सपना
हमारे समाज में जहां एक ओर स्त्री और पुरुष के अस्तित्व को सहज रूप से स्वीकारा जाता है। वहीं दूसरी ओर ‘तीसरा-लिंग’ जो न तो स्त्री है और न ही पुरुष अर्थात् अलिंगी होते हैं, उन्हें लोगों द्वारा ऐसा देखा जाता है, जैसे वे दूसरी दुनिया से आए एलियन हो। उन्हें लोगों द्वारा हिजड़ा, किन्नर, खुसरा, छक्का आदि नामों से संबोधित किया जाता है। समाज में शारीरिक रूप से अंपग व्यक्ति के अस्तित्व को तो लोग स्वीकार करते हैं उसके प्रति सहानुभूति भी दिखाते और हैं। यह भी तो हमारे ही तरह मनुष्य हैं तो समाज के लोगों द्वारा ऐसा दुव्र्यवहार क्यों? क्यों ये लोग शादी, बच्चे के पैदा होने पर, बसों ट्रेनों, सड़कों इत्यादि जगहों पर पैसे मागने को मजबूर हैं?
लोगों में इनके अस्तित्व को लेकर वास्तविकता कम और अफवाहें अधिक प्रचलित हैं। इनके बारे में कहा जाता है कि अगर ये किसी को दुआ दे तो वह अवश्य ही पूरी हो जाती है इसके विपरीत बद्दुआ दे तो उस परिवार का विनाश ही विनाश हो जाता है। लोग इनकी दुआएं तो चाहते हैं पर उनके अस्तित्व को स्वीकार करने की हिम्मत उनमें नहीं हैं।
भारतीय इतिहास में पौराणिक काल से लेकर महाभारत, मुस्लिम शासन काल में भी किन्नरों का उल्लेख मिलता है। किन्नरों को स्त्री या पुरुष से अलग ‘तीसरे लिंग’ की पहचान देकर सुप्रीम कोर्ट ने इन लोगों को एक नई उम्मीद दी है। 15 अप्रैल 2014 में उच्चतम न्यायालय द्वारा इन्हें ‘थर्डजेंडर’ के रूप में कानूनी मान्यता दी गई। अब यह लोग अपने आप को स्त्री या पुरुष कहने को विवश नहीं हैं। इससे पहले इन्हें इस विवशता से गुजरना पड़ता था। सवा सौ करोड़ की जनसंख्या वाले भारत देश में इनकी जनसंख्या लाखों में ही है। सामाजिक व आर्थिक तौर पर ये असुरक्षित और निस्सहाय होते हैं। इनके अपने भी इन्हें अपनाने से कतराते हैं और इन्हें दर-दर की ठोकरे खाने के लिए छोड़ दिया जाता है। इनमें से कुछ तो समृद्ध घरों से होते हैं फिर भी इन्हें नारकीय जीवन व्यतीत करने को मजबूर होना पड़ता है। समाज के साथ सरकारें हैं इनको मौलिक आवश्यकताएं तथा अधिकार तक प्रदान नहीं कर पाते हैं।
बदलते समय के साथ किन्नर समाज के प्रति अब देश और समाज का नज़रिया इनको लेकर बदल रहा है। भारत सरकार की पहल पर किन्नर समुदाय को मुख्यधारा में लाने के लिए मतदान का अधिकार देने के बाद शिक्षित करने के लिए भी प्रयास शुरू हो गए हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय और जामिया मिलिया विश्वविद्यालय में वर्ष 2015 से आवेदन पत्रों में ‘थर्डजेंडर’ की कैटेगरी को जगह मिली थी।
इस साल दिल्ली विश्वविद्यालय में कुल 83 ने थर्डजेंडर आवेदन किया। इसी साल जून महीने में इग्नू ने सभी पाठ्यक्रमों में फीस की पूरी छूट की घोषणा की थी। किन्नर समुदाय पूरे देश में कहीं भी इग्नू की किसी भी शाखा में प्रवेश ले सकते हैं। इस तरह न केवल किन्नर अब शिक्षित होंगे बल्कि उनके प्रति समाज का नजरिया भी बदलेगा। शिक्षा के द्वारा किन्नर समुदाय के बच्चें भी मुख्यधारा से जुड़कर सामान्य जीवन यापन कर पायेंगे। इनका मानसिक एवम् शैक्षणिक स्तर सुधरेगा और यह भी समाज में सर उठा कर जी पाएंगे। इग्नू ने इनके लिए बहुत अच्छा कदम उठाया है क्योंकि जैसा हम सब जानते हैं कि ‘थर्डजेंडर’ आर्थिक रूप से कमजोर होते हैं। इनके लिए रोज कक्षा में जाना मुश्किल होता है क्योंकि उनके लिए रहने की सबसे बड़ी समस्या रहती है। इग्नू के इस कदम से अब हजारों ‘थर्डजेंडर’ बिना किसी खर्च के अपने घर में रहकर आगे की पढ़ाई कर सकेंगे। इग्नू के बाद अब जामिया मिलिया इस्लामिया ने भी पहल करते हुए ‘थर्डजेंडर’ को मुफ्त शिक्षा देने की घोषणा कर दी है। इसके लिए 31 जुलाई 2017 से आवेदन शुरू हो गए हैं और अंतिम तारीख 16 अक्टूबर रखी गई है। निश्चित तौर पर यह फैसला ‘थर्डजेंडर’ छात्रों को उच्च शिक्षा के प्रति प्रेरित करने के लिए ही लिया गया है।
