मां – कामरेड पृथ्वी सिंह गोरखपुरिया

मैक्सिम गोर्की की मां ना सही पर मेरे लिए वह गोर्की की मां से कम नहीं। वह मुझे पढ़ा-लिखाकर  ‘मंत्री’ बड़ा अफसर बनाना चाहती थी। मुझे यह मंजूर नहीं था। मैं समाज को बदलना चाहता था।  गरीबी व अभाव की पीड़ा मैंने भोगी थी। जात-पात, अन्ध विश्वास, रूढिय़ों, धर्मान्धता के मैं बचपन से ही खिलाफ हो चला था। मैं सातवीं कक्षा में हरिजनों के घर पानी पीने चला गया था। इसलिए मैंने दूसरा रास्ता चुना। हांलाकि घर की हालत बहुत अच्छी नहीं थी। मेरी छोटी बेटी तो अब भी कई बार कह चुकी है कि  ‘आपने बैंक की नौकरी क्यों नहीं की। कोई बड़े अफसर क्यों नहीं बने।’ बड़ा बेटा पढ़ाई में बहुत होशियार। पंजाबी में व जिला में ऊंची मैरिट लेकर उतीर्ण हुआ। उसको वजीफा मिलने लगा था। परन्तु वह दसवीं में मेरे पास से इसलिए चला गया कि ‘पिताजी की राजनीति के चलते तो उनके भूखे मरने की नौबत आ जायेगी’ वह तीन साल तक मेरे पास नहीं आया और अपने छोटे चाचा के साथ मिलकर कमाने लायक धंधा शुरू कर लिया।

परन्तु मेरी मां सारी उम्र मेरी सहयोगी बल्कि यो कहिए संघर्ष की साथी रही। पहले मेरी पढ़ाई जारी रखने के लिए और फिर मार्क्सवादी पार्टी की राजनीति (मजदूरों किसानों की राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए) ताउम्र मेरा साथ देती रही। उसने अपने जेवरात, गांव के 2 प्लॉट तथा उसके नाम की 20 एकड़ जमीन मुझे  बेचने के लिए दे दी। मैं कालेज में आया तो उसने मुझे एक बात कही थी ‘अच्छा करेगा तो अपने लिए, बुरा करेगा तो अपने लिए। हमने  तो जिंदगी यों ही बितानी है।’ गांव के लोगों ने मेरे बारे में तरह-तरह की बातें शुरू की। मेरी मां को बहकाना शुरू किया। छोरे नै इतना मत पढ़ावै पागल हो जैगा। जब मेरी पी.एच.डी. के लिए रजिस्ट्रेशन हो गया तो वही लोग कहने लगे कि अगर उसने पेचड़ी ही लगानी थी तो इतना पढऩे की क्या जरूरत थी। परन्तु मेरी मां अपने इरादे से नहीं डिगी। मैं गांव में और यूं कहिए कि बहुत से गांवों में पहला व्यक्ति था जिसने डबल एम.ए. की थी और पी.एच.डी. करने लगा था। शायद यह बात चौधरियों को अखरती थी।

मेरी मां अनपढ़ थी। परन्तु समझदार थी। घर में सत्संग आदि करती रहती। बहुत सी औरतें उनके साथ आती थी। उस समय नशा करने वालों  को पुलिस पकडऩे आती। मेरे गांव में अफीम, भुक्की और दारू का बहुत चलन है। सैंकड़ों औरतें व बच्चे भी नशे की लत में पड़े हुए हैं। पुरूषों (आदमियों/माणसों) का तो कहना ही क्या।

उस दौर में  बिजली, नहरी पानी आदि की व्यवस्था न के बराबर थी। हरियाणा में अकाल पड़ते रहते थे। शहरों का विकास बहुत ही कम हुआ था। पश्चिम व पश्चिम-उत्तर से आने वाले लोग दिल्ली जीतने के लिए हरियाणा से होकर जाते थे। इसलिए हरियाणा राज्य में शांति व स्थायित्व नहीं रह पाया। फलस्वरूप खेती का विकास अवरूद्ध रहा और पशुचारण लोगों का मुख्य धंधा रहा। लोगों के पास काम के बाद काफी समय बच जाता था। पढ़ाई-लिखाई कुछ ही परिवारों तक सीमित थी। इसलिए लोग नशे की लत का शिकार हो जाते थे।

