एक सवाल
बार कौंधता है
मन मेरे
कि यह दुनियां ऐसी क्यों है?
गांव की चौपाल से लेकर
संसद के गलियारों तक
मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर
और धर्म सभाओं तक
बड़ी सावधानी से
बांटा जाता है एक ही जहर।
बहाए जाते हैं घड़ियाली आंसू
देश की चिंतनधार कुंठित हो रही है
भाषणों की वृष्टि से
चलाया जा रहा है एक अभियान
नई-नई शतरंजी चालों में
आम-आदमी को उलझा दिया जाता है
‘कर्मण्येवाधिकारस्ते’ का
महामंत्र उसके गले के नीचे
बड़ी सावधानी से उतार दिया जाता है
अपनी बाजी हारकर
आदमी छटपटाता है
और बार-बार पूछता रहूंगा
वही एक पुराना सवाल
कि यह दुनियां ऐसी क्यों है?
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