मुलाकात डरी हुई लड़की’ से… नवरत्न पांडे

नवरत्न पांडे

इस उपन्यास की कुछ सतरें

सर, उस आत्मा को किस डिटर्जेंट पाउडर से धोऊं जो मैली हो चुकी है-डरी हुई लड़की ने कहा है। उसकी समूची देह प्रश्नवाचक हो गयी हो जैसे।
 ऐसे शरीर को, जो मुझे प्रतिद्वंद्वी नज़र आता है, उसे अपने साथ रखना कितना कठिन है।
 मैं एक खस्ताहाल चुप लेकर बैठा हूं, डाक्टर के सामने। क्या बताऊं कि मेरा उद्देश्य क्या है? क्या बताऊं कि मैं क्यों लिये फिर रहा हूं इस लड़की को।
 रेप एक तरह का इनह्यूमन एक्शन है। जिसमें हिंसा ही हिंसा होती है। यह एक ऐसा हादसा होता है, जिसकी गवाह वह औरत होती है, जिसके  साथ यह घिनौना और अमानीय काम किया जाता है-डाक्टर ने कहा है।
 यौन हिंसा से गुज़री कोई भी लड़की नहीं चाहती कि उसकी आत्मा के ज़ख़्मों पर, सवालों की जिद्दी मक्खियां भिनकती रहें।
 दुष्कर्म पीडि़त युवती लोगों के लिए किसी पर्यटन स्थल की तरह होती है, जिसे वो देखकर खुश होते हैं।
 हर स्त्री के अंदर एक छावनी होती है।
 अगर गैजेट्स से डर दूर हो जाता तो संसार की कोई स्त्री डरी हुई नज़र न आती।
 हम रिलेशन्स नहीं निभाते, डिस्टेंस निभाते हैं।
 स्त्री किसी गुंडे की बात नहीं मानती तो उसके सामने तेज़ाब होता है।
 ईश्वर का कोई चेहरा नहीं होता। लेकिन वो जहां होता है, संवेदना का चेहरा लगाकर ही अवतरित होता है।

भारतीय ज्ञानपीठ का लोकोदय ग्रंथमाला के तहत ज्ञान प्रकाश विवेक द्वारा लिखित एक उपन्यास आया है ‘डरी हुई लड़की’। उपन्यास ठीक ऐसे समय पर आया है जब अखबारी और मीडिया जगत की सुर्खियां पढ कर संज्ञान में आई घटनाओं के मद्देनजर…. लगता है कि यह उपन्यास जरूरी था और एक संवेदनशील पाठक की हैसियत से नेट -शेल में कहूं तो अगर आप बहुत दिन से एकांत में रोये नहीं है अथवा जिंदगी की जद्दोजहद में अपने रोने को मिस कर रहे हैं तो ‘डरी हुई लड़की’ पढिये। यह भाषाई कौशल का एक शानदार दस्तावेज है।

…..वह लाचार है बेबस है …उसकी अस्मिता खंडित हुई है …उसके भीतर छटपटाहट है …वह टूटे पंखों की चिडिय़ा सी है …जिसे पता है कि भ्रष्ट व्यवस्था के पहाड़ से टकराकर वह अपने प्राण तो दे सकती है …लेकिन बिगाड़ कुछ भी नहीं सकती। …तो फिर लेखक का आशय क्या यही है कि हार जाओ और चुप्पी का कंबल ओढ़ कर कहीं निर्जन एकांत का वरण करो और जिल्लत भरी जिंदगी को ढोओ…।’ नहीं ….!! ऐसा नहीं है.. डरी हुई लड़की के भीतर सुलगता छटपटाहट का लावा उसके भीतर की बेबसी … पाठक को झिंझोडऩे में कामयाब हुई है.. जिसे पढ़कर उसके मुंह का स्वाद कसैला हो जाता है और वह उपन्यास बीच में ही बंद करके बाहर खिड़की आसमान पर थूक देता है। पाठक का यह थूकना ही उपन्यासकार की जीत है। जैसे पाठक स्वयं पर अथवा पूरी भ्रष्ट व्यवस्था पर या कि कामुक और लंपट पुरुष समाज पर ही जैसे थूकता है।

उपन्यास की जिल्द हटाते ही उसकी कुछ सतरें… नाम से एक स्वतंत्र पृष्ठ सबसे पहले आकर्षित करता है । मसलन…

हर स्त्री के भीतर एक छावनी होती है।

…अथवा …यौन हिंसा से गुजरी हुई कोई भी लड़की नहीं चाहती कि उसकी आत्मा के जख्मों पर सवालों की जिद्दी मक्खियां भिनकती फिरें …। पढ़कर पाठक की रीढ़ तन जाती है और वह कौतूहलवश उपन्यास के दरवाजे से प्रवेश कर जाता है ..लेकिन एक बार कथ्य जब आप को पकड़ता है तो ऐसा …. कि आप चाहकर भी वापस नहीं आ सकते। यही डरी हुई लड़की और राजन के बीच के रसायन का कमाल है ।

ज्ञान प्रकाश विवेक की भाषा एक अजीब सी खामोशी में लिपटी हुई भाषा है। ठीक गज़़ल की भाषा … पढ़ते-पढ़ते कई बार ऐसा लगता है कि इसकी तनुता, इसकी डेलीकेसी .. कहीं ख़म ना हो जाए .. इसमें बेमतलब का तीखा प्रतिकार भी नहीं है। इसमें एक विवशता है जो बाकायदा पाठक को समाधान निकालने का मौका देती है कि … बताओ …अगर ऐसा आपके साथ हो जाए तो आप क्या करेंगे ? और यही एक ख़ालिश अदीब की जदीदियत है। उसकी मैच्योरिटी है। ..और ऐसा शायद संभव हुआ है ज्ञान प्रकाश विवेक लंबे समय से एकांत में रहते हैं और उनका वह एकांत उनकी भाषा में भी उतर आया है। उपन्यास में कथानक लगभग ना के बराबर है और कथानक यहां होता तो व्यर्थ ही लगता है। कथानक होता तो पात्र भी होते और पात्रों की भीड़ कहन के तीखेपन को भोथरा कर देती। नहीं! .. यहां न तो बेकार की पात्रों की रेलमपेल है और न ही कथानक के नाम पर व्यर्थ की गपौड़बाजी। यहां तो विशुद्ध जेहनी कशमकश है। एक निकोर वस्तुस्थिति और वस्तुस्थिति भाषा की महीन कशीदाकारी से मिलकर एक अलग ही एंगल से फोकस होता है।

उपन्यास का मैं पात्र ..यानी राजन और डरी हुई लड़की यानी नंदिनी ..ये प्रमुख पात्र हैं और गौण पात्रों के नाम पर… राजन का दोस्त जतिन और डॉक्टर फरीदा। गौण पात्र …यानी जतिन और फरीदा तो बमुश्किल दो एक बार उपस्थित होते हैं। मुख्य बातचीत तो राजन और नंदिनी के बीच ही है। बातचीत भी नहीं बल्कि दोनों प्रमुख पात्र अपने-अपने स्पेस में एक वस्तुस्थिति को जीते हैं ।

उपन्यास में कथ्य के नाम पर तो महज़ इतना कि  …अंधे विकास का ताजा उदाहरण गुडग़ांव में लाल बत्ती के पास राजन को खाली जगह में, कूड़े कचरे के उस पार एक लड़की मिलती है …जिसके साथ दुष्कर्म हुआ है …और आनन-फानन में राजन उसे घर ले आता है ।

असल में पात्रों की जरूरत उपन्यासकार को तब पड़ती है जब वह कथानक को आगे बढ़ाना चाहता हो। यहां ऐसी कोई दरकार नहीं है। बल्कि कई बार तो ऐसा लगता भी है कि कथानक घूम फिर कर फ्लैट के उसी कमरे में लौट आए जहां नंदिनी अपनी नियति और कशमकश के साथ मौजूद है। लेकिन भले ही कथानक नहीं है मगर कथा तनाव मौजूद है। उपन्यास पढ़ते हुए पाठक की भावदशा कई बार ऐसी होती है कि वह उपन्यास को बंद कर देता है। क्योंकि प्रमुख पात्र दोनों तनावग्रस्त हैं और यह कथ्य की अपनी विशेषता है कि पाठक झट से पुन शुरू करता है। क्योंकि उसे भरोसा है कि नंदिनी इस वस्तुस्थिति से शायद बाहर आएगी और उसे बाहर आना ही चाहिए। भाषा के माध्यम से उपन्यासकार ने एक ओर जादू किया है कि जब उसे लगता है कि नंदिनी और राजन का वार्तालाप कुछ ज्यादा ही विक्षोभ और गुब्बार से भर गया है तो वह वर्तमान महानगरीय जीवन पद्धति,मीडिया, युवा और फैशन पब, जीवन की एबसर्डिर्टी का मखौल उड़ाता है।

भाषा का यह करिश्माई खेल कुछ उदाहरणों के रूप में यहां रखा जा सकता है। ‘मसलन पूरे अपार्टमेंट में बेशुमार लोग रहते हैं। कोई किसी का अंतरंग नहीं। कभी-कभार हेलो जैसा मरगिल्ला सा शब्द उछलता है। अजनबीयत में लिथड़ा हुआ। बस और कुछ भी नहीं। कोई किसी को गौर से नहीं देखता। सब कनखियों से देखते हैं। हम एक दूसरे से बेतकल्लुफ़ नहीं हो पाए। इसलिए न किसी से याराना न फक्कड़पन। ऐसे संबंध। बर्फ की सिल्लियों जैसे …जो अक्सर फॉर्मेलिटी और तकल्लुफ के कोल्डस्टोरेज में पड़े-पड़े दम तोड़ देते हैं। यहां लोग किसी की प्राइवेसी में दखल नहीं देते। लेकिन संशय के की होल सबके पास हैं। लेखक के पास भाषा तो है ही साथ ही उसके पास एक दृष्टि भी है। जिसके सहारे वह लड़की के उठने बैठने व देखने के अंदाज से उसके भीतर चल रहे तूफान को व्यक्त करता है। जैसे ..’वह सोफे पर बैठी है। सोफे से अपनी पीठ टिकाकर नहीं। थोड़ा आगे होकर। जैसे कि उसे उठकर अभी चल देना हो। उसे कहीं नहीं जाना। लेकिन वह यहां रहना भी नहीं चाहती। रहने और न रहने के बीच की अवस्था किसी कील पर टंगे कैलेंडर जैसी है। फडफ़ड़ाता हुआ कैलेंडर।’

इसी तरह की स्थितियां निश्चित तौर पर एक अवसाद में लिथड़ा हुआ विक्षोभ पैदा करती हैं। लेकिन लेखक को इससे बाहर निकलना भी बखूबी आता है। वह तुरंत पाठक को थोड़ा खुली हवा में सांस दिलवाता है।

मसलन ऑफिस में भी इसी तरह मुस्कुराते रहते हैं । अच्छा लगता है। हम एक दूसरे की गलतियों पर मुस्कुराते हैं। हमारी गलती पकड़ी जाए तब भी हम मुस्कुराते हैं। दूसरों की गलती पकड़ी जाए तब भी मुस्कुराना।

मुस्कुराना बेहद लाजमी होता है। हम बेशक महान नहीं हो रहे होते। ऑफिसर अपने केबिन में प्रवेश करता है डोर क्लोजर धीरे धीरे दरवाजा बंद कर देता है। तो दुनिया ..एक दुनिया डोर क्लोजर के इस पार …दूसरी उस पार… हमने अपनी अपनी मुस्काने …डोरक्लोजरों के विलोम में पैदा की हैं। हम सब जानते हैं कि हमारी मुस्कानों के पेपर वेट के नीचे बिजनेस टाइकून के पेपर फडफ़ड़ा रहे होते हैं।’

लेखक आज की जिंदगी और युवा की व्यस्तता और उसकी हंसी के पीछे की तकलीफ और झूठी लाइफ स्टाइल पर भी तंज करना नहीं भूलता। जब अपने ऑफिस की एक क्लीग के साथ अपनी शाम को सेलिब्रेट करता है ।

तो यहां उनके गिलासों में वोदका है, कैरीवेली सैक्सोफोन का म्यूजिक भी है और उनके होठों पर मुस्कान भी है लेकिन दिमाग में भय भी है। क्योंकि वे इस माहौल में भी अपने दफ्तर के हंसमुख नौजवान मनीष की आत्महत्या को डिस्कस करते हैं। यह दोहरी जिंदगी की एक मिसाल है। हम सब के सब भौंचक्के रह गए मनीष और आत्महत्या… जो लाइफ को स्ट्रगल कहता था और हमेशा स्ट्रगल करता रहता था। जो पीता और लतीफे सुनाना शुरू करता , जिसके लतीफे सुनकर लड़कियां शरमा जाती थी। दर हकीकत मनीष की आत्महत्या …एक ऐसे लाइफस्टाइल की आत्महत्या थी जिसमें हम सब थे ।

लेकिन फिर लेखक उसी स्थिति में गुम नहीं हो जाता। उसे अपना लक्ष्य याद है। वह अपना अस्तित्व खोकर टूटने की हद तक छटपटाती डरी हुई लड़की के पास पुन: लौटता है और पाठक को फिर उसी माहौल में ले आता है। उपन्यास का नायक एक गैर शादीशुदा, नौकरीपेशा युवक है और अपने खामोश सपनों के साथ अपने फ्लैट में अकेला रहता है। खामोशी उसका बाना है। लेकिन उसने अपने जमीर को जिंदा रखा है। यहां तक कि उसे अपनी खामोशी भी अखरती है। उसे खामोशियों के फर्क भी मालूम हैं। फ्लैट के अंदर दो शख्स और दोनों चुप। घर में मैं अकेला होता तो मुझे मेरी चुप न अखरती। मेरी चुप मेरे पैरों में,पैरों की हवाई चप्पलों में या जूतों के तसमों में छुपी रहती है। कई बार तो चुप किसी किताब के भीतर किसी गुमशुदा किस्सागो जैसी… तो कई बार वह चुप लोकल बस की पुरानी टिकट जैसी फर्श पर रेंगती सी। अकेले आदमी के साथ साथ कोई नहीं चल रहा होता उसकी चुप चल रही होती है। वह चुप वीरानी में लिथड़ी हुई होती है। और इस फ्लैेट की चुप अजनबीयत के तारकोल में ….अकेले घर में रहने वाले इंसान की चुप दिलकश होती हैै …दिल फरेब होती है … और दिल शिकन भी …खिड़की के सलाखों पर बैठा चांद किसी डाकघर के डाकीये जैसा लगता है। कमबख्त उसके सारे अंतर्देशीय खामोश प्रार्थनाओं का अनुवाद ही तो होते हैं ।

पूरे उपन्यास में भाषाई कौशल अपनी गज़़लियत की खुशबू लिए बिखरा पड़ा है। कई दफा पाठक को लगता है कि वह उपन्यास नहीं कोई लंबी नज्म़ पढ़ रहा है। लेखक कहीं-कहीं इतना विनम्र हो गया है कि उसकी विनम्रता के बरक्स पाठक स्वयं को असहाय पाता है। परिणामत: उसे नंदिनी की समस्या अपनी समस्या लगती है। लेखक के खुले मन से अपनी अनभिज्ञता को स्वीकार करता है। मसलन ….’वह यह भी मान लेता है कि ऐसी स्थिति में लड़की को इस मानसिक आघात से कैसे उबारना है उसे नहीं पता। लेकिन इस नहीं पता के पीछे उसकी बहुत बारीक मंशा भी है कि वह पाठक को यह बताने में कामयाब होता है कि इस तरह के मानसिक आघात की स्थिति में लड़की आपके किसी भी संवाद को अथवा किसी भी बातचीत को कैसे लेगी और कैसे रिएक्ट करेगी?

कुछ तय नहीं होता। क्योंकि उसका विश्वास दुनिया से और पुरुष प्रजाति से उठ चुका होता है। दुष्कर्म पीडि़त लड़की की साइकी को समझना और फिर उसको कथावस्तु बनाकर उपन्यास में प्रस्तुत करना कोई आसान काम नहीं। क्योंकि लेखक सिर्फ लेखक ही होता है। कोई मनोवैज्ञानिक अथवा डॉक्टर नहीं। लेकिन लेखक ने जिस तरीके से और जिस सलीके से लड़की का मनोविज्ञान उपन्यास में प्रस्तुत किया है वह चकित तो करता ही है बल्कि उसने कथ्य के साथ पूरा न्याय किया गया है।

लेखक एक स्थान पर अपनी मां और पिताजी के व्यक्तित्व पर प्रकाश डालता है। यहां उसका आशय कथावस्तु को महज़ खींचना नहीं है बल्कि अपने माता-पिता की चारित्रिक विशेषताओं के माध्यम से …वह मैं पात्र के चरित्र के साथ पूरा न्याय करता था प्रतीत होता है। साथ ही वह नायक के संपूर्ण व्यक्तित्व को आदर्श बनाकर पाठक के समक्ष प्रस्तुत करने में कामयाब भी होता है। कई जगह पर तो उसकी व्यवस्था इतनी विनम्र होती है कि पाठक के पास रोने के अलावा कोई चारा नहीं बचता। जैसे एक स्थान पर स्थिति कुछ यूं होती है …’अभी वह बाथरुम में है। मैंने दलिया दो प्लेटों में रख दिया है। मैं उस की प्रतीक्षा में हूं। मैं जिस लड़की के इंतजार में हूं उसके रूठने मनाने की बात सोच भी नहीं सकता। मैं न मां हूं …न मैं डॉक्टर हूं … न मनोचिकित्सक हूं।  काश ! होता ..कुछ भी होता है…. कुछ न होता तो कम से कम एक स्त्री ही होता । लेकिन मैं कुछ भी नहीं ….।

यहां ‘कम से कम एक स्त्री होता है’ लिखकर उपन्यासकार ने स्त्री को बहुत ऊंचा सम्मान दिया है। यह वाक्य लेखक की नजर में स्त्री के विराट अस्तित्व की पराकाष्ठा है और चरमोत्कर्ष भी।

लेकिन तब तक नन्दिनी राजन के फ्लैट पर एक पत्र छोड़ कर जा चुकी होती है। तो पाठक के दिमाग में फौरन एक बात आती है  कि इसका दूसरा पार्ट भी लिखा जाना चाहिए और यह परंपरा अब इस उपन्यास के साथ डाली जानी चाहिए क्योंकि फिल्म का  सीक्वल बन सकता है तो ‘डरी हुई लड़की’ का सीक्वल भी लिखा जाना चाहिए ….ऐसी गुजारिश पाठक  इस उपन्यासकार से करता है।

पुस्तक : डरी हुई लड़की
लेखक : ज्ञान प्रकाश विवेक
प्रकाशक :भारतीय ज्ञान पीठ, 2017

सम्पर्क-प्रवक्ता हिंदी, गांव व डा. रावलधी, जिला-चरखी दादरी – 127306 मो.- 9896224471

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