हरियाणा में एक कहावत प्रचलित है-ठाली नाण काटड़े मुंडै…नौजवान व अन्य बहुत से लोग डेरों व मठों में दिन काटते थे। मेरे पिताजी इन्हीं डेरों व मठों के जंजाल में फंस गये। हांलाकि वे बहुत अच्छे बांसुरी वादक व पहलवान थे, परन्तु उनके दिमाग में सुल्फा व गांजा चढ़ गया। घर बार की फिक्र छोड़, डेरों का चक्कर लगाने लगे और इस प्रकार घर को चलाने व बच्चों को पालने का सारा काम मां के सिर आप पड़ा। वो मेरे को कहती रहती थी कि अगर इस पार्टी को पकड़ लिया तो इसको छोडऩा मत। वो जनवादी महिला समिति व पार्टी के जलसों, मीटिंगों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेती थी। वो कई बार पार्टी जलसों में भाग लेने दिल्ली गई। उसने बाबरी मस्जिद गिराने के उपरांत जनवादी महिला समिति की लखनऊ रैली में भाग लिया, जनवादी महिला समिति की भिवानी रैली में पंहुची। गुजरात, अहमदाबाद की महिला समिति में भाग लिया। पार्टी की चुनावी रैलियों में लगातार भाग लेती रही। कर्मचारी आंदोलन के दौरान कर्मचारियों के समर्थन में गिरफ्तारी दी और 15 दिन चंडीगढ़ बुड़ैल जेल में रही। वह मेरे लिए हमशा प्रेरणास्रोत रही।

वह हरियाणवी में महिलाओं में सवाल पर, किसानों की समस्याओं को लेकर गीत बनाती रही। जीवन से जुड़ी बहुत कहावतें हमें सुनाती थी, जो बहुत शिक्षाप्रद होती थी। जैसे ‘अकल सै तेरी छोटी, बात कहै ओरां की खोटी’, वह मुझे बचपन में बताती थी की गदर (1947) के समय अपने घर में करीब 40 मुस्लिम औरतों व मर्दों को रखा और वह उनको रोटी बना बनाकर खिलाती थी। एक मुसलमान हमारा पारिवारिक दोस्त था। 1947 के दंगों के समय उसके मन में डर बैठ गया। उसने जाने की ठान ली। मेरा ताऊ ऊंट पर उसके 2 बच्चों व पत्नी समेत बिठाकर अग्रोहा से आगे छोड़ कर आया। पहले हमारे घर के लोगों ने उसको न जाने के लिए बहुत मनाया। परन्तु वह नहीं माना। रास्ते में उसके बच्चे मार दिये और औरत को दंगाई ले गये। वह रोता-पीटता पागल होकर खेत में पहुंचा। मेरे ताऊ ने उसको बहुत गाली दी, ‘साले माना नहीं। मेरे फूल से बेटों को मरवाकर मेरे पास आया।’ परन्तु फिर क्या हो सकता था। उन्मादी भीड़ों की वीभत्स करतूतों की चर्चा शुरू होते ही दिल दहल जाता है और रोंगटे खड़े हो जाते हैं।

Avatar photo

पृथ्वी सिंह गोरखपुरिया

पृथ्वीसिंह गोरखपुरिया  सच्चे किसान-मजदूर हितैषी । 1944 में फतेहाबाद जिले में जन्मे। नहला गांव से दसवीं पास करके डी एन कालेज हिसार से स्नातक पास की। हरियाणा छात्र संघ का गठन किया। 1968 में कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के छात्र संघ के अध्यक्ष चुने गए। 1971 में विश्वविद्यालय से निष्कासित कर दिया और पी एच डी की पढाई बीच में ही छूट गई। संघर्षों के कारण 1972 -73 में जेल गए। आपात काल घोषित होते ही गिरफ्तार किए गए। बड़ोपल और भट्टू से विधान सभा के लिए चुनाव भी लड़ा पर जीत नहीं मिली। उनकी डायरी से (30 जून 2007)  

ज़माने में नया बदलाव लाने की ज़रूरत है -महावीर ‘दुखी’

सामंती व्यवस्था से टकराता साहित्यकार – बी. मदन मोहन

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *