छवि का कुहासा और केंचुली उतारता हरियाणा- डा. सुभाष चंद्र

हरियाणा की छवि और वास्तविकता में दूरी बढ़ते बढ़ते इतनी हो गई है कि अब वास्तविकता और उसकी छवि का संबंध टूट गया है। वास्तविकता अपनी जगह पर है, लेकिन छवि का कारोबार फल-फूल रहा है। यह छवि दो स्रोतों से निर्मित हो रही है। एक सरकारी तंत्रा है जो लगातार एक प्रगतिशील, खुशहाल, समृद्ध हरियाणा की छवि के निर्माण के लिए करोड़ों रुपए विज्ञापनों पर खर्च करता है और बदले में खिलखिलाते हुए चेहरों के साथ कुछ छवियां अखबारों व टेलीविजन पर दिखाई देती हैं। जिस रचनात्मकता व कलात्मकता के साथ ये बनाए हैं, उनको देखकर स्वाभाविक है कि इन पर विश्वास करने का मन भी करता है।

दूसरी एक छवि भी हरियाणा की बनाई गई है, जिसे पूरी तरह से काले रंगो से बनाया गया है। इस छवि में हरियाणा बेहद बर्बर, जाहिल, आदिम, रूढ़िवादी, अमानवीय दिखाई देता है। कुछ एन जी ओ इसी छवि को दिखाकर चांदी काट रहे हैं। नए नए प्रोजेक्ट उनके खाते में आ रहे हैं।

इन दोनों छवियों में कुछ-कुछ सच्चाइयां जरूर हैं लेकिन बहुत ही आत्यंतिक भाषा में वह सच्चाई का अंश भी गुम हो जाता है। परस्पर विरोधी दिखाई देने वाली इन दोनों छवियों का नतीजा एक ही है, सच्चाई को दरकिनार करना और उसे ढक देना। जब-जब सच्चाई को झूठ से ढका या दबाया जाता है तो पहला नुकसान जनता का होता है। सच जानने की अदम्य इच्छा ने ही मनुष्य को खोजी व मानवीय बनाया है।

इसके बरक्स हरियाणा एक सहज समाज है जिसमें प्रगति, समृद्धि व खुशहाली की अपार संभावना है तथा यहीं पर घोर अमानवीयता, आदिम बर्बरता व सामन्ती क्रूरता भी अपने सभी रूपों में मौजूद है। ये दोनों अपने अपने खानों-स्थानों पर शान्ति से नहीं बैठी बल्कि इनमें घोर संघर्ष है। जहां अमानवीय शक्तियां समाज को जाति व धर्म के नाम पर नफरत फैलाकर और नौजवानों को सेक्स-हिंसा-नशे में धकेलकर अपना आकार बढ़ा रही हैं, तमाम नागरिक-अधिकारों पर कुठाराघात करके अपनी दबंगई व चौधर बनाए रखने वाली शक्तियां हैं तो उनको अपने ही घरों में चुनौती देकर नागरिक-अधिकारों को प्राप्त करने वाले इंसानी मूल्यों के लिए संघर्षरत व पीढ़ियों को जागृत करने वाले भी हैं। लेकिन यह आवाज मीडिया में और विमर्श में जगह नहीं पा रही है। सभी जगह हरियाणा की प्रतिगामी शक्तियों का उसकी ताकत से लाखों गुणा बड़ा करके महिमागान हो रहा है। इसका परिणाम यह निकल रहा है कि इस महिमागान से ही पिछड़ी हुई विचारधाराएं, रूढ़िवादी शक्तियां शक्ति ग्रहण कर रही हैं।

परोसी गई इन निर्मित छवियों से बाहर एक नया हरियाणा अपनी केंचुली को उतार फेंकने के संघर्ष में कसमसा रहा है। स्वाभाविक है कि अपनी ही केंचुली को उतारना सबसे मुश्किल काम होता है। हमारी पत्रिका इस बदलते हुए हरियाणा की अभिव्यक्ति का मंच है जिसमें न तो संकीर्ण हरियाणावाद की कोई जगह है और न ही धरोहर के नाम पर पुरातन का उत्सव है। यहां प्राचीनता के डंडे से वर्तमान की ठुकाई-पिटाई, लताड़-प्रताड़ नहीं है बल्कि वर्तमान को बेहतर करने की जद्दोजहद में अपनी परंपराओं तथा नई संस्कृति के प्रति आलोचनात्मक दृष्टि बनाए रखने का संकल्प है। न यहां पुराने से अतिरिक्त मोह है और न उसके प्रति हेय बोध और नकार।

धरोहर से किसी समाज का काम नहीं चलता वह तो हमेशा म्यूजियम की शोभा होती है। फुर्सत के पलों में अपने अतीत को याद करना मनुष्य की स्वाभाविक इच्छा है लेकिन यह भी सही है कि मनुष्य को वर्तमान में ही जीवन जीना पड़ता है। धरोहर का महिमागान करके हम वर्तमान से आंखे नहीं चुरा सकते। हमारे लिए हरियाणा की संस्कृति केवल सांग, पनघट, चौपाल, चुण्दड़ी-दामण तक सीमित नहीं है। बदला हुआ हरियाणा हमारे सामने है जिसमें सिर्फ वस्तुएं व जीने के तौर-तरीके ही नहीं बदले, बल्कि मानवीय संबंधों में गुणात्मक बदलाव दिखाई दे रहा है। यहां सिर्फ मेले-ठेले व ढोल-ढमाके ही नहीं हैं बल्कि आपसी कलह-द्वेष भी जीवन का हिस्सा है जिस पर उंगली रखे बिना बेहतर समाज की संभावना नहीं बनती।

लोगों ने संकटों भरे जीवन की कटकट में से ही दो पल हंसी के भी चुरा लेने का हुनर सीख लिया है, यहीं पर उनकी जीवन-कला की वक्रता भी देखने लायक होती है। जीवन-संघर्ष को अभिव्यक्त तभी किया जा सकता है जब उनके जीवन से लेखक का गहरा रिश्ता हो, वह उनमें शामिल हो। जब तक जीवन अपनी विश्वसनीयता के साथ लेखन में उपलब्ध नहीं होता तब तक उसका कोई प्रभाव भी नहीं होता। सिर्फ शब्दों से तो लेखन हो नहीं सकता। जैसे सिर्फ कैमरे की गुणवत्ता से अच्छी फोटो नहीं खींच सकते या सिर्फ रंगों की गुणवता से अच्छी तस्वीर नहीं बना सकते। जीवन की कलात्मक अभिव्यक्ति के लिए उसके भीतर पैठने और झाड़-पछोड़ करने वाली दृष्टि की जरूरत होती है।

हरियाणा की निर्मित छवियों से बाहर किसान है जो खेती के संकट से जूझ रहा है। कैंसर जैसी जान-लेवा व घर-उजाडू बीमारियों से संघर्ष कर रहा है, प्राकृतिक विपदा से जूझ रहा है। अपना पेट भरने के लिए कुछ-कुछ जुगाड़ बिठाने में अपनी मानवता को भी दाव पर लगा बैठता है। महिलाओं का भरा-पूरा संसार है जिसकी संभावनाएं भी अभी उद्घाटित नहीं हुई हैं। जिसका जीवन आज भी बहुत सी वर्जनाओं के बीच घुटन महसूस कर रहा है। सामाजिक-भेदभाव व उत्पीड़न की दिल दहला देने वाली घटनाएं भी इसी समाज में न केवल घटित हो रहीं हैं बल्कि भीड़-तंत्रा के बल पर उनका औचित्य भी सिद्ध किया जा रहा है। हरियाणा के समाज की संस्कृति-विकृति, समृद्धि-अभावग्रस्तता सब मिलाकर ही संस्कृति बनती है। जीवन की अभिव्यक्ति ही संस्कृति की अभिव्यक्ति है। संस्कृति को स्टेज पर कार्यक्रम की प्रस्तुति तक सीमित नहीं किया जा सकता।

हरियाणा से और हरियाणा पर केंद्रित करके हरियाणा की रचनाशीलता पर निर्भर रहकर पत्रिका निकालना यदि असंभव नहीं तो बहुत मुश्किल काम जरूर है। इसका कारण यह नहीं है कि हरियाणा में बुद्धिजीवियों या लेखकों की कमी है। उनकी सुस्ती, सुविधा, कार्य अधिकता ही नहीं बल्कि इसके कुछ गंभीर कारण भी हैं। हरियाणा के बुद्धिजीवियों के सामने यह संकट है कि वे साधारण जनता से संवाद स्थापित करने की भाषा कहां से लाएं। वे पूरी तरह से जनता से कटे हुए हैं। विश्वविद्यालय के शिक्षक लिख भी रहे हैं तो उनके पास एक फारमेट है। जिसमें कुछ आंकड़ा भरना है, कुछ सिद्धांत बघारना है, कुछ समस्या समाधान के टिप्स देने हैं। उनके लिए पावर प्वांइट एक साधन नहीं रहा, बल्कि पद्धति बन गया है। समस्या से जूझने-पकड़ने की कोई बैचेनी व जद्दोजहद नहीं है बल्कि सब सवालों के उसके पास पहले से ही उत्तर मौजूद हैं। स्वाभाविक है कि वे उत्तर उसी तरह के होंगे जैसे ओझा का मंत्रा। समझ में आने वाली बड़बड़ भाषा और हर समस्या का शर्तिया समाधान लिए।

दूसरी तरफ हरियाणा का लेखक है, जो अक्सर एक बात पर निरंतर रुदन करता है कि साहित्य के पाठक घट रहे हैं, अब साहित्य समाप्त हुआ कि तब हुआ। इसी सोच के चलते अपने को कुछ विशिष्ट किस्म का प्राणी भी समझने लगे हैं। साहित्य-सेवी कहलाना पसंद करते हैं और साहित्य के अलावा दुनिया की सभी चीजों पर नाक भौं सिकोड़ते है। इसने वैचारिक साहित्य से तो अपने को काट ही लिया है फिर साहित्य में विचार व विचारधारा आने पर भी इसको उबकाई आने लगती है। उसकी समझ में साहित्य और विचारधारा परस्पर विरोधी दुनिया की चीजें हैं।

साहित्यकार की निराशा व हिम्मतपस्ती असल में लेखक के अपने समाज में हो रही हलचलों से कटाव का ही लक्षण है। उसके समक्ष कोई पाठक वर्ग की स्पष्ट तस्वीर नहीं है। अपने को वह कहां स्थापित करे इसका अनुमान नहीं लगा पा रहा। जिस वर्ग के जीवन को यह अपनी रचनाओं में स्थान देता रहा है वह व्यावसायिक मनोरंजन में उलझता ही जा रहा है। अकादमियों और विश्वविद्यालयों के साहित्य के विभागों में जहां वह अपने सहृदय पाठक की तलाश में है वहां अब उल्लू बोलते हैं। जहां विशाल पाठक वर्ग पैदा हुआ है जिसमें वर्तमान को समझने-जानने की तड़प दिखाई देती है। गहन मंथन-चिंतन, आलोड़न-विलोड़न दिखाई देता है वह अब अपरम्परागत पाठक वर्ग इस लेखक की आंखों से ओझल है।

इस लेखक और इसके पाठक का परस्पर संवाद व भरोसा नहीं है। लोक जीवन से कटकर किसी साहित्यकार की रचनाओं में जीवंतता संभव नहीं है। जब तक उसकी रचनाओं में जीवन की धड़कन ना हो तब तक उसकी रचना भी पाठक समाज की धड़कन का हिस्सा नहीं बन सकती। साहित्यकार की लाचारी चाहे वह प्रकाश्षक के समक्ष हो या पाठक के समक्ष या फिर समाज के प्रभु वर्ग के समक्ष जनता से कटाव का ही नतीजा है। अपनी सीमाओं को वह समाज की सीमाओं पर थोंपकर सुविधाजनक चुप्पी साध जाता है और निरंतर साहित्य की मृत्यु की संभावना के विलाप को ही अपना परम कर्तव्य मानता है।

हरियाणा में आज इतने लेखक मौजूद हैं कि यदि हरियाणा के आज तक के इतिहास से लेखकों को जोड़ दिया जाए तो उससे अधिक संख्या होगी। जिस तरह की अभिव्यक्ति की परंपराएं व संस्कृति यहां रही है, स्वाभाविक है कि उसका असर तो लेखकीय परिवेश, लेखन की शैलियों और लेखकीय समझ पर जरूर रहेगा। इसमें बहुत बड़ा लेखक वर्ग ऐसा है जो अपने समय और समाज के वास्तविक लेखक हैं और अपने समय व समाज को विश्वसनीय अभिव्यक्ति दे रहे हैं। एक उम्मीद यहीं से है और उम्मीद है कि यह पत्रिका उन सबको जोड़ने व उनमें विचार-विमर्श का मंच प्रदान करने में कामयाब होगी।

पत्रिका का नाम ‘देस हरियाणा’ जरूर है, लेकिन यह सिर्फ हरियाणा के सवालों और हरियाणा की सोच तक ही सीमित नहीं होगी। हरियाणा का समाज-संस्कृति-साहित्य केन्द्र में रहते हुए देश-दुनिया में हो रहे परिवर्तनों को समझने व उनके अपने समाज पर पड़ रहे प्रभावों को समझने-जानने व अभिव्यक्त करने की इसमें जगह है।

हरियाणा के समाज में भारी खदबदाहट है, कुछ उबल रहा है। पत्रिका के पहले अंक में नागरिकों से जो विचार-विमर्श हुआ है उससे यह पूरी तरह से स्पष्ट है। पत्रिका से जुड़ी तीस लोगों की टीम जिसमें विश्वविद्यालयों के शोधार्थी-छात्रा और युवा-लेखक हैं उनके बीच और पाठकों के बीच जो मंथन हो रहा है उसका यही निष्कर्ष है कि अब हरियाणा वह नहीं रहा जिस पुरानी छवि से यहां का बुद्धिजीवी अपना काम चलाता रहा है। सच्चाई कहीं दूर जा चुकी है, विडम्बना यही है कि इस छवि को जानते-बुझते हुए भी तोड़ नहीं पा रहे। लोग इतने भोले नहीं रह गए हैं उनमें अपने हितों की दृष्टि से अपनी परिस्थितियों पर विचार करने की चाह है, वे किसी वैचारिक पैकेज या रेडिमेड समाधानों पर भरोसा नहीं कर रहे।

सही है कि ‘देस हरियाणा’ किसी संगठन या विचारधारा विशेष की पत्रिका नहीं है, लेकिन इसके नियमित प्रकाशन की जो योजना बनी है वह नितान्त व्यक्तिगत प्रयासों से कतई संभव नहीं थी। युवा-लेखकों और शोधार्थियों की सक्रिय व विश्वसनीय टीम जुड़ी है जिसका लाभ पत्रिका को सिर्फ प्रसार में ही नहीं, बल्कि बौद्धिक ऊर्जा में भी मिल रहा है। पत्रिका उनके लिए सांस्कृतिक कर्म है जो सिर्फ एक जज्बे के रूप में नहीं, बल्कि मुकम्मल विचार के तौर पर जुड़े हैं कि हरियाणा के समाज में सांस्कृतिक-साहित्यिक बहस को बढ़ावा देना है। इसी का परिणाम है कि देस हरियाणा के पहले अंक का जोरदार स्वागत हुआ। पहले दस दिन में फिर से छपवाना पड़ा और अच्छी खासी संख्या में इसके नियमित पाठक भी बन गए। इस सफलता का रहस्य इस टीम के मकसद की स्पष्टता व विश्वनीय आवाज में है। पत्रिका के भविष्य को लेकर कुछ लोगों में विशेषकर कुछ अनुभवी व प्रतिष्ठित किस्म के लेखकों में आशंका है कि एक-दो अंकों में जोश ठंडा पड़ जाएगा। उनको खुशी होगी कि इस टीम के संकल्प के सामने वे इस बार गलत साबित होंगे। आशंकाओं को छोड़कर इन नौजवानों को सहयोग करने की जरूरत है। बौद्धिक-रचनात्मक-आर्थिक जो जिस रूप में सहयोगी हो सकता है।

पत्रिका में प्रकाशित सामग्री की गुणवत्ता, प्रासंगिकता व रोचकता का फैसला तो हमेशा पाठक ही करते हैं। संपादक का काम तो फिल्म निर्देशक की तरह है, जिसमें सब अपनी भूमिकाएं निभाते है और सबको जोड़ने का काम संपादक का है। संपादक न तो किसी लेखक से मनोवांछित लेख लिखवा सकता है और न ही उसकी कोई आवश्यकता है।

लेखकों को अपनी रचनाएं अपने बच्चों की तरह ही प्यारी होती हैं, सही है कि कोई उनसे छेड़छाड़ करे तो अच्छा नहीं लगेगा, लेकिन इसके बावजूद रचनाओं पर संपादक की कलम चलती है, लेकिन रचना की आत्मा मारने के लिए नहीं। रचनाओं की मूल संवेदना बनाए रखते हुए ही संपादन के दायित्व का निर्वाह करने का भरसक प्रयास रहता है। लेखक की सब रचनाएं सबके काम की नहीं होती और न ही सब रचनाएं मास्टरपीस होती हैं इसलिए कुछ रचनाएं बिना छपे वापस लौटेंगी, लेखकों को इस बात के लिए तैयार रहना ही चाहिए। लिखी जाने पर रचना सामाजिक संपति बनती है तो कुछ हक पाठकों का भी उस पर होता है। उम्मीद है कि जो संपादकीय छूट ली गई है, रचनाकार उसे सहृदयता से लेगें।

समाज की वास्तविकता को अभिव्यक्त करती सभी साहित्यिक-वैचारिक विधाओं में नए-पुराने सभी रचनाकारों की रचनाओं का स्वागत है। पत्रिका का स्तर बनाए रखना अकेले संपादक की जिम्मेवारी नहीं बल्कि सभी पाठकों व रचनाकारों का सामूहिक दायित्व है। आशा है कि सभी अपने तौर पर इस दायित्व का निर्वहन करेंगे।

‘देस हरियाणा’ का दूसरा अंक आपके हाथ में है। इसमें हरियाणा पर विशेष सामग्री है जिसमें कोशिश की गई है कि यहां के जीवन की विविधता का समावेश हो। विभिन्न रूचियों के पाठक इसमें अपने लिए कुछ न कुछ जरूर प्राप्त कर सकें। सामाजिक-पारिवारिक जीवन में पत्रा-लेखन की जगह बेशक टेलीफोन व अन्य माध्यमों ने ले ली है लेकिन साहित्यिक दायरों में यह परम्परा बनी रहे इसके लिए पाठक अपने सुझावों को सिर्फ फोन पर न बताकर लिख दें तो पत्रिका-टीम को अपनी योजनाएं बनाने में सहायता मिलेगी।

 (देस हरियाणा-2 का संपादकीय)

सुभाष चन्द्र

Leave a reply

Loading Next Post...
Sign In/Sign Up Sidebar Search Add a link / post
Popular Now
Loading

Signing-in 3 seconds...

Signing-up 3 seconds...