किन्नर समाज आज अपनी समस्याओं को लेकर चिंतित भी और प्रयासरत भी। इसका जीता-जागता उदाहरण पंजाब विश्वविद्यालय में देखने को मिलता है। यहां ‘थर्डजेंडर’ धनंजय ने अपने लम्बे समय से प्रयास के कारण ही आज कुछ ‘थर्डजेंडर’ छात्रों को विभिन्न कोर्सो में प्रवेश दिलाया हैं। यह आर्थिक रूप से कमजोर होने के कारण ख़ुद शिक्षा के खर्चे को नहीं उठा पाते और उन्हें सरकारी या गैर-सरकारी एजेंसियों के आगे हाथ फैलाने पड़ते हैं।
‘थर्डजेंडर’ को लेकर हिन्दी साहित्य में अभी तक कम ही लेखन हुआ है। फिर भी इनको लेकर जितना साहित्य रचा गया हैं, उसने हमारे सोचने के दृष्टिकोण को ही बदल कर रख दिया है। हिन्दी साहित्य में महेंद्र भीष्म द्वारा लिखित ‘किन्नर कथा’, नीरजा माधव का ‘यमदीप’, निर्मला भुराडिय़ा का ‘गुलाम मंडी’ और चित्रा मुदगल का ‘पोस्ट बॉक्स नं. 203 नाला सोपारा’ आदि उपन्यास किन्नर समाज के यथार्थ को चित्रित करते है। अब तक जिस विषय को शर्म का विषय समझा जाता रहा है, उस पर लेखनी चलाना सचमुच अपने आप में साहस की बात हैं।
‘किन्नर कथा’ उपन्यास के माध्यम से लेखक ने किन्नरों के जीवन की पीड़ा का यथार्थ चित्रण किया है। किन्नर अपने ही परिवार और समाज के कारण हमेशा से दु:ख झेलता रहा है। इस उपन्यास में राजघराने में चंदा का जन्म होता है। पिता को जब उसके ‘किन्नर’ होने का पता चलता है तो वह ही अपनी बेटी को जान से मारने का प्रयास करता है क्योंकि वह नहीं चाहता कि बेटी के कारण वंश पर कोई कलंक न रहे।
‘यमदीप’ उपन्यास में किन्नरों को समाज की मुख्यधारा से जोड़कर बुनियादी हक देने का पूरा प्रयास किया गया हैं। यदि ऐसे बच्चे को माता-पिता स्वीकार भी करते हैं तो हमारा समाज उसे स्वीकार नहीं करने देता। नंदरानी के माता-पिता उसे अपने पास रखना चाहते हैं और पढ़ा-लिखाकर अपने पैरों पर खड़ा करना चाहते है, पर हमारा समाज करने दे तब तो करे न? उसे इनकी समस्याओं से क्या लेना है? यह तो बस परम्पराओं के नाम पर शोषण करना जानती हैं।
‘गुलाम मंडी’ उपन्यास में निर्मला भुराडिय़ा ने तिरस्कार की दृष्टि से देखे जाने वाले किन्नरों की समस्या और मानव तस्करी का भयावह चेहरा पाठकों के सामने रखा है। किन्नरों की पीड़ा की कुशल अभिव्यक्ति इनके उपन्यास में देखने को मिलता है। इस उपन्यास में सच को बड़ी ही बारीकी से सामने लाने का प्रयास किया गया है। जिसे आज तक बार-बार दबाने की कोशिश हमारे समाज द्वारा किया गया है।
चित्रा मुदगल द्वारा लिखत उपन्यास ‘पोस्ट बॉक्स नं.203 नाला सोपारा’ अभी हाल में ही प्रकाशित हुआ है। इस उपन्यास में किन्नरों की पीड़ा, दु:ख-दर्द और त्रासद जीवन का यथार्थ चित्रण किया गया है। इस उपन्यास में विनोद उफऱ् बिन्नी को किन्नर होने का वीभत्स पीड़ा झेलते हुए दिखाया गया है। जब हिजड़ा समुदाय को उसके किन्नर होने का पता चलता है तो वो उसे लेने आ जाते हैं, तब उन्हें उसके छोटे भाई को दिखाकर बचाया जाता है। लेकिन बाद में उसकी पहचान तक मिटा दिया जाता है।
इन चारों उपन्यासों में दिखाया गया है कि एक किन्नर होने का दर्द क्या होता है। इन्हें समाज में किस तिरस्कृत दृष्टि से देखा जाता है। लोग इन्हें अपने आस-पास तक देखना तक नहीं चाहते। ऐसे में इनका विकास कैसे हो सकता है, फिर चाहे सरकार द्वारा इनके लिए नए-नए योजनाएं ही क्यों न बनाए जा रहे हो, जब तक इनको लेकर समाज का नजरिया नहीं बदलेगा तब तक इनका विकास पूरी तरह से नहीं हो पाएगा। आज भी क्यों यह समाज अपने सम्मान और अधिकारों की मांग के लिए झोली फैलाए खड़ा हैं, इसलिए आज हमें अपने नजरिये को बदलने की जरूरत है।
सम्पर्क- शोधार्थी, हिंदी-विभाग, पंजाब विश्वविद्यालय, चण्डीगढ़, मो. 2683867