शिक्षा व्यक्ति व समाज के विकास का माध्यम है। अपने बच्चों को सर्वश्रेष्ठ स्कूल में प्रवेश और कक्षा में सर्वोच्च स्थान पर लाने की होड़ इस दौर की सबसे बड़ी प्रतियोगिताओं में से एक है। अभिभावकों की उम्मीदें बच्चों के स्वाभाविक विकास को कुचल रही हैं। इस दौर में अभिभावकों की अपने बच्चों को बड़े आर्थिक पैकेज और शोहरत वाले कैरियर को पा लेने की महत्वकाक्षाएं हैं। दूसरी ओर अपनी रोजी-रोटी जुटाने की तलाश में निकले लाखों प्रवासी मजदूरों के बच्चे अभी स्कूलों से बाहर हैं। इन बच्चों को स्कूल तक पहुंचाने में कुछ हद तक सामाजिक स्तर पर रचनात्मक तरीकों से कार्य किया जा सकता है। प्रस्तुत है पिछले 12 साल से रोहतक में रात को पाठशाला चला रहे नरेश कुमार के अनुभव – सं.
रोहतक के सेक्टर 4 की हाऊसिंग बोर्ड कालोनी में प्रवासी श्रमिकों के बच्चों के बीच पिछले 12 वर्षों से अनौपचारिक शिक्षा का एक प्रयास चल रहा है। एक पार्क में स्ट्रीट लाइट के नीचे चल रहे इस गांधी स्कूल में करीब 80 बच्चे नियमित रूप से पढऩे आते हैं। जाने-माने इतिहासकार प्रोफेसर सूरजभान इस प्रयास की नींव रखने के प्रमुख प्ररेणा के स्रोत रहे। प्रवासी मजदूरों की रिहायशी बस्ती में 5 सितम्बर 2005 को हुई इस शुरूआत के पहले दिन 3 बच्चे एक चौराहे पर पढऩे आए। इन बच्चों के साथ खेलने, पढऩे और कविता-कहानी के बारे में बातचीत की गई। अगले दिन 5 बच्चे पढऩे आए। इससे हौंसला लेते हुए कई प्रवासी मजदूरों के घर जाकर बच्चों को पढऩे के लिए भेजने का अनुरोध किया। महीने भर में चौराहे पर पढऩे आने वाले बच्चों की संख्या 16 हो गई। साथ ही नियमित अंतराल में बच्चों के अभिभावकों के साथ संवाद शुरू हो गया और धीरे-धीरे गांधी स्कूल में उनका विश्वास बढ़ता गया। बच्चों से हाथ मिलाने, प्यार से उनके सीखने के सामथ्र्य को प्रोत्साहित करने, गोदी उठाने, आते ही सबको गुड इवनिंग बोलने, लेट होने पर बच्चों से माफी मांगने और किसी भी प्रकार के उठने वाले सवालों और जिज्ञासाओं को बेबाकी से अभिव्यक्त करने के लिए प्रेरित किए जाने से बच्चों में गांधी स्कूल के साथ गहरा लगाव बढ़ता गया। इन बीते वर्षों में अलग-अलग समय में 1174 प्रवासी बच्चे गांधी स्कूल में पढऩे आए।
धीरे-धीरे इन बच्चों को पास के सरकारी स्कूल में दाखिल कराना शुरू किया। अब अधिकतर बच्चे दिन में सरकारी स्कूलों में जाते हैं और शाम को 6 बजे स्ट्रीट लाईट जलते ही गांधी स्कूल (पार्क) में पहुंच जाते हैं। कई प्रवासी बच्चे तो दो कि.मी. पैदल चलकर गांधी स्कूल पहुंचते हैं।
‘पढ़ेंगे पढ़ाएंगे,जीवन सफल बनाएंगे’ के नारे के साथ गांधी स्कूल की शुरूआत होती है। स्कूल पहुंचते ही दिनभर की आस-पास की घटनाओं को बच्चे बड़े चाव के साथ बताते हैं। उत्तरप्रदेश और बिहार की पृष्ठभूमि से आने वाले इन बच्चों की शुरूआत में स्थानीय बोली के चलते कुछ भाषायी दिक्कतें आई, लेकिन शीघ्र ही एक-दूसरे से सीखते हुए स्वाभाविक लगाव बनता चला गया।
प्रवासी बच्चों को इस तरह से स्ट्रीट लाइट के नीचे नियमित पढऩे के कार्य के प्रति सामाजिक स्तर पर व्यापक हमदर्दी है। काम को भलाई के रूप में देखने वाले बड़ी संख्या में नागरिक मौजूद हैं। विशेषकर डाक्टरों, शिक्षकों, छात्रों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, कारोबारियों और सामाजिक संगठनों सहित हर क्षेत्र में हाशिए के इन वंचितों बच्चों को शिक्षित करने के कार्य को समर्पित और नेक उद्देश्य के रूप में देखते हैं। समुदायों के बीच से ही बड़ी संख्या में ऐसे नागरिक आगे आते हैं, जो इन बच्चों के लिए कापी, किताबें, सर्दी के कपड़े, साईकिल, दरी कुर्सी जैसे जरूरत के सामान को बड़े उत्साह के साथ मुहैया कराते हैं।
प्रवासी बच्चों को स्कूलों में आने वाली समस्याएं
प्रवासी मजदूरों में अपने बच्चों को शिक्षित बनाने की प्रबल इच्छा है। अनेक प्रवासी मजदूरों के बच्चों को सार्वजनिक शिक्षा के तहत सरकारी स्कूलों में दाखिला लेने के लिए जाति-प्रमाण पत्र, आधार-पहचान पत्र, जन्म-प्रमाण पत्र व बैंक खाता खुलवाने से जुड़ी कई शर्तों के चलते भारी कठिनाइयों से गुजरना पड़ता है। आस-पास सरकारी स्कूल न होने की वजह से कई बच्चों को पढ़ाई से वंचित ही रहना पड़ता है। खुले आसमान के नीचे झोपड़ी डालकर रह रहे अनेक कूड़ा बीनने वाले प्रवासी मजदूर परिवारों के बच्चों के धार्मिक अल्पसंख्यक पृष्ठभूमि से आते हैं। स्कूलों में दाखिल होने के रास्तों में इनके बच्चों को और भी ज्यादा समस्याओं का सामना करना पड़ता है। प्रवासी और अल्पसंख्यकों के इन बच्चों के प्रति कुछ शिक्षकों के पूर्वाग्रह भी उनके स्कूल पहुंचने के आकर्षण को मंद कर देते हैं। इन बच्चों के साथ कुछ शिक्षकों द्वारा हतोत्साहित करने वाली भाषा प्रयोग किए जाने के मामले भी सामने आते हैं।
शहरों में सरकारी स्कूलों की कमी के चलते प्रवासी मजदूरों के बच्चों को स्कूल जाने के लिए कई-कई कि.मी. तक पैदल चलना पड़ता है। प्रवासी मजदूरों के कार्यस्थल बदल जाने के कारण कई बच्चों को बीच में ही अपनी पढ़ाई छोडऩी पड़ती है।
गांधी स्कूल के प्रयास के प्रति जनमानस का दृष्टिकोण:
प्रवासी बच्चों को इस तरह से स्ट्रीट लाइट के नीचे नियमित पढऩे के कार्य के प्रति सामाजिक स्तर पर व्यापक हमदर्दी है। काम को भलाई के रूप में देखने वाले बड़ी संख्या में नागरिक मौजूद हैं। विशेषकर डाक्टरों, शिक्षकों, छात्रों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, कारोबारियों और सामाजिक संगठनों सहित हर क्षेत्र में हाशिए के इन वंचितों बच्चों को शिक्षित करने के कार्य को समर्पित और नेक उद्देश्य के रूप में देखते हैं। समुदायों के बीच से ही बड़ी संख्या में ऐसे नागरिक आगे आते हैं, जो इन बच्चों के लिए कापी, किताबें, सर्दी के कपड़े, साईकिल, दरी कुर्सी जैसे जरूरत के सामान को बड़े उत्साह के साथ मुहैया कराते हैं। मेडिकल व कालेज-विश्वविद्यालयों के कई छात्र-छात्राएं अपना कुछ समय निकालकर बच्चों को बीच-बीच में पढ़ाने पहुंच जाते हैं। कई मध्यमवर्गीय नौकरी पेशा और कारोबारी परिवार अपने बच्चों का जन्मदिन गांधी स्कूल के बच्चों के साथ कापी-पैंसिल बांटकर मनाते हैं। मीडिया में भी इस प्रयास का संज्ञान लिया है। स्कूल के आस-पास की आबादी में प्रवासी मजदूरों के बच्चों के प्रति बने पूर्वाग्रहों की तीव्रता में भी कुछ कमी देखी जा सकती है।
समय-समय पर महापुरूषों की याद में बच्चों द्वारा सांस्कृतिक आयोजन किए जाते हैं। इन कार्यक्रमों में स्कूल के प्रति हमदर्दी रखने वाले नागरिकों और बच्चों के अभिभावकों को भी शामिल किया जाता है।
सामाजिक सरोकारों से जुड़े अनेकों मुद्दों पर बच्चों की भागीदारी रहती है। लैंगिक समानता, सद्भावना, सामाजिक न्याय और बराबरी की अवधारणा के प्रति बच्चों में आकर्षण पैदा हो रहा है। पर्दा फैंको, दुनिया देखो, गुटका छोड़ो, शराब छोड़ो, लड़का-लड़की एक समान, हम सब एक हैं, पढ़ेंगे पढ़ाएंगे-जीवन सफल बनाएंगे जैसे विषयों पर बच्चे हर महीने पोस्टर बनाकर आस-पास की बस्तियों में रैली निकालते हैं। अपने बच्चों में आत्मविश्वास और उनकी सांस्कृतिक कार्यक्रमों की प्रस्तुतियां देखकर अभिभावकों में अपने बच्चों के बेहतर भविष्य की अपेक्षाएं साफ तौर पर देखी जा सकती हैं।
‘ईद भी अपनी, तीज भी अपनी’ का पैगाम लेकर त्योहारों के मौके पर अपने मास्टरों के साथ बच्चे एक-दूसरे के घर मुबारकबाद-बधाई देने जाते हैं। इन मौकों पर बच्चों और उनके अभिभावकों द्वारा किया जाने वाला आदर-सत्कार व अपनेपन का रिश्ता रोमांचित कर देता है।
बच्चों की बात सुनना, उनसे सीखना और सजा की बजाए संवाद का संबंध कायम करना, समस्या को समझना और उसके निदान के लिए बच्चों को शामिल करते हुए सामूहिक दृष्टि अपनाए जाने के सकारात्मक परिणाम सामने आए हैं। प्यार से बच्चों के साथ घुलने-मिलने, उनके बीच बैठकर पढऩे-पढ़ाने, उनके साथ खेलने और बच्चों को गोदी उठाने जैसे तौर-तरीके ऐसे प्रयासों को आधार प्रदान करते हैं।
सीखने-सीखाने संबंधी कुछ अनुभव:
बच्चों की बात सुनना, उनसे सीखना और सजा की बजाए संवाद का संबंध कायम करना, समस्या को समझना और उसके निदान के लिए बच्चों को शामिल करते हुए सामूहिक दृष्टि अपनाए जाने के सकारात्मक परिणाम सामने आए हैं। प्यार से बच्चों के साथ घुलने-मिलने, उनके बीच बैठकर पढऩे-पढ़ाने, उनके साथ खेलने और बच्चों को गोदी उठाने जैसे तौर-तरीके ऐसे प्रयासों को आधार प्रदान करते हैं।
स्कूल की शुरूआत बच्चों के साथ दिन की महत्वपूर्ण घटना या उनके जीवन की दिनचर्या से जोड़कर बातचीत शुरू की जाती है, सीखने की प्रक्रिया को रूचिकर बनाने के प्रयास करते हुए विषय को कहानी के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। पढऩे के बाद खेलने का आग्रह शुरू कर देते हैं। बच्चों में खेलकूद, गीत, नाटक, नृत्य और पेंटिग जैसी गतिविधियों में हिस्सेदारी करने की होड़ लग जाती है।
लड़कियों की शिक्षा को लेकर बच्चों ने स्वयं ‘सोच नई, राह नई’ नाटक की स्क्रिप्ट तैयार करके कई जगह सुंदर प्रस्तुति दी। अपनी मजदूर बस्ती में बच्चों ने विश्वकर्मा दिवस पर हजारों श्रमिकों के बीच आयोजकों से आग्रह करके अपने तैयार किए नाटक की बेहतरीन प्रस्तुति दी। लैंगिक संवेदनशीलता, बराबरी, न्याय और अपने जीवन के संघर्षों के बारे में बच्चों द्वारा गाए जाने वाले गीतों और नृत्य से यह आभास होता है कि एक सचेत, उदार और लोकतांत्रिक समाज के कई पक्षों को बच्चे अपने जीवन में पहचानने की कोशिश कर रहे हैं।
बच्चों के अभिभावकों के साथ नियमित संवाद करते हुए उनकी समस्याओं और जरूरतों के साथ जुडऩे से आपसी विश्वास बढ़ता है। बच्चों और अभिभावकों के लिए दांतों व आखों की बीमारियों के निदान के लिए मेडिकल कालेज की मदद से कैम्प भी आयोजित किए जाते हैं।
शहरों में विशेषकर बाहरी इलाकों में बड़ी संख्या में प्रवासी, कूड़ा बीनने वाले, घूमंतू , घरों में काम करने वाली महिलाएं और अनेक तरह की फुटकर दिहाड़ी करने वाले मजदूरों के स्कूल जाने की आयु वर्ग के बड़ी संख्या में बच्चे स्कूलों से बाहर हैं। युवाओं को जोड़ते हुए अपने शहर या कस्बे में अनौपचारिक शिक्षा के इसप्रकार के कार्य शुरू किए जाने की जरूरत है।
प्रवासी मजदूरों की यह पहली पीढ़ी है, जो अनेक कारणों के चलते प्राथमिक शिक्षा से आगे नहीं बढ़ पाती थी, अब कालेज तक पहुंच रही है, यह पक्ष हमें उत्साह से भर देता है। ऐसे कई बच्चे हैं जो गांधी स्कूल से प्ररेणा पाकर आज स्कूलों में नियमित जा रहे हैं और शाम होते ही चहचहाते हुए अपने गांधी स्कूल पंहुच जाते हैं। इसमें वो छात्राएं भी शामिल हैं,जो अब तक बाल विवाह की कैद में जा चुकी होती, अब वे नाटक व गीतों के माध्यम से न्याय, बराबरी, पढऩे व बढऩे के सपने गढ़ रही हैं। पंद्रह साल पहले अधिकतर बच्चे बाल-मजदूरी की बेडिय़ों की चपेट में आ जाते थे जबकि मौजूदा समय में बहुमत बच्चे स्कूलों में पढ़ रहे हैं। बच्चों का कहना है कि हमें गांधी स्कूल की रोशनी नही मिल पाती तो हम बाल श्रम और बाल विवाह की दलदल में जी रहे होते। आठवीं कक्षा के लिए आयोजित होने वाली एन.एम.एस.एस. परीक्षा में गांधी स्कूल के दो बच्चों ने 500 रू. महीना वजीफा पाने में कामयाब हासिल की।
गांधी स्कूल के प्रति बढ़ती सामाजिक स्वीकार्यता से अनेक युवाओं, शिक्षाविदों, भलाई में यकीन रखने वाले परिवार, पेशेवर व कारोबारियों का गांधी स्कूल के प्रति अपनेपन का भाव है और अपने परिवार के सदस्यों को ऐसे प्रयासों के साथ जुडऩे की सीख देते हैं।
शहरों में विशेषकर बाहरी इलाकों में बड़ी संख्या में प्रवासी, कूड़ा बीनने वाले, घूमंतू , घरों में काम करने वाली महिलाएं और अनेक तरह की फुटकर दिहाड़ी करने वाले मजदूरों के स्कूल जाने की आयु वर्ग के बड़ी संख्या में बच्चे स्कूलों से बाहर हैं। युवाओं को जोड़ते हुए अपने शहर या कस्बे में अनौपचारिक शिक्षा के इसप्रकार के कार्य शुरू किए जाने की जरूरत है।
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