सिरसा डेरा के मामले में कोर्ट का फैसला आया है। उसके बाद हुई हिंसा व आगजनी से जानमाल के नुकसान की खबरें मीडिया ने चटखारे ले लेकर दिखाई हैं। लेकिन डेरों में लोगों की अंध आस्था के बुनियादी कारणों को समझने में मीडिया ने कोई दिलचस्पी दिखाई नहीं दी। समस्या के बुनियादी पहलुओं पर गंभीर मंथन की जरूरत को महसूस करते हुए ‘देस हरियाणा’ में इस बहस-चर्चा की शुरूआत कर रहे हैं। बुटा सिंह सिरसा व मुकेश के लेखों में महत्वपूर्ण संकेत हैं। इस बहस को आगे बढ़ाने के लिए आलेख आंमत्रित हैं।-सं.
भारतीय समाज का बंटवारा सिर्फ वर्गीय आधार पर ही नहीं बल्कि जातीय आधार पर भी है। समाज में अनेक जातियां हैं तथा अधिकतर संसाधनों पर उच्च जातियां ही काबिज हैं। देश की आजादी के 70 वर्ष बाद भी आर्थिक असमानता कम होने की बजाय बढ़ी है। छुआछूत की बेशक पहले वाली स्थिति नहीं है लेकिन जातीय उत्पीडऩ कम नहीं हुआ अब भी निम्न जातियों के साथ भेदभाव होता है । उनको सामाजिक न्याय नहीं मिला। भक्ति लहर ने जिस प्रकार से सामाजिक भेदभाव व कर्मकांडों के खिलाफ आवाज उठाई थी अंग्रेजों के आने के बाद पूरी योजना के अंतर्गत भक्ति लहर के उद्देश्यों को छोड़ दिया गया। भक्ति लहर के समय पैदा हुए सिक्ख धर्म ने भी भक्ति लहर के आदर्शों सामाजिक न्याय, समानता, श्रम की गरिमा आदि आदर्शों को त्याग दिया। ज्यादातर धार्मिक स्थानों पर भी यानी उनकी प्रबन्धक कमेटियों पर भी उच्च जातियों के लोग ही काबिज हैं। पंजाब में तो अनेक गांवों में कई-कई गुरुद्वारे हैं व कुछ तो बने ही जाति के आधार पर हैं। इन स्थितियों ने देश में अनेक डेरों को पैदा होने को स्थान दिया व सामाजिक तौर पर हाशिये पर रखे जाने वाले लोग इन डेरों के लिए भीड़ बने। उनको महसूस होता है कि डेरों में उसके साथ जातीय आधार पर भेदभाव नहीं होगा व उसको सामाजिक न्याय मिलेगा। यह समस्या सिर्फ निम्न जातियों के लोगों तक ही सीमित नहीं बल्कि उच्च जातियों के आर्थिक तौर गरीब लोगों की भी अपनी समस्याएं हैं जैसे कि नशे, बेरोजगारी, भ्रूण हत्या, पीढ़ी का अन्तराल आदि। आर्थिक, सामाजिक व मानसिक तौर पर टूट चुके लोग इन समस्याओं को समग्र रूप में देखने की बजाय टुकड़े-टुकड़ों में देखते हैं व उनको लगता है कि शायद डेरे में इन समस्याओं से मुक्ति मिल जाएगी। जबकि डेरे व बाबावाद आस्था के नाम पर व्यक्ति की चेतना को कुंद करने का ही काम करते हैं। मूलत: धर्म की भूमिका भी आम लोगों के पक्ष में होने की बजाय शोषणकारी व्यवस्था को बचाने की ही होती है। वास्तव में यह समस्याएं पूंजीवादी व्यवस्था की देन हैं व उसके रहते यह हल नहीं हो सकती।
हमारे देश में सभी लोगों तक शिक्षा की लौ नहीं पहुंची तथा आज भी बहुत सारे लोग निरक्षर हैं। ज्यादातर अनपढ़ लोग इन डेरों के पैरोकार हैं। अनपढ़ लोगों के डेरे के पैरोकार बनने का कारण तो उसकी अनपढ़ता को कह सकते हैं लेकिन बहुत सारे पढ़े लिखे व यहां तक कि दुकानदार, कर्मचारी, डाक्टर व शिक्षक भी डेरे के पैरोकार हैं तो इसका कारण क्या? इस सब की जड़ें हमारी शिक्षा व्यवस्था में है सत्ता द्वारा दी जा रही शिक्षा द्वारा बेहतर मानव बनाने की बजाय पैसे कमाने की मशीनें ही तैयार की जा रही हैं। तर्क व वैज्ञानिक विचारधारा की शिक्षा देने की बजाय अन्धविश्वास सिखाये जा रहे हैं। नैतिक मूल्यों के नाम पर पाठ्यक्रम में अन्धविश्वास व पोंगापंथी विचारों को शामिल किया जा रहा है। देश में एक जैसी शिक्षा व्यवस्था की बजाय सभी धर्मो, डेरों व बाबाओं ने अपने शिक्षण संस्थान चला रखे हैं। इन शिक्षण संस्थानों में बच्चों की सोच को व्यापक बनाने की बजाय उनका ब्रेनवाश करके उनकी सोच को संकुचित किया जा रहा है।
देश आजाद होने के बाद संविधान में देश में लोकतान्त्रिक प्रणाली को अपनाया गया। यह प्रचार किया गया कि लोग अपनी सरकार खुद चुनते हैं। आजादी के बाद से विभिन्न राजाओं ने व उनके परिवार के सदस्यों ने भी चुनाव लडऩा शुरू कर दिया। पहले राजशाही से सत्ता उनके पास थी अब वे लोकतान्त्रिक तरीकों से सत्ता में शामिल हो गये। धीरे धीरे इस बुर्जुआ लोकतंत्र ने अपना जन कल्याणकारी चोला भी उतार दिया तथा सभी पूंजीवादी राजनैतिक दलों के अंदर एक इलीट वर्ग पैदा हो गया जो बारी बारी सत्ता पर काबिज होते रहे तथा उसके पास इतनी पूंजी हो गयी कि वो चुनाव जीतने के हर प्रकार से प्रबंध करने लगे। उन्हीं तौर तरीकों में पैसा, नशा, गुंडागर्दी व आस्था के नाम पर धर्म तथा डेरावाद भी प्रमुख तौर शामिल हैं। राजनैतिक पार्टियों के नेताओं द्वारा डेरावाद तथा बाबावाद को पूरी तरह से प्रोत्साहित किया जाता है ताकि मतों की फसल के लिए उपजाऊ जमीन तैयार की जा सके। नेता लोग इनके आडम्बरों में शामिल होकर नतमस्तक होते हैं। जनता का पैसा इनको दान के नाम पर देते हैं। पंजाब के क्रांतिकारी लोक गायक जगसीर जीदा अपने एक गीत में बोलते हैं ‘संगत बेचदी वोटां ते संगतां नूं बाबे बेच गये।’ यानी की चुनाव के समय अपने भक्तों की भीड़ के कारण इन बाबाओं की महत्वाकांक्षा भी बढ़ जाती है तथा नेता लोग इनके चक्कर काटते हैं। फिर इन बाबाओं द्वारा गुप्त तौर पर (कई बार खुले तौर पर) अपने भक्तों को विशेष राजनैतिक दल को वोट देने का फतवा जारी किया जाता है। फिर सरकारों द्वारा इनको हर प्रकार की छूटें दी जाती हैं। वी.आई.पी. सुरक्षा दी जाती है तथा ये कानून को भी नहीं मानते।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि जिस पुरातन संस्कृति को हम महान संस्कृति कहते हैं इस अन्धविश्वास, बाबावाद, डेरावाद की जड़ें भी उस संस्कृति में ही हैं। हमें भारतीय दर्शनशास्त्र का भी अध्ययन करना होगा जिसमें बुद्धिवाद, तर्क व स्वतंत्र चिन्तन का विरोध किया गया है। हमारे धर्मशास्त्र-प्रणेताओं ने जिन बातों के प्रति अतिशय घृणा का भाव व्यक्त किया है उनमें ‘स्वतंत्र चिन्तन’ का प्रमुख स्थान है। उनका उद्देश्य था कि आस्था की सामान्य परिधि से बाहर चिन्तन नहीं किया जाये; अथवा उनके कथनानुसार उस चिन्तन को अमान्य घोषित कर दिया जाये, जो शस्त्र सम्मत न हो। स्वतंत्र चिन्तन व बुद्धिवाद का विरोध करने का बड़ा कारण शोषण पर आधारित समाज को कायम रखना था। उसको कायम रखने के लिए हिंसात्मक उपायों के अतिरिक्त एक और चीज की आवश्यकता होती है। सचमुच बड़े पैमाने पर अन्धविश्वास। कौटिल्य ने अपने ग्रन्थ ‘अर्थशास्त्र’ में अन्धविश्वासमूलक युक्तियों का सहारा लेने के अनेक सुझाव दिए हैं। उन्होंने ऐसे साधनों को अपनाने की सलाह दी है जिनका दोहरा उद्देश्य था। वे न केवल जनता के बीच अन्धविश्वास भी उत्पन्न करते थे बल्कि अन्धविश्वास के विरोध में यथार्थ और ठोस कदम उठाने वाले प्रचारकों का शारीरिक रूप से सफाया करने की ओर भी लक्षित थे। वे लिखते हैं ‘शंकाएं उठाने वालों को कोई विषैला पेय पिला दिया जा सकता है अथवा उनके शरीर पर विषैला जल छिड़का जा सकता है ताकि वे बेहोश हो जाएं और तब गुप्तचर प्रचार कर सकते हैं कि उन पर देवता का कोप था इसलिए उनकी ऐसी दशा हुई।’ मनु ने भी स्वतंत्र चिन्तन करने वालों का विरोध किया है। उन्होंने स्वतंत्र चिंतक के लिए ‘हैतुक’ शब्द का प्रयोग किया है।
‘ ….हैतुकान्बकबृत्तीश्चवाड्.मात्रेणापि नार्चयेत्।’ अर्थात स्वतंत्र चिंतकों और दुरंगी चाल चलने वालों से बातचीत भी नहीं करनी चाहिए।
आज भी शासन-सत्ताएं लोगों की व्यापक एकता बनने से रोकने के लिए धर्म व नैतिक मूल्यों के नाम पर अन्धविश्वास फैलाने का कार्य करती हैं। सरकारी पैसे से धार्मिक यात्राएं करवाना, धार्मिक स्थानों को सभी प्रकार के टैक्सों से छूट देना, बाबाओं को प्रोत्साहित करने जैसे कार्य करती हैं। (‘भारतीय दर्शन में क्या जीवंत है और क्या मृत’ -देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय)
सिरसा डेरे के मामले में सी.बी.आई. कोर्ट का फैसला आने के बाद प्रिंट व इलैक्ट्रानिक मीडिया प्रतिदिन सनसनीखेज समाचार पेश करके अपने आपको क्रान्तिकारी भूमिका में पेश कर रहा है। लेकिन आज से पन्द्रह वर्ष पहले सिरसा के ‘पूरा सच’ सांध्य दैनिक के पत्रकार रामचन्द्र छत्रपति की हत्या होने पर भी कुछ प्रतिबद्ध लोगों को छोड़कर ज्यादातर मीडिया में रहस्यमय चुप्पी थी। आज भी मीडिया अंधविश्वासों के विरुद्ध लड़ते हुए शहीद होने वाले तर्कशील कार्यकर्ता नरेंद्र दाभोलकर की हत्या पर चुप है। चैनलों पर राशिफल, ज्योतिष व बाबाओं के दरबारों का सीधा प्रसारण चल रहा होता है। चैनलों द्वारा बाबा के उत्पादों के विज्ञापन देशभक्ति, स्वदेशी व हर्बल आदि के नाम से दिखाए जा रहे हैं। यह नहीं भूलना चाहिए कि मीडिया पर नैगम घरानों का कब्जा है तथा मीडिया के भी वर्गीय हित हैं ।
1990 में लागू की गयी आर्थिक उदारीकरण, निजीकरण व वैश्वीकरण की नीतियों से आम जनता के जीवन की दुश्वारियां बढती चली गयी। अमीर गरीब के बीच में खाई बढती चली गयी। दूसरी तरफ इस दौर में जनता के जीवन से जुड़े इन मुद्दों पर संघर्षरत जनवादी आन्दोलन कमजोर होता चला गया। ट्रेड यूनियन आन्दोलन भी वैचारिक मुद्दों की बजाय अर्थवाद का शिकार हुआ व वैचारिक चेतना का कार्य बहुत कम हुआ। जनता के बीच प्रगतिशील सांस्कृतिक कार्यक्रमों का अभाव रहा। सांस्कृतिक शून्यता में डेरों व मठाधीशों के ‘प्रवचन-उपदेश’ थोड़े समय के लिए ही सही लोगों को मानसिक सांत्वना देते हैं।
उपरोक्त कारणों के अतिरिक्त बहुत से अन्य कारण हो सकते हैं उनको समझना होगा। जरूरत इन समस्याओं की जड़ों को समझने व इस पर चोट करने की है। जैसा कि दुष्यंत कुमार लिखते हैं :
आज यह दीवार पर्दों की तरह हिलने लगी
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए
सम्पर्क -9813416960