तीन दृश्य मेरी आंखों में ठहरे हुए हैं और इन दृश्यों में एक ही चेहरा सामने आता है। सोते-जागते मैं इन्हें देखता रहता हूँ।
उस दिन मेरी ड्यूटी नाइट-शिफ्ट में थी। अखबार के दफ्तर में क्या दिन तो क्या रात। लोगों का आना-जाना लगा ही रहता है और देर रात वह आया था। रिसेप्शन से फोन आया था कि कोई व्यक्ति किसी कांड के बारे में कुछ सनसनीखेज जानकारी देना चाहता है। क्या उसे न्यूज-रूम में भेज दें?
अब अखबार और सनसनी तो जैसे एक-दूसरे के लिए बांहें फैलाए स्वागत के लिए तैयार ही रहते हैं। उसे वरिष्ठ साथी ने फौरन अंदर बुला लिया।
बिल्कुल यहीं से मेरा पहला दृश्य शुरू होता है। पाठक कृपया ध्यान दें। वह अकेला ही आया था और एकदम बौखलाया हुआ था। वह जान नहीं पा रहा था कि बात को कहां से शुरू करे।
वह सनसनीखेज रहस्योद्घाटन करने से पहले अपनी जानकारी देते हुए अपने बचपन की गाथा सुनाने लग गया था। उखड़ी-उखड़ी सांसों में वह अंग्रेजी में बता रहा था कि उसका जन्म पालन-पोषण पहाड़ के किसी गांव में हुआ था। उसने अपने गांव का कोई भला-सा नाम भी बताया था, जो मुझे याद नहीं रहा। इस मामूली भूल के लिए पाठक मुझे क्षमा कर देगे।
अब अपने आपको नालायक कौन कहता है। उसने भी बताया कि वह पढऩे में होशियार था और अंग्रेजी तो खूब पटर-पटर बोलता था। हर क्लास में फस्र्ट डिवीजन और अध्यापकों की शाबाशी। मां ने मुश्किल से पढ़ाया। बी.ए. से आगे मां की हिम्मत जवाब दे गई थी। नौकरी की तलाश करते-करते वह इस शहर में एक क्लर्क बन कर आ गया था। इस तरह बचपन से जवानी तक की गाथा सुनाते हुए वह मां को याद करके रोया भी और अपनी कमीज के कफों से आंखें भी पौंछी। दृश्य काफी भावुक सा हो गया-जैसे निर्देशक के सुझाए गए अभिनय से पात्र आगे बढ़ जाते हैं, कुछ इसी तरह वह भावावेश में बहने लगा था।
अब आप देखिए कि अखबार के दफ्तर में इस तरह लंबी जीवन गाथा सुनने का न कोई समय है, न अवसर। हम किसी तरह धैर्यपूर्वक उसकी बात सुन रहे थे। सुविधा होती तो पीछा छुड़ा कर भाग निकलते। पर हम भाग नहीं सकते थे। हमें तो देर रात तक ड्यूटी देनी थी और एक संस्करण निकालने की जिम्मेदारी सिर पर थी।
उसकी जीवन-गाथा की पुस्तक बंद करने के उद्देश्य से वरिष्ठ साथी ने उसे कहा कि इतना समय हमारे पास नहीं है। पैड उठाओ और अपनी स्टेटमेंट लिखकर चलते बनो। छपने लायक कुछ होगा तो सुबह छप जाएगा, नहीं तो हमारे पास रद्दी की टोकरी रहती है जो हर समय मुंह खोले रहती है कि मुझे कुछ खाने के लिए दो। इस तरह अखबार का नहीं, रद्दी की टोकरी का पेट भर जाएगा।
कुछ देर तक वह पैड और पैन लेकर कुछ लिखने की कोशिश करता रहा परंतु वह तो आत्मकथा सुनाने आया था, लिखने नहीं, वह फिर पैड को एक तरफ धकेल कर शुरू हो गया-आप मेरी बात क्यों नहीं सुनते? मैं आपको एक स्कैंडल की जानकारी देना चाहता हूं और आप हैं कि…
-पर आप स्कैंडल की बजाय अपनी रामकहानी सुना रहे हैं।
-यह रामकहानी उसी से जुड़ी हुई है।
-बेशक जुड़ी होगी पर हमें अतीत के हिस्से से कोई मतलब नहीं। हमें तो स्कैंडल की बात बताइए और काम करने दीजिए।
-पर आप यह क्यों नहीं सोचते कि एक गरीब विधवा मां के पास पैसे होते तो पहाड़ के एक छोटे से गांव का एक होशियार युवक बी.ए. करके इंजीनियर, डॉक्टर या वकील बनता और गांव का नाम रोशन करता। खेद की बात है कि आज वह युवक क्लर्क है और करप्शन के एक स्कैंडल में फंसा होने के कारण किसी भी दिन नौकरी से निकाला जा सकता है। उफ्! मेरी मां मुझे क्या बनाना चाहती थी और मैं क्या बन गया।
इस तरह वह फफक-फफक कर रोने लगा। न्यूज रूम संवेदनहीन होता है। वहां आंसुओं का कोई महत्व नहीं। न्यूज रूम सिर्फ काम की बात सुनता है, बेकार की बातों पर किसी बहरे की तरह सिर्फ आंखें झपकाता रहता है।
इस तरह वह रोने के बाद खुद ही चुप हो गया। सुबकते हुए बताने लगा कि शहर में बड़ा लाइसेंस बनाने का कांड हुआ है, उसी में वह भी शामिल है और चार्जशीट किया जा चुका है। एक गिरोह वाहनों के लाइसेंस बनवाने के आरोप में काबू किया गया था। ऐसा समाचार आया भी था पर उससे जुड़े किसी बौखलाए हुए चेहरे का सामना इस तरह आधी रात को करना पड़ेगा, वह नहीं जानता था।
अब चोर कब कहता है कि चोरी उसने की है और वह भी अपनी सफाई पेश किए जा रहा था। वह अपने ऊपर लगाए आरोपों का खंडन करते कहे जा रहा था कि लाखों रुपये के स्कैंडल में क्या उस जैसा एक क्लर्क कोई भूमिका निभा सकता है। इसमें मामूली क्लर्क का क्या योगदान हो सकता है। बड़े-बड़े मगरमच्छों को कोई कुछ नहीं कहता, उस जैसी छोटी-छोटी मछलियों को काबू करके भ्रष्टाचार हटाने का अभियान चलाया जा रहा है। उसकी छोटी सी गृहस्थी, छोटा-सा स्वर्ग घर नरक में बदल गया है। वह घर न जाकर अखबरों के दफ्तर में घूम रहा है क्योंकि पुलिस उसके पीछे पड़ी है। उस जैसे क्लर्कों का जीवन बर्बाद हो रहा है।
वरिष्ठ साथी ने व्यंग्य किया-माना आप छोटी मछली ही हैं, पर जब तक आप कांटे से लगा चारा नहीं खाते, तब तक नहीं फंसते।
वह मायूस होकर बोला-काजल की कोठरी में कब तक कोई दाग से बच सकता है।
-फिर आपको मगरमच्छों के खिलाफ शिकायत क्यों? उनकी पाचन शक्ति से कौन वाकिफ नहीं। उसे पानी से निकालो, वह रेत पर मस्त लोटने लगता है जबकि पानी के बिना छोटी मछली का गुजारा नहीं, फिर उसी पानी को गंदला क्यों करते हैं? मगरमच्छ के खिलाफ लड़ाई क्यों नहीं छेड़ते?
– पर आप उनके स्कैंडल में शामिल होने की बात क्यों नहीं लिखते?
-देखिए, मिस्टर ए.बी.सी.। अखबार भाषणबाजी को कोई मान्यता नहीं देता है। आपके पास क्या प्रमाण है कि वे लोग स्कैंडल में शामिल थे?
उसके पास अपनी बात के प्रमाण में कुछ भी नहीं था-सिवाय गुस्से के, बौखलाहट, नौकरी छूट जाने के डर और समाज में बदनाम होने के डर के।
पता नहीं कब उसे नौकरी से अलग कर दिया जाएगा… पता नहीं कब पुलिस उसे गिरफ्तार कर लेगी। खैर। जैसे-तैसे उसे चाय की प्याली पिलाकर विदा किया।
पर पाठकगण। यह दृश्य आधा ही था। आधा दृश्य इससे भी भयानक था।
कुछ समय बाद रिसेप्शन से फोन आया कि वह युवक रिसेप्शन पर ही डेरा डाले बैठा है और कि अपने घर नहीं जा रहा। यदि आपने उसे यहां से हटने के लिए नहीं कहा तो हम उसे पुलिस के हवाले कर देंगे। वरिष्ठ साथी हंसे-अरे भाई लोगो। पुलिस से बचने के लिए तो वह वहां बैठा है और आप लोग… खैर। उसे समझाते हैं।
वह हमारा कोई नहीं लगता था पर घर जाने या कहीं और बैठने को कह देने में कोई हर्ज नहीं था।
गेट पर जाकर देखा कि उसके पास एक थैला है जिसमें वह क्या-क्या भरे हुए है, कोई नहीं जानता। जैसे वह इस समाज से भाग निकलने की तैयारी किए हुए था। सुबकते हुए वह कहने लगा-मैं कहता न था कि मैं कुछ और बनता पर मैं एक कठपुतली बनकर रह गया और अब कठपुतली की जान सांसत में है।
इसी बीच पुलिस की जिप्सी गेट पर आकर रुकी। पुलिस के जवान उतरे और उसे पहचान कर जिप्सी में खींच लिया। गेंद की तरह उछल कर वह जिप्सी में जा गिरा। उसके थैले का सामान फर्श पर उलट दिया गया।
वह जोर-जोर से रोने लगा-मेरी कोई नहीं सुनता। कौन कितना कमीशन लेता था, कोई नहीं मानता। अफसर घरों में सोए हैं लंबी तान के और पुलिस मेरे पीछे पड़ी है। लीजिए तलाशी।
थैले के कपड़ों में उसने भाग कर एक कपड़ा उठाकर सीने से लगा लिया। यह सूट मैं मां के लिए लाया था पर वह मेरा इंतजार न कर सकी। मेरी नौकरी पर आंच देखकर दम तोड़ गई। पुलिस कहां सुनती है ऐसे किस्से। जिप्सी स्टार्ट हुई और उसे लेकर अंधेरे में खो गई। जाहिर है वह रात उसकी पुलिस स्टेशन में कटी होगी।
पाठकगण। इसके बाद के दो दृश्य बहुत छोटे हैं, मानो उस दृश्य के पूरक हों।
मैं उस आदमी, उस रात और उस बात को एकदम भूल गया था-बिल्कुल रात गई, बात गई की कहावत की तरह। इस बीच एक दिन एस्टेट ऑफिस किसी कवरेज के सिलसिले में गया तो देखता क्या हूं कि चार पुलिस जवानों से घिरा, हथकडिय़ों में बंधा एक युवक कचहरी की ओर ले जाया जा रहा है। कुछ जाना-पहचाना चेहरा लगा और इस दृश्य के साथ अखबार के दफ्तर में आधी रात को देखा हुआ चेहरा जुड़ गया।
न वह युवक मुझसे आंखें मिला पाया, न मैं। दोनों ने एक-दूसरे को देखकर भी अनदेखा कर करते हुए चेहरे दूसरी तरफ कर लिए। पर इससे क्या होता है। मैंने उसे देख लिया था, उसने मुझे। मैं अनुमान लगा रहा था कि आखिर मछली कानून के जाल में फंस ही गई। मछेरे उसे निगलने के लिए कचहरी की ओर घसीट रहे हैं।
मुझे उसके प्रति सहानुभूति उमड़ आई। पर सहानुभूति प्रकट करने का यह कोई उचित स्थान नहीं था। अखबार से भी ज्यादा संवेदनहीनता पुलिस की वर्दी में छिपी होती है। छिपी होनी भी गलत है। चेहरे से ही टपकती है संवेदनहीनता। इस तरह बिना दुआ-सलाम या परिचित होने का आभास दिए मैं आगे निकल तो गया पर दृश्य मुझे याद रहा… मेरी आंखों में उतर आया।
प्रिय पाठक। तीसरा दृश्य बम्बइया फिल्मों की तरह सुखांत है।
रोज गार्डन में गुलाब का मेला लगा था। उस मेले में खुबसूरत चेहरों और जोड़ों की भीड़ लगी थी।
इसी भीड़ में एक जोड़े को देखकर मैं हैरान हो उठा। वही… बिल्कुल वही चेहरा था… खिलखिलाता हुआ, जिसे कुछ दिन पहले पुलिस के जवानों से घिरे हथकड़ी में बंधे युवक के रूप में देखा था। उसकी पत्नी भी खुश थी और वह उसके बालों में फूल लगा रहा था जिसे वह सार्वजनिक रूप से लगवाने से झिझक रही थी। इसी चुहलबाजी में मेरा ध्यान उस ओर गया था। यह चेहरा? एक-साथ तीन-तीन बार देखा चेहरा मैं कैसे भूल सकता था।
इस बार उसने चेहरा छिपाने की कोशिश नहीं की। मेरे पास आया और कहने लगा-यह चेहरा कैसे खिलखिला रहा है, यही सोच रहे हैं, न जनाब। मेरे हाथों में गुलाब कैसे है, यही देखकर हैरान हैं न, आप। यहां सब चलता है। इसलिए एक गरीब मां का बेटा ही इस समाज में मातम क्यों मनाता फिरे? क्यों न दूसरों की तरह हंसे-खेले, जिये।
-और मां की याद?
-ईमानदारी की तरह मां भी मर गई, जनाब। अब तो बेईमानी सामने है, उसे गुलाब भेंट करने जा रहा हूं, इतना कहते-कहते वह आगे बढ़ गया।
मैं भौंचक्का इन तीन दृश्यों को सोते-जागते, उठते-बैठते देखा करता हूं और भीड़ में अब उस चेहरे को अलग करके देखना भी कठिन हो गया है।
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