चेतना का रचनाकार तारा पांचाल

रविंन्द्र गासो

तारा पांचाल

हरियाणा में लिखे जाने वाला साहित्य राष्ट्रीय विमर्शों में कम ही शामिल रहा। इसके कारण, कमियां या उपेक्षा अलग चर्चा का विषय है। इस सब में हरियाणा की रचनाधर्मिता का माकूल जवाब देने में तारा पांचाल का अकेला नाम ही काफी है। बेशक और ज्यादा नाम नहीं हैं। कई पक्ष-कारण हैं। तारा की कहानियों में हरियाणा की संस्कृति कोई विषय नहीं, बल्कि उनके यथार्थ चित्रण में ही इसके वास्तविक रंगों की पहचान है। वस्तुपरकता और ईमानदार आलोचकीय दृष्टिकोण के कारण जन-जीवन के विश्वसनीय चित्र उनकी कहानियों में मिलते हैं।

                बड़ी बात यह कि तारा ने शिल्पकार, किसान, मजदूर के जीवन को अपने जिगर का हिस्सा बनाकर लिखा। हालांकि यह ऐसा काम है जिसे लुहार की भट्ठी में तपना-गलना कहा जाता है। तारा खुद लोहार का बेटा था। शिल्पकारों के सामने जो महासंकट आए, बर्बादियों और पीड़ा के अमिट निशान छोड़ गए। पुराने कारोबार खत्म हो गए, नए बने नहीं। रोजी-रोटी के साथ सांस्कृतिक संकट के बड़े प्रश्न तारा के लिए मुंह बाए खड़े रहे। किसान और मजदूर की भी यही स्थिति है। थकती-हारती-लड़ती विशाल श्रमिक जनता का लेखक तारा दलित लेखन की परिभाषा का आगामी पृष्ठ है। यह वह जनवादी दिशा है जो जातीय पहचानों से आगे बढ़ वर्गीय मोर्चे पर जन-मुक्ति का परचम लेकर चलती है।

                श्रमिकों का लेखक तारा पांचाल जानता था कि मध्य वर्ग को झंझोड़े बिना विशाल नवजागरण का गीत अधूरा रहेगा। आत्मकेंद्रित व आत्म-मुग्ध भारतीय मध्य वर्ग सांस्कृतिक रूपांतरण के तमाम आंदोलनों से कन्नी काट रहा है। श्रमिक जन से वह खास दूरी से बात करता है। तारा पांचाल बातचीत में अनेक बार इसकी चर्चा करते। वे इस वर्ग के आकार-प्रकार को खारिज करने के पक्ष में नहीं थे। निम्न मध्यवर्ग पर उन्होंने काफी लिखा। मध्यवर्गीय जीवन की विडंबना, कमजोरियों, चिंताओं को वे कुछ अलग से बड़े सामाजिक परिप्रेक्ष्य में लिख रहे हैं। मुख्य विमर्शों, राजनीतिक चेतना, राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर तारा की कलम कभी बंद नही हुई। लेकिन मूल चेतना में  गरीब मजदूर-किसान-कारीगर ही रहे। यही जन जब विस्थापित हो शहर में जीवन-संघर्षों में जूझता है, तो तारा खुद के जीवन की तरह उसे अपने खूने-जिगर में शामिल करते हैं। तारा के लेखन का केंद्रीय सार ही देश की विशाल मेहनतकश गरीब जनता के आर्थिक-सामाजिक संकट और सांस्कृतिक व जहनी-गुलामी के कठोर यथार्थ में से मुक्ति-चेतना के रंग ढूंढता है। ये रंग बने-बनाये, कृत्रिम या जीभ के स्वाद की भांति ऊपरी-ऊपरी नहीं, बल्कि गुंथी-मथी मिट्टी के घोल से बने हैं-बिल्कुल मिट्टी रंगे। ये रंग तारा के अपने रंग हैं। मिट्टी से मिट्टी होते मजदूर-किसान के खालिस लौहतत्व मिले रंग।

                तारा कई-कई दिनों तक एक कहानी पर काम करते, कभी तो महीनोंं लग जाते। जब संतुष्ट होते तो पत्रिका में भेजते। एक कहानी उनके लिए बड़े प्रोजेक्ट की तरह होती थी। ‘मुनादियों के पीछे’, ‘फोटो बच्चा’,  ‘झूठे’, ‘फूली’, ‘मैं मंदिर के गर्भ-गृह से बोल रहा हूं’, ‘दीक्षा’, ‘निर्माता’, ‘गिरा हुआ वोट’, ‘निक्कल’, ‘कलगी’, ‘दरअसल’, ‘मास्टर जी’, ‘रामदेव का घर’, ‘संभावनाएं’, ‘गुरु जी के पांव’, ‘खाली लौटते हुए’, ‘पीपल’, ‘बिल्ली’ आदि दर्जनों कहानियों, पर विस्तार से लिखने की जरूरत है।  लेकिन यहां दो कहानियों की ही चर्चा करेंगे ‘निर्माता’ और ‘दीक्षा’।

                ‘निर्माता’ कहानी ‘नया पथ’ (अप्रैल 1989 ई.) में छपी थी। बाद में 1991 में तारा के कहानी संगह ‘गिरा हुआ वोट’ में आई। इस कहानी में प्रीतम लोहार की जीवन-स्थितियों का वर्णन है। श्रमिकों, किसानों, शिल्पकारों का ब्राह्माणीकरण कैसे होता है – इसकी सच्चाई को इसमें खूबसूरती के साथ दिखाया है। प्रीतम लोहार को विधायक, साबुनवाला तथा अमोलक पंडित पांचाल ब्राह्मण सभा बनाने के लिए प्रेरित करते हैं। तीनों के अपने-अपने करैक्टर हैं और वर्ग एक है। ये सत्ताधारी वर्ग हैं। इनकी राजनीति के पास जनता की रोजी-रोटी आदि की बुनियादी समस्याओं का कोई हल नहीं। आम जन चेतन व संगठित न हो पाए इसीलिए सत्ताधारी उन्हें कृत्रिम, झूठी व विकृत पौराणिक जाति के झूठे गौरव में डूबो कर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं।

                दूसरी कहानी है- ‘दीक्षा’। जीवन में, समाज में सुंदर व्यवस्था बनाने में किस तरह परंपरागत दर्शन अपर्याप्त ही नहीं, बल्कि दरिद्र है, धार्मिक-सांस्कृतिक संदर्भों में यह कहानी इसी पर बात कहती है। संसार को ‘मोह माया’ व ‘झूठ’ मानने वाला दर्शन खुद कितना झूठा है। इसी दर्शन के गलबे के कारण महंत शिवोनाथ जिंदगी की दुश्वारियों से भाग कर ‘बाबा’ बनता है। इन्सानी जीवन के खूबसूरत जज्बातों की निंदा की जाती है। मुक्ति (मोक्ष) का दर्शन असल में  सामाजिक गुलामी का दर्शन है। महंत शिवोनाथ नवनाथ बनने जा रहे युवक कर्मेंदर को इस दलदल से निकल भागने के लिए कहता है अर्थात्, मोह-माया की फिलॉसफी मेहनतकश के काम की नहीं। समाज में रहते हुए स्थितियों को बदलने का संघर्ष करते हुए जीना है। परिवर्तन के रास्ते और दर्शन खोजने हैं। कोई दूसरा रास्ता नहीं। जादू की पुडिय़ा या आसान हल नहीं है।

                तारा कोई आदर्शवादी लेखक नहीं थे। यथार्थवादी लेखक पूरी तीखी चेतना के साथ जिंदगी के सवालों पर सोच-लिख रहा था। तारा जी का जीवन द्वंद्वों और संघर्षों का दूसरा नाम था। बीमारियों ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। माईग्रेन की बीमारी से सालों तक परेशान रहे। आर्थिक तंगी व लाणेदारी का बोझ भी एक बीमारी ही था। इस सब के बावजूद उन्होंने विचार और सृजन के महत्वपूर्ण अध्याय लिखे। हरियाणा के साहित्यिक विमर्शों के वे केंद्रीय व्यक्तित्व थे। अनेक रचनाकार उनसे ऊर्जा, प्रेरणा व दिशा लेकर बड़े हुए।  बहुतों को उन्होंने लिखना सिखाया।

 सम्पर्क : हिंदी-विभाग, डी ए वी कालेज, पुण्डरी , मो.- 9416110679

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *