी भी वधू चाहिए। शादी एकदम सादी, शादी का सारा ख़र्च वर पक्ष की ओर से होगा। अगर ज़रूरत हुई तो वधू के माता-पिता को उचित मुआवज़ा भी दिया जाएगा।’ विवाह का ऐसा विज्ञापन किसी अख़बार में नहीं छपता पर पंजाब के मालवा क्षेत्र तथा साथ लगते हरियाणा के अधिकांश हिस्से के ग्रामीणों के दिलों पर हमेशा छपा रहता है। यह विज्ञापन ‘नवीन विवाह संहिता’ का घोषणापत्र है। विवाह के परम्परागत विज्ञापनों की शोभा बनने वाले ज़रूरी शब्द-सुंदर, सुशील, कुलीन आदि इस संहिता का हिस्सा नहीं हैं। इन इलाक़ों में अविवाहित युवाओं, अधेड़ों, बूढ़ों की पूरी फ़ौज है। इस फ़ौज का कोई सिपाही जब विवाह का कोई जुगाड़ कर लेता है तो फ़ौज कहती है-अज ओ वी ‘बेड़ी’ चढ़ गया यानी किश्ती पर सवार हो गया। पूरी फ़ौज तब तीन मानसिक दशाओं से गुज़रती है; पहली, बेवफ़ाई का अहसास जिसका सूत्र वाक्य होता है – साला छड गया बेलियाँ नूँ। दूसरी, आशा-चलो भई वो बेड़ी चढ़ गया, कभी अपणा भी नंबर लगेगा। तीसरी ईर्ष्या-हमारी शकल उससे तो चंगी है, उसनूं जनानी मिलगी, असीं रहगे, रब्बा तू वी कुछ नहीं।

छड़ों की इस फ़ौज का हर आदमी थके हुए कछुए जैसा लगता है- तलहीन, अंतहीन, खारे-अंधियारे समंदर में निरुद्देश्य तैरता-शिथिल पर बेसब्र किसी ऐसी लहर के इंतज़ार में जिस पर सवार हो वह सीधे समुद्र-तट की रेत पर जा पहुंचे और धूप सेंकते हुए सुस्ताने का मज़ा ले या फिर किसी नाव के इंतज़ार में जिस पर वह उचक कर चढ़े और इस भयावह समुद्र से बाहर आ जाए।

कछुओं की इस फ़ौज को कोई किश्ती उपलब्ध कराने के लिए अब कई गिरोह इलाक़े में सक्रिय थे। अब दलाल बाक़ायदा फ़ीस लेकर छड़ों का कल्याण करते थे। फ़ीस कोई ज़्यादा नहीं थी, मात्र एक तोले सोने की अँगूठी या कड़ा। जैसे ही दलाल दुल्हन का प्रबंध करता, भावी दूल्हा बिना कोई मुहूर्त निकलवाए दलाल समेत पाँच-छः लोगों को जीप में लाद ब्याह रचाने निकल पड़ता। सेहरा रास्ते में ही ख़रीद लिया जाता। सड़क किनारे स्थित चाय की छोटी-बड़ी सब दुकानों में चाय-नाश्ते के सामान के साथ अब सेहरे भी बिकते थे।

मग्घर(अग्रहायण) आधा बीत चुका था। हल्की ठंड पड़नी शुरू हो गई थी। रात के लगभग नौ बजे थे। अँधेरी रात थी, तीन कमरों के एक कच्चे मकान के आँगन में एक पीला बल्ब जल रहा था पर आँगन के पूरे विस्तार में फैलकर उसकी रोशनी जैसे हाँफ रही थी। आँगन के दो कोनों में दो बड़े चूल्हे जल रहे थे। एक चूल्हे पर पतीला चढ़ा था जिसमें मांस पक रहा था। इस चूल्हे में कीकर की एक मोटी लकड़ी प्राणपण से जल रही थी। इस चूल्हे के पास तीसेक साल का एक दाढ़ी वाला साँवला लड़का बैठा था। उसके सिर पर साफ़ा बँधा था, उस साफ़े के लड़ से वह थोड़ी-थोड़ी देर बाद चेहरा पोंछ लेता था जबकि उसके चेहरे पर पसीना नज़र नहीं आता था। हर दो-चार मिनट में उसे खदबदाहट सुनाई पड़ती। वह चौंक पड़ता जैसे समझ नहीं पा रहा हो कि यह आवाज़ उसके भीतर से आ रही है या मीट के पतीले के भीतर से। वह कड़छुल से मीट का कोई टुकड़ा पतीले में से निकालता, उसे हाथ से दबाकर देखता और वापस पतीले में डाल देता। यह लड़का बल्ली था जो आज दोपहर तक छड़ों की फ़ौज का एक सिपाही था। वह आज ही ‘बेड़ी’ चढ़ा था और उसकी दुल्हन घर के अंदर एक कमरे में उसका इंतज़ार कर रही थी। माँ दो बार आकर आँगन में झाँक गई थी। बल्ली समझ रहा था पर अपने यारों-दोस्तों को दी जा रही ‘पाल्टी’ बीच में छोड़कर दुल्हन के पास जाना उसकी शान के खिलाफ़ था, लिहाज़ा वह उन दस-बारह लोगों के साथ बैठा मीट पकाते हुए दारु पी रहा था। आँगन के दूसरे कोने वाले चूल्हे पर बड़ी तवी रखी थी। चूल्हे के पास दो माइयाँ बैठी लगभग ऊँघ रही थीं। अभी उन्हें रोटी बनाने का आदेश नहीं मिला था। आग जलाए रखने के लिए वे एकाध बनछटी चूल्हे में सरकातीं और फिर ऊँघने लगतीं।

आख़िर दारु का दौर ख़त्म हुआ।शराबी यार रोटी और मीट पर टूट पड़े। रोटी खाकर सबने बल्ली को लड़खड़ाती बधाई दी। दरवाज़े से बाहर होते-होते मिट्ठू ने बल्ली के कंधे पर हाथ रखा और सबको सुनाकर बोला,‘‘सुणो ओए यारो ! बेड़ियाँ ते सवार लोक मछलियाँ नूं याद नहीं रखदे, हुण आपणाँ बल्ली वी आपाँ नूँ याद नहीं रखेगा।’’ सब यारों का ठहाका गूँजा पर ऐसा लगा जैसे एक सामूहिक रुदन घर के आँगन से बाहर गली तक फैल गया हो।

बारह बज रहे होंगे जब बल्ली कोठे के दरवाज़े पर पहुँचा। उसने दरवाज़े को ठेला पर दरवाज़ा नहीं खुला। दरवाज़ा अंदर से बंद है – उसने अनुमान लगाया। पर क्यों? लगता है नाराज़ हो गई।कृवह मुस्कुराया और हौले से दरवाज़ा खटखटा दिया, नहीं खुला तो ज़रा ज़ोर से दोबारा खटखटाया। अब की बार दरवाज़ा खुला और तेज़ी से एक साया अपनी तहमद सँभालता उसकी बगल से चौखट लाँघ गया। बल्ली जैसे जड़ होकर कुछ देर तक संभ्रम का शिकार बना खड़ा रहा। बेशक अँधेरा था पर वह उस साये को कैसे नहीं पहचान पाता? बत्ती जलाई, दुल्हन की हालत देखी, चारपाई पर बैठकर माथा ठोंकते हुए लगभग चीख ही पड़ा,‘‘सगा भाई ही साला कंजर बण गया।’ उधर उसे देखा तो दुल्हन हड़बड़ी में अपने कपड़े सँभालती चीख पड़ी,‘‘निकलो यहाँ सेकृनिकलोकृमेरे कमरे में कैसे घुस आए हो’’ उसको अनसुना करते हुए तत्क्षण तेज़ी से वह आँगन की तरफ़ भागा पर साया घर के बाहर जा चुका था। मन हुआ, कुल्हाड़ी उठाए और भाई के घर जाकर उसके टुकड़े कर दे पर जल्द ही उसे अपना यह विचार बेवकूफ़ाना लगने लगा। एक मोल की औरत के लिए वह यह सब क्यों करेकृपता नहीं मुझसे पहले इसके कितने खसम रहे होंकृएक खसम और सही। वह सामान्य होने की कोशिश करने लगा। उसने आँगन के घड़े से एक गिलास पानी पिया और लौटकर कमरे में आ गया। दुल्हन ने उसे फिर से वहाँ देखा तो चीखने लगी, ‘‘चोरकृचोर, बचाओ’’ बौखलाए बल्ली ने अपने हाथों से उसका मुँह दबा दिया और फुसफुसाते हुए बोला, ‘‘सालिए मैं तेरा घरवाला, अज ही तो अपणा ब्याह होया है।’’ दुल्हन अपने मुँह को आज़ाद करवाने की कोशिश में घों-घों करते हुए कुछ कहने की चेष्टा कर रही थी। बल्ली ने पकड़ थोड़ी ढीली की , एक बार फिर फुसफुसाया,‘‘मैं तेरा घरवाला’’

‘‘तू मेरा घरवाला नहीं है, वो तो अभी दरवाज़े से बाहर गया था।’’ गहरी साँस लेती दुल्हन का चेहरा सुखऱ् हो गया था।

‘‘ओए वो तेरा घरवाला नहीं, मैं हूँ मैं, पछाण ले मेरे को।’’ बल्ली ने उसका हाथ पकड़ा तो दुल्हन ने हंगामा खड़ा कर दिया। ‘बचाओकृबचाओ’ की दुहाई इतनी मार्मिक और बुलंद थी कि बल्ली को लगा सारा मोहल्ला जाग जाएगा। उसने दुल्हन के मुँह पर हाथ रखा और फिर उसके आगे हाथ जोड़ गिड़गिड़ाते हुए चुप हो जाने की प्रार्थना करने लगा,‘‘तू चुप हो जा, मैं बाहर जा रया हाँकृतू बूहा बंद कर लै।’’ उसके दरवाज़े की तरफ़ बढ़ते क़दमों ने दुल्हन की दुहाई को धीमा किया। उसके बाहर आते ही दरवाज़ा भड़ाक से बंद हुआ। दुल्हन के मुख से कोई गाली जैसा ग़ुस्सैल कर्कश श्शब्द निकल कर उसके मुँह पर तमाचे की तरह पड़ा। वह तिलमिला गया, मन हुआ, तुरंत दरवाज़ा तोड़कर भीतर घुसे और ‘पूरबण’ को सबक सिखा देकृसाली बनती है पतिव्रताकृपर उसकी बचाओ-बचाओ की दुहाई, हंगामा, मोहल्ले भर के जाग जाने की कल्पना ने उसे ख़ौफ़ से भर दिया। वह दूसरे कमरे में सोने चला गया पर सो नहीं पाया। उसकी दुल्हन उसके बग़ल वाले कमरे में थी। आज ही उसका ब्याह हुआ था और वह यहाँ सोया थाकृएक झिलंगी खाट पर करवटें बदलता, खौलता कृसुलगता,छटपटाता। कभी उसे भाई पर गुस्सा आता और वह उसे गंदी-गंदी गालियाँ देने लगता, कभी ख़ुद पर गुस्सा आता,क्यों बैठा रहा यारों के साथ आधी रात तक दारु पीता हुआ। उसने उसी वक़्त दारु छोड़ने का निर्णय किया। मन ही मन माँ की क़सम खाई। सारी रात उसे लगता रहा कि बाहर आँगन में प्यास का प्रेत डोल रहा है- पानी की तलाश में बेचैन, व्यग्र, गर्म लू जैसी साँसें छोड़ता।,

अगली सुबह गाँव के लोगों ने मोल ली हुई उस दुल्हन का अजीब रूप देखा। उसकी ज़िद थी कि वह अब अपनी ज़िंदगी उसी के साथ काटेगी जिसको उसने अपना पति मानकर देह अर्पित की है। वह किसी भी सूरत में बल्ली के साथ नहीं रहेगी और न ही कहीं जाएगी। पंचायत से उसने माँग की कि उस आदमी को बुलाया जाए जो रात को उसके साथ था वरना वह पुलिस के पास जाएगी। वह मरती मर सकती थी पर अपने धर्म से डिगने को तैयार नहीं थी। आख़िर बल्ली के भाई जसकरण को उसे अपनाना ही पड़ा। आज भी वह उसकी दूसरी औरत बनकर उसके घर रह रही है।

साल भर बाद बल्ली फिर से बेड़ी चढ़ा। लड़की सजातीय थी, नाम था राणो। बल्ली को दुल्हन के बदले उसके माँ-बाप को कोई मुआवज़ा नहीं देना पड़ा बल्कि दहेज में उसे डबल-बैड, टेलीविज़न और कुछ बर्तन मिले। हाँ, दलाल को एक तोला सोने की चेन पहले की भाँति ही देनी पड़ी। दुल्हन सुंदर थी – गोरा रंग, बड़ी-बड़ी बोलती आँखें, लंबे घुंघराले बाल। कमी थी तो बस एक कि वह चल-फिर नहीं सकती थी। बचपन में रेलगाड़ी की चपेट में आने से उसकी दोनों टाँगें घुटनों के पास से कट गई थीं। वह खाट पर बैठी टेलीविज़न देखती या हुक्म चलाती रहती। कभी उसे अंदर या बाहर लाना, ले जाना होता तो बल्ली उसे उठा कर एक जगह से दूसरी जगह रख देता। नहाने-धोने या कपड़े आदि पहनने का काम वह घिसटती-पिसटती स्वयं कर लेती पर उसकी आत्मनिर्भरता यहीं तक सीमित थी, किसी और काम के लिए उसने कभी प्रयास ही नहीं किया। वह चाहती तो चूल्हे के पास बैठकर रोटी बना सकती थी, बैठे-बिठाए किए जा सकने वाले कई काम निपटा सकती थी, गंभीर कोशिश करती तो लाठी, बैसाखी आदि की मदद से चल भी सकती थी पर उसने बचपन से ही आत्मनिर्भर होने की दिशा में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। माँ-बाप के अनुसार वह घर-भर की किश्ती ‘लाडली’ थी न ! उसकी सारी ज़रूरतें खाट पर पूरी होती रहीं। राणो चटोरी थी। खाट पर बैठी सास को हुक्म देती,‘‘माता अज हलवा खाणा है-अज पूड़ियाँ बणा लै-अज खीर खाण दा जी करदै’’ आदि। सास भरसक उसकी फ़रमाइशें पूरी करती पर बल्ली से माँ की आँखों की बेबसी छुप नहीं पाती। वह सोचता, उसकी खुश्शी के लिए माँ राणो की ग़ुलाम बनकर रह गई है। वह राणो को समझाने का प्रयास करता कि कुछ काम वह भी कर लिया करे पर उसका जवाब होता,‘‘मैथों नहीं हुंदा, मैं की कराँ।’’ ‘मैं की कराँ’ उसका तकिया कलाम था। कुछ भी कहो, जवाब होता-मैं की कराँ। बल्ली कभी उसे डाँट देता तो वह रोने लगती, फिर माँ-बेटे की आधी दिहाड़ी उसे चुप कराने और मनाने में गुज़र जाती।

दोस्त कहते थे कि बल्ली आधी-अधूरी, टूटी-फूटी ‘बेड़ी’ पर सवार हुआ है, पार नहीं उतरेगा। अब उसे महसूस होने लगा था कि वह सचमुच ऐसी ही बेड़ी पर सवार होकर गोते खा रहा है। शादी को दो महीने होने को आए थे और अचानक राणो को उसके मुँह से ज़र्दे की बदबू आनी श्शुरू हो गई थी। वह बदबू का बहाना लेकर अक्सर उसे अपने से परे ठेल देती। बल्ली बिस्तर पर आने से पहले बीसियों बार कुल्ले करके मुँह साफ़ करता पर पता नहीं बदबू कौन से रंध्रों में से निकलकर राणो की नाक में पहुँच जाती। बल्ली झल्लाता तो वह रोने लगती। कभी अपने पर क़ाबू नहीं रख पाता तो सारी रात राणो की गालियाँ और रुदन सुनता। बल्ली ने ज़र्दा खाना छोड़ दिया पर राणो को उससे अब भी बदबू आती। वह समझ गया कि राणो जान बूझकर उसकी उपेक्षा करती है, शायद वह उसे पसंद नहीं है। एक रात उसने पूछा,‘‘मैं तैनूँ चंगा नहीं लगदा?’’ राणो चुप रही।

‘‘बोल, बोलदी क्यों नहीं?’’ वह फिर चुप बनी रही।
‘‘ओए कुझ ता बोल, मुँह विच जबान है कि नहीं?’’
‘‘मेरा व्याह होया है तुहाडे नाल, मैं की कराँ।’’
‘‘मैं तैनूँ चंगा नहीं लगदा ताँ व्याह क्यों कीता?’’
‘‘माँ-प्यो ने कर दित्ता, मैं की कराँ।

बल्ली उससे और कुछ नहीं कह पाया। तो राणो उससे नफ़रत करती है,माँ उसके कितने नखरे सहती है, फिर भी उसने एक लंबी साँस ली और करवट बदलकर चेहरा खिड़की की तरफ़ कर लिया।,इस नफ़रत के साथ वह कितने दिन उसके साथ रह सकेगा,पर अगर यह भी छूट गई तो सारी उम्र छड़ा ही रहना होगा, तो फिर वह क्या करे-वह सोचता रहा और सोचते-सोचते उसे नींद आ गई। नींद में उसने देखा-ज़ोरों से बारिश हो रही है, बारिश में सारे कच्चे मकान धराशायी हो गए हैं, मलबे में से दबे हुए लोगों की चीखें आसमान का सीना चीरे दे रही हैं,उसके मुँह से भी चीखें निकल रही थीं। राणो उसे झिंझोड़ते हुए पूछ रही थी, ‘‘की होया?’’

‘‘कुझ नहीं,कुझ नहीं,तू सो जा।’’ उसकी देह हौले-हौले काँप रही थी। राणो उसके माथे को सहला रही थी। उसने राणो का हाथ थाम उसे अपने ऊपर खींच लिया। वह उसके सीने से चिपकी रही। बल्ली के हाथ उसकी पीठ की यात्रा करते रहे।

महीना भर और बीता। अब राणो रोती नहीं थी, उसका विरोध भी नहीं करती थी पर कभी-कभी ऐसी हरकतें करती कि बल्ली को लगता वह उसे चिढ़ाना चाहती है। वह खेत से लौटता तो नींद का नाटक कर खर्राटे भरने लगती। कभी खेत जाने को तैयार होता तो ज़ोर से उसे सुनाकर सास से कहती,‘‘अज मालपुड़े बणा लईं माता।’’ बल्ली बिस्तर पर होता तो वसनविहीन हो छत ताकने लगती, न उसका विरोध करती, न किसी बात का जवाब देती। बल्ली को लगता उसकी बाँहों में कोइ शव है। वह राणो को समझ पाने में स्वयं को अक्षम पाता। एक दिन वह खेत से लौटा तो राणो ने अपनी बाँयी बाँह उसके सामने कर दी। उस पर पेन से कुछ लिखा था। वह घुग्घु बना उसे देखता रहा। राणो बोली,‘‘पढ़ की लिख्या है?’’ अनपढ़ बल्ली क्या पढ़े? बाँह ताकता बस बैठा रहा।

‘‘पढ़, बुत्त क्यों बण्या बैठा हैं?’’
‘‘तू दस दे, की लिख्या है?’’
‘‘है किसे दा नाँ।’’ उस इबारत पर हाथ फिराती हुई राणो की आँखें मुंद गईं।

फिर तो राणो का रोज़ का यह खेल हो गया। वह बल्ली से इबारत पढ़ने को कहती, इबारत पर हाथ फेरती आँखें मूँद लेती। आँखें खोलती तो बल्ली को उन आँखों में अपने लिए अथाह उपेक्षा और अपरिचय नज़र आता। एक दिन खेत से लौटते हुए बल्ली छठी कक्षा में पढ़ रही अपनी भांजी को अपने साथ लेता आया। आते ही उसने राणो की बाँह पकड़कर भांजी के सामने कर दी,‘‘की लिख्या है पुत्तर, पढ़ के दिखा, देखां पढ़ाई विच किनीकू  हशियार हैं?’’ भांजी संदीप कौर अक्षर-अक्षर जोड़ पढ़ने लगी-‘बीजा, मैं तैनूँ याद करनी हाँ।’

‘‘ए बीजा कौण है?’’ बल्ली ने गुस्से में पूछा। राणो न झिझकी, न घबराई, सपाट स्वर में उत्तर दिया,‘‘बाणियाँ दा मुंडा है।’’
‘‘कित्थे रहंदा है?’’
‘‘साडे घर दे कोल। रोज जलेबियाँ लैके साडे घर आँदा सी।’’
‘‘ओ जलेबियाँ तैनूँ आपदे हत्थ नाल खुवांदा वी होणै?’’ बल्ली की ज़बान कटार हो गई थी।
‘‘हाँ, खुवांदा वी सी।’’
‘‘व्याह क्यों नी कीता ओहदे नाल?’’

राणो हँसी, इतनी ज़ोर से हँसी कि आँसू निकल आए,‘‘व्याह कीवें हो जांदा, ओ बाणियाँ सी। मेरियाँ टंगाँ वी ता नहीं सण। ओ मेरे नाल क्यों व्याह करदा? एनी वी गल नहीं समझ सकदा।’’ वह फिर से हँसने लगी। बल्ली तेज़ी से आँगन में गया और एक कपड़ा भिगोकर ले आया। उसने झटके से राणो की बाँह पकड़ी और उस लिखावट पर कपड़ा रगड़ने लगा। लिखावट मिट गई तो कपड़ा फेंककर राणो को सावधान किया कि आइंदा अगर ऐसा किया तो उसकी ख़ैर नहीं। अब वह उसकी पत्नी है, अब उसे बीजा (विजय) को याद करने का अधिकार नहीं। राणो जस की तस बैठी रही। उसके चेहरे पर बल्ली को कोई डर नज़र नहीं आया। वह राणो के तेवर में बग़ावत की गूँज सुन रहा था।

दो-चार दिन बीते होंगे कि राणो फिर बल्ली के सामने वही बाँह लिए खड़ी थी। उस पर कोई इबारत लिखी थी। ज़रूर इस पर विजय का ही नाम लिखा है-बल्ली ने सोचा और उसे पीटना श्शुरू कर दिया। राणो ज़रा भी नहीं रोई, न गिड़गिड़ाई, बस चुपचाप पिटती रही। उसके बाद तो यह सिलसिला आम हो गया। राणो इबारत लिखी बाँह उसके सामने कर देती, बल्ली कर्तव्य की तरह उसकी पिटाई करता, वह पिटने के बाद हँसती और बल्ली की तरफ़ कँटीली नज़र का तीर फेंकती। बल्ली उस तीर से बुरी तरह घायल होता और तड़पता। एक दिन जब राणो ने इबारत लिखी बाँह उसके सामने बढ़ाई तो बल्ली ने उसे पीटा नहीं, पूछा,‘‘आखि़र तू चाहंदी की हैं?’’

‘‘तेरे तों मुकती।’’

क्षेत्र के गाँवों की पंचायतों के सामने ऐसे विवाहों से सम्बंधित मसले अब अक्सर आते थे, बल्कि यूँ कहें कि सबसे ज़्यादा मसले आते ही इस क़िस्म के थे। किसी की मोल लाई हुई बीवी घर का सामान लेकर चम्पत हो गई होती, कोई माँ, बाप, बहन, बुआ, मामा आदि से मिलने जाती और लौटकर नहीं आती या शादी के थोड़े समय बाद ही किसी और के घर में बैठ जाती। पंचायतें अब ऐसे मसलों को बड़े मज़े में सुनती थीं और अपने विस्तृत अनुभवों के आलोक में कभी-कभी भागी हुई बीवी को वापस लाने में कामयाब रहतीं या फिर मामले पुलिस के सुपुर्द कर दिए जाते जो समय बीतने और पुलिस की जेबें भरने के बाद ख़ुर्द-बुर्द हो जाते। यह मामला तो बहुत आसान था, सो पंचायत होते ही राणो को मुक्ति मिल गई। इस बात की चिंता करना पंचायत का काम नहीं था कि राणो या बल्ली की भविष्य की ज़िंदगी का क्या होगा।

लगभग ढाई साल बाद बल्ली तीसरी बार बेड़ी चढ़ा। उसकी दुल्हन उससे दो-तीन साल बड़ी रही होगी। उसे बताया गया था कि सुखजीत कौर उर्फ़ सुक्खी विधवा है, उसका ऑपरेशन हो चुका है सो वह वंश नहीं बढ़ा पाएगी। देखने में वह राणो से भी ज़्यादा सुंदर थी। उसने आते ही सारा घर सँभाल लिया। माँ को घर का काम करने ही नहीं देती थी। बोलती तो लगता गुनगुना रही है। गुस्सा तो उसमें नाम का भी नहीं था। रोज़ बल्ली के लिए खेत में रोटी लेकर जाती। किसी दिन बहुत व्यस्त होने के कारण किसी और के हाथ रोटी भेजती तो बल्ली रोटी खाता ही नहीं। वह चाहता था कि सुक्खी उसके सामने बैठी रहे और वह उसे देखते हुए रोटी खाता रहे। उसे देखे बिना रोटी उसे भाती ही नहीं थी। कभी सुक्खी व्रत रख लेती तो बल्ली भी रोटी नहीं खाता। उसे सुखजीत कलैंडरों में दिखाई देने वाली देवियों जैसी लगती, जिस पर आँखें मूंदकर भरोसा किया जा सकता था। शायद इसीलिए उसने शादी के कुछ दिनों बाद ही अपनी पहली दोनो शादियों के बारे में सब कुछ उसे बता दिया था। शादी के पहले दिन जिस सुक्खी ने अपने जेठ के पाँव छुए थे, सारी हक़ीक़त जानने के बाद अब वह जेठ के सामने भी नहीं पड़ती थी और न ही कभी उनके घर जाती थी। उसकी शादी को क़रीब दो महीने हुए थे जब बल्ली ने उसे बताया कि जेठ के यहाँ तीन लड़कियों के बाद लड़का हुआ है। वह सारे गाँव को ‘पाल्टी’ दे रहा है और उनको भी वहाँ जाना है। सुक्खी ने कहा, ‘‘तुसीं ते माता जाओ, मैंने नहीं जाणा।’’

‘‘क्यों नहीं जाणा सुक्खी, ए ताँ खुशी दा मौका है।’’

‘‘मैं तुहानू नहीं रोकदी, तुहाडे ओ भाई ने पर मैं उस बंदे दे घर नहीं जा सकदी जिसने मेरे घरवाले दा घर नहीं वसण दित्ता।’’ सुक्खी की बात सुनकर बल्ली का रोम-रोम आनंद से पुलकित हो उठा। उसके भाई ने ज़्यादती उसके साथ की थी, दर्द सुक्खी को हो रहा था। उसने फ़ैसला किया कि वह भी अपने भाई के घर नहीं जाएगा पर सुक्खी उसके इस फ़ैसले से सहमत नहीं हुई। उसने क़सम देकर उसे वहाँ भेजा। इससे बल्ली के दिल में सुक्खी और गहरे बस गई। चार महीने के भीतर-भीतर बल्ली अपने-आप को सुक्खी के इतना क़रीब महसूस करने लगा कि जैसे उसके साथ उसका जन्मों का नाता हो। उसके बिना रहने की कल्पना भी अब उसके लिए असह्य थी। सुक्खी के बिना उसका जी कहीं नहीं लगता था। खेत जाता तो शाम होने का इंतज़ार करता, दिन उसे बहुत लंबा लगने लगता। रात जब सुक्खी उसके सामने होती तो वह एकटक उसे देखता रहता जैसे कि अमृतपान कर रहा हो। सुक्खी उसे टोकती तो वह खिसिया जाता। कभी उसे देर हो जाती तो भी सुक्खी उसके इंतज़ार में जागती रहती। कभी थकी-माँदी सुक्खी की आँख लग गई होती तो वह चुपचाप कमरे में प्रवेश करता कि कहीं उसकी आहट से सुक्खी की नींद न खुल जाए। वह धीरे से खाट पर बैठ जाता और देर तक उसे देखता रहता। उसे लगता अँधेरे में भी सुक्खी का चेहरा जगमगाता है। बल्ली को सुक्खी की हँसी बहुत अच्छी लगती थी। वह हँसती तो उसके कंधे भी ठुमक-ठुमककर हँसते। तब बल्ली की उंगलियाँ काँपने लगतीं। वह अपनी काँपती उंगलियाँ कंधों के लबों पर रख देता, तब हाथ भी लबों में तबदील हो जाते। सारी सृष्टि की गति रुक जाती और क़ायनात कोमल कंधों एवं खुरदरी उंगलियों में आ सिमटती।

एक दिन जब बल्ली घर लौटा तो पाया कि सुक्खी घर में नहीं है। वह व्यग्र हो उठा। माँ से पूछा, उसे भी कुछ पता नहीं था। सारा पड़ोस देख लिया गया पर सुक्खी कहीं नहीं मिली। रात निकल गई, सुक्खी नहीं आई। बल्ली को लगा, शायद अपणे ‘पेके’ गई हो पर बताकर जाती तो क्या वह मना करता। बल्ली को इतना तो पता था कि उसके पेके मानसा में हैं पर अता-पता उसके पास नहीं था। वह जिंदगी में कभी जाखल से आगे नहीं गया था। सुक्खी के बिना उसका हाल बेहाल था। उसका एक दोस्त था दीदार। दीदार कई बार मानसा हो आया था। शायद वह उसकी कोई मदद कर पाए-यह सोचकर वह उससे मिला। फिर दोनों दोस्त जाखल होकर मानसा के लिए निकल पड़े। दो दिन इधर-उधर भटकते रहे पर कहीं सुक्खी की छाया भी नहीं दिखी। आखि़र थक-हारकर घर लौट आए। बल्ली की दुनिया उजड़ गई थी। उसे न रोटी अच्छी लगती, न किसी काम में मन लगता। दिन-रात बस अपने नसीब को कोसता रहता।

अचानक पाँचवें दिन सुक्खी लौट आई। उसे देख बल्ली की खुशी का ठिकाना नहीं था पर प्रत्यक्षतः वह सुक्खी से रूठ गया। सुक्खी ने मिन्नतें कर लीं पर उसने रोटी नहीं खाई। उसने नहीं खाई तो सुक्खी ने भी नहीं खाई। रात हुई। बल्ली उसकी ओर पीठ कर खाट पर लेटा था। अचानक सुक्खी ने उसके बालों पर हाथ फिराते हुए पूछा,‘‘नराज हो?’’ बल्ली कुछ नहीं बोला। वह उसके पास आ बैठी। बल्ली के भीतर कुछ चटका।

‘‘मैं जाणदी हाँ, तुसीं नराज हो।’’
‘‘हाँ, बिना दस्से कित्थे तुर गई सी, मैं सोचेया किते,’’ बल्ली का कण्ठ रुंध गया।
‘‘तुसीं सोचेया के मैं तुहानू छड के भज गई,है ना’’, बल्ली कुछ नहीं बोला, ‘‘तुहाडा सोचणा जैज है। अजकल कोई भरोसा नहीं किसे दा।’’
‘‘पर मेरी सुक्खी दे मैनूँ भरोसा है, मैनूँ तां मेरे नसीब ते भरोसा नहीं रेहा। तैनूँ पता है तेरे बिना कीवें कटे ने एह दिन’’ बल्ली सुक्खी की गोद में सर रखे रो रहा था और सुक्खी उसके आँसू पोंछ रही थी। थोड़ा सामान्य हुआ तो पूछा, ‘‘पर तू गई कित्थे सी?’’
‘‘मानसे गई सी,अपणे पेके, मेरा वी माँ-प्यो, भैण-भरावाँ नूँ मिलण दा जी करदा है।’’
‘‘पर तू दस के वी ता जा सकदी सी, मैं दो दिन मानसे दी सड़काँ ते टंगा तोड़दा तैनूँ लभदा रिहा।’’
‘‘हाय ओए मैं सदके जावाँ पर मैं ताँ सुणया है कि मेरा चन्न कदे जाखल वी नहीं टपेया।’’
‘‘दीदार नूँ नाल लै के गया सी।’’

सुक्खी बल्ली को प्यार से ताके जा रही थी और बल्ली तो जैसे होश ही खो बैठा था। फिर सहसा रात तारों के साथ खिलखिलाने लगी, सुक्खी हवा हो गई, बल्ली पानी,हवा तारों को उड़ा पानी के पास ले आती,पानी में नहाकर तारे हवा में उड़ने लगते,फिर तारों समेत हवा पानी में डुबकी लगा देती,हवा की महक पानी में घुल जाती। हवा-पानी का यह खेल सूरज उगने तक चलता रहा। अगली सुबह बल्ली को खेत कुछ ज़्यादा हरे दिखाई दिए, गाँव के तालाब में पानी कुछ ज़्यादा साफ़ हो गया, गलियों में भौंकते कुत्ते नज़र नहीं आए, धूप का रंग सुनहरा हो गया, झरबेरी पर लाल बेर चमकने लगे, पगडंडी पर पाँव थिरकने लगे।

हर दो-ढाई महीने में सुक्खी अपने ‘पेके’ जाती, हफ़्ते-दस दिन में लौट आती। शादी को ढाई साल हो चुके थे। गाँव में तरह-तरह की अफ़वाहें थीं- कि सुक्खी पेके नहीं जाती, वह अपणे किसी पुराने यार से मिलने जाती है, कि वह शहर के किसी होटल में धंधा करती है, कि भोली शक्ल की आड़ में मासूम लड़कियों को फँसाकर गिरोह के हाथ बेच देती है-आदि। बल्ली ऐसी अफ़वाहें सुनकर परेशान हो जाता था। उसे यक़ीन नहीं होता था कि उसकी प्यारी सुक्खी का ऐसा भी कोई रूप हो सकता है। कई बार मन हुआ कि वह उसके सामने इन अफ़वाहों का ज़िक्र करे और उसके मुँह से इनका खण्डन सुने पर उसने कभी सुक्खी से इस बारे में कुछ नहीं पूछा। डरता था कि कहीं वह उसे छोड़ न जाए। वह उसे इतनी अच्छी लगती थी कि बल्ली किसी भी क़ीमत पर उसकी नाराज़गी सह ही नहीं सकता था।

और फिर एक सुबह सुक्खी ने बल्ली को नहा-धोकर नई तहमद, कमीज़ और जूती पहनने का आदेश दिया। वह कुछ समझ नहीं पाया। पूछने पर भी सुक्खी हौले-हौले मुस्कुराती वही आदेश दोहराती रही। अब आदेश सुक्खी का था तो उसे मानना ही था। थोड़ी देर बाद बल्ली सजा-धजा सुक्खी के सामने खड़ा था। सुक्खी अंदर से एक पीले रंग की पगड़ी ले आई और उसे बल्ली के सिर पर बाँधने में मदद करने लगी। बल्ली की जिज्ञासा चरम पर पहुँच चुकी थी, पगड़ी बाँधते-बाँधते पूछा,‘‘सुक्खी, दस ता सही, अज तैनूँ होया की है?’’

‘‘अज मेरा चन्न उस मानसे शहर विच मेरे नाल जाएगा, जिस श्शहर दियाँ सड़काँ उत्ते ओ मैनूँ लभदा होया दो दिन तक अपणियाँ टंगा तुड़वांदा रेहा।’’

बल्ली हैरान था – आज अचानक वह उसे अपने पेके क्यों ले जा रही है, कहीं वह उसे छोड़ने वाली तो नहीं है? इस आशंका ने उसके भीतर जन्म क्यों लिया – वह समझ नहीं पा रहा था। उसने सुक्खी को देखा तो वह बहुत खुश लगी। उसके हावभाव से कहीं भी ऐसा होने की संभावना तक नज़र नहीं आई। पगड़ी बँध चुकी थी, कमर पर हाथ रखे सुक्खी उसे प्यार से एकटक देखे जा रही थी। बल्ली शरमा गया, साथ ही उसके भीतर की आशंका भी सुक्खी की आँखों की झील में डूबकर दम तोड़ गई।

मानसे में वे जिस घर में पहुँचे, वह बड़ा तो नहीं था पर सुंदर और पक्का था। बल्ली को सबसे पहले वह काली हाँडी नज़र आई जो नज़रबट्टू बनी छत की ग्रिल में टँगी खड़ी थी। घर के आँगन में से सीढ़ियाँ छत की तरफ़ जाती थीं। बल्ली को लगा कि उस दिन सुक्खी को ढूँढ़ते हुए वह इस घर के सामने से भी निकला था, हू-ब-हू यही घर था,हाँडी पर बनी हाथ भर ज़बान निकाले काली माई की तस्वीर को वह भूल सकता है? सुक्खी ने आँगन में से ‘भाभी’ की पुकार लगाई, चट् से अंदर से एक  तीस-बत्तीस वर्षीय गोरी औरत निकली जैसे कि कब से उसी आवाज़ के इंतज़ार में चौखट की ओट लिए खड़ी हो और आते ही सुक्खी से लिपट गई। सुक्खी ने बल्ली की तरफ़ इशारा करते हुए उस औरत से कहा,‘‘एह तेरे नणदोई’’ और फिर शरमा गई। उस औरत ने हाथ जोड़कर बल्ली से ‘सत् श्री अकाल’ कहा तथा आदरपूर्वक अंदर ले गई। तभी हाथ में बैट उठाए, सिर पर बालों की छोटी-सी जूड़ी बनाए एक सात-आठ वर्ष का बालक ‘मम्मी-मम्मी’ कहता दौड़ता हुआ आया और उसे देखकर चुप हो गया। उसकी माँ ने उसे फुफड़ के पैर छूने के लिए कहा तो उसने चुपचाप ‘पैरी पैना’ कहकर बल्ली के पाँव छू लिए। बल्ली को वह नन्हा-सा लड़का बहुत सुंदर, सलीक़ामंद और प्यारा लगा। चाय-वाय पीते तक रात हो गई थी। सुक्खी का भाई मक्खन जो किसी वर्कश्शॉप पर काम करता था, घर आया तो बल्ली से गले लगकर मिला और देर हो जाने के लिए माफ़ी भी माँगी। बल्ली से किसी ने पहली बार माफ़ी माँगी थी और वह भी बिना किसी कुसूर के। वह इतना बड़ा आदमी कब से बन गया,उसका कण्ठ भर आया। रात को दो सब्ज़ियों के साथ रोटी खाई, सुबह मक्खन में तर मूली के पराँठे। बल्ली पहली बार ससुराल के आनंद का अनुभव कर गद्गद् हुआ जा रहा था।

मक्खन काम पर गया था। मक्खन का बेटा पम्मी बाहर छोटे-से आँगन में अपने किसी दोस्त के साथ बैट-बॉल खेल रहा था। आज गुरु रविदास जयंती की छुट्टी थी। सुक्खी अपनी भाभी के साथ बाज़ार गई थी और दोपहर तक आने का कह गई थी। बैठक में अकेला बैठा बल्ली खाट पर अधलेटा टेलीविज़न देख रहा था। वह लगातार चैनल पर चैनल बदलता विस्मित हुआ जाता था। तभी पम्मी अपना खेल ख़त्म कर बैठक में आ गया, आते ही निस्संकोच उससे बोला,‘‘फुफड़ जी, अलमारी विचों एलबम चुक द्यो, मेरा हत्थ नहीं पहुँचदा।’’ उसने इशारे से अलबम की जगह बताई, बल्ली ने एलबम उठाकर उसके हाथ में दे दी। लड़का वहीं उसके पास खाट पर बैठ एलबम के पन्ने पलटने लगा। तीसरे पन्ने पर बल्ली की आँखें फँसकर रह गई। एक फोटो में सुक्खी थी, साथ में एक मर्द और एक छोटी-सी बच्ची। पम्मी पन्ना पलटने लगा तो बल्ली ने उस पन्ने पर हाथ रख दिया, पूछा,‘‘तेरी बुआ दे नाल एह कौण है?’’

‘‘एह फुफड़ ते एह बुआ दी कुड़ी गुड्डी’’
‘‘एह फुफड़ कित्थे रहंदा है?’’
‘‘खुइयाँ पिंड विच।’’
‘‘गुड्डी वी उसदे नाल रहंदी है?’’

‘‘फुफड़ तां गुड्डी नूँ रखदा ही नहीं, ओ तां एत्थे साडे घरे रहंदी है या ताए दे घर। कदे-कदे पापा या ताया जी उसनूँ खुइयाँ छड आंदे ने, फुफड़ फेर एत्थे ही छड जांदा है। फुफड़ उसनूँ बहोत कुटदा-मारदा है। गुड्डी ओथे जाण लगे बहोत रौंदी है। बुआ वी जदों उसनूँ मिलदी है तां रौंदी ही रहंदी है।’’

‘‘हुण गुड्डी कित्थे है , खुइयाँ?’’
‘‘नहीं ,ताये दे घर है नंगल कलाँ।’’

सुक्खी के बारे में फैली सारी अफ़वाहें अब दम तोड़ चुकी थीं। बल्ली उसके बार-बार कुछ दिनों के लिए घर छोड़ देने का रहस्य जान चुका था। उसकी सुक्खी कितनी दुविधा में थी। एलबम अब वापस अपनी जगह पर थी पर अब बल्ली का मन टेलीविज़न देखने में नहीं लग रहा था। वह खाट पर पसर ऊँघने लगा और उसकी आँख लग गई। सुक्खी ने आकर उसे जगाया। उसने ग़ौर से सुक्खी की आँखों में देखा। तुरंत ताड़ गया कि रोई है, पर उसने कुछ कहा नहीं।

गाँव लौटने के बाद ज़िंदगी पहले की तरह चलने लगी। मानसा से लौटने के बाद सुक्खी ने बल्ली में लगातार हो रहे एक बदलाव को चीन्हा। अब वह पहले की तरह मैला या बिना नहाये नहीं रहता था; बल्कि हर सुबह उठकर नहाता, साफ़ कपड़े पहनता। दो नई तहमद-कमीज़ें भी उसने पन्द्रह दिनों के भीतर सिलवा ली थीं। एक सस्ता मोबाइल भी ले आया था। बल्ली के साथ वह भी मोबाइल पर बात करना सीख गई थी। अब वह भरसक कोशिश करता कि रोटी सुक्खी के साथ ही खाए। सुक्खी को अजीब तो लगता पर वह मन ही मन खुश होती। एक रात वह घर नहीं लौटा बल्कि पड़ोसी के मोबाइल पर फोन किया कि वह सरदार जी (ज़मींदार) के खेत का कुछ सामान लेने के लिए जाखल में है, सुबह आ जाएगा। सुक्खी को खुशी हुई कि उसका सिधरा बलम अब दुनियादारी भी सीख रहा था।

बैसाखी मनाई जा चुकी थी। इस बार गेहूँ बैसाखी से पहले ही कटकर ज़मींदारों के घरों में आ चुकी थी। बल्ली सरदार जी की गेहूँ की ट्रॉली के साथ जाखल मण्डी गया था। दोपहर में पड़ोसी के मोबाइल पर बल्ली का फ़ोन आया कि उसे रात को मण्डी में ही रहना पड़ेगा क्योंकि गेहूँ की अभी बोली नहीं आई है, कल वह जल्दी ही आने की कोशिश करेगा। अगले दिन मकर संक्रांति को गुड़ के मीठे चावल बनाकर सुक्खी बल्ली का इंतज़ार कर रही थी। जैसे-जैसे समय बीत रहा था, सुक्खी की व्यग्रता भी बढ़ती जा रही थी। धीरे-धीरे पल महीनों में बदलने लगे। उसने सुबह से कुछ नहीं खाया था और अब दोपहर भी बीत चुकी थी। बल्ली अब तक नहीं आया था। कई बार वह उसके मोबाइल पर बात करने का प्रयास कर चुकी थी पर सामने से मोबाइल बंद आ रहा था। श्शाम के चार बज गए, उसका मन डूबने लगा। भूख-प्यास तो उसकी पहले ही मर गई थी। आखि़र हार कर वह सरदार जी के घर की ओर चल पड़ी कि वे आढ़ती से बात कर बल्ली का पता लगा दें। उसे नहीं मालूम, उसके पत्थर हो गए पाँव सरदार जी के दरवाज़े तक कैसे पहुँचे। ‘‘सरदार जी!’’ उसकी बेसब्र पुकार तड़पती लहर-सी अंदर आँगन की दीवारों से टकराई। सरदार जी हड़बड़ा कर दरवाज़े पर आए। सुक्खी ने उसी बेसब्री से पूछा,‘‘ओ कल दे कणक लै के गए ने, हाले तक वी आए क्यों नी, जाखल मण्डी फोन करके आढ़ती तों पुच्छो ताँ सई।’’ उत्तर में सरदार जी की बात सुनकर तो उसके पैरों तले की ज़मीन ही खिसक गई। गेहूँ कल ही बिक चुकी थी, बल्ली के साथ गया बिहारी तो कल शाम को वापस भी आ गया था। उसे लगा, वह यहीं दरवाज़े पर गिर जाएगी, लड़खड़ाती आवाज़ में जैसे उसने स्वयं से पूछा,‘‘फेर ओ गए कित्थे?’’

‘‘खेत’च जाके वेख, किते फाँसी ना खा गेया होवे। घर’च होया होणा कोई रोला। मुल्ल दियाँ तीवियाँ दी एही ता मुसीबत है, सालियाँ पता नहीं, किन्ने खसम करदियाँ ने। मुल्ल’’ सुक्खी ने आगे कुछ नहीं सुना। बदहवास दौड़ती खेत में पहुँच गई। खेत में बल्ली उसे कहीं नज़र नहीं आया। ट्यूबवैल वाला कोठा भी सूना पड़ा था। वह कोठे की दहलीज़ पर बैठकर चीखी, भीतर कहीं तसल्ली भी हुई कि सरदार जी की बात सच नहीं निकली। वह वहाँ से चली तो देखा, सरदार जी सामने खड़े थे। उसने एक तीखी नज़र सरदार जी पर डाली और घर की ओर चल पड़ी। सुक्खी की पीठ ने सुना, सरदार जी कह रहे थे, ‘‘चंगा ए, साला खेत विच नहीं मर्या, साडे गल’च फंदा पै जाँदा।’’ वह घर लौटी तो उसके भीतर सन्नाटा सनसना रहा था, सूरज का रंग ख़ून जैसा लाल हो गया था, सुक्खी के तन पर जैसे कोई रंदा चला रहा था। माँ आज सुबह से ही अपने बड़े बेटे के घर पर थी। सुक्खी घर पहुँची और खाट पर लुढ़क कर रोने लगी, साथ ही बल्ली की सलामती की दुआएँ माँगती जा रही थी। रोते-रोते अँधेरा हो गया पर उसे बत्ती जलाने का होश्श ही नहीं था।

अचानक आँगन में उजाला फैल गया। वह उठती कि कमरा भी जगमगा उठा। उसके सामने बल्ली खड़ा था और उसके साथ उसकी उंगली पकड़े, गुलाबी फ्रॉक पहने खड़ी थी गुड्डी। रोती हुई सुक्खी दौड़कर बल्ली से लिपट गई, फिर धरती पर बैठकर बल्ली की टाँगों और गुड्डी को एक साथ अपनी बाँहों में जकड़ लिया।

बल्ली और गुड्डी खाट पर बैठे थे। सामने खड़ी सुक्खी की सवालों से लबालब आँखें बल्ली पर टिकी थीं। बल्ली उसके सवालों को समझ गया था पर उसका कण्ठ बार-बार अवरुद्ध हुआ जा रहा था। यही हालत सुक्खी की भी थी, उसके मुँह से आवाज़ ही नहीं निकल रही थी। बल्ली ने उठकर पानी पिया। सुक्खी को ध्यान आया-हाय उसने तो पानी भी नहीं पूछा। बल्ली ने गुड्डी के कंधे पर हाथ रखा और सुक्खी को देखते हुए बोला,‘‘हुण गुड्डी अपणे नाल रहेगी, हमेशा वास्ते।’’

‘‘पर,’’

‘‘मैं सुखदेव सिंह तों सारी लिखा-पढ़ी करा लई है, पंज हजार दी रकम वी ओसदे मत्थे मार दित्ती है। हुण गुड्डी ते उस कमीने दा कोई हक नहीं।’’

‘‘पंज हजार, तुहाडे कोल,?’’

‘‘दीदार कोल लये सी, तू चिंता ना कर, दे देयांगे।’’

रात को एक खाट पर सुक्खी और गुड्डी सोए थे, दूसरी पर बल्ली। सुक्खी बल्ली को ताके जा रही थी, बल्ली गुड्डी को। गर्मियों की चाँदनी रात बर्फ़ का गोला बन उनकी खाटों पर आ पसरी थी।

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