पानीपत थर्मल प्लांट का पास-परिवेश – आशु वर्मा/अंशु मालवीय

जवाहर लाल नेहरू ने जिन बड़े सार्वजनिक प्रतिष्ठानों को आधुनिक युग के मंदिर और ‘कमांडिंग हाइट्स’ कहा था, उन्हीं में से एक, इस प्लांट के आसपास की हवा इतनी बोझिल क्यों महसूस होती है? हवा में एक घुटन क्यों तारी रहती है? क्या वास्तव में यह ‘आधुनिक भारत के मंदिर’ ही हैं? मन में प्रश्न उठता कि अगर ये मंदिर हैं तो देश के तमाम जगहों में बन रहे पावर प्लांटों के खिलाफ आंदोलन क्यों चल रहे हैं? और लोगों का विरोध कहां तक उचित है?

पानीपत थर्मल प्लांट के सामने से गुजरते समय अक्सर दैत्याकार चिमनियां और उनसे निकलता धुआं, दूर तक फैली राख की पहाड़ियां और बंजर खेत, धूल और फैली राख से अटी बस्तियां, गर्द से सने पेड़, उदास और बेरौनक दुकानें ध्यान खींचती थी। जवाहर लाल नेहरू ने जिन बड़े सार्वजनिक प्रतिष्ठानों को आधुनिक युग के मंदिर और ‘कमांडिंग हाइट्स’ कहा था, उन्हीं में से एक, इस प्लांट के आसपास की हवा इतनी बोझिल क्यों महसूस होती है? हवा में एक घुटन क्यों तारी रहती है? क्या वास्तव में यह ‘आधुनिक भारत के मंदिर’ ही हैं? मन में प्रश्न उठता कि अगर ये मंदिर हैं तो देश के तमाम जगहों में बन रहे पावर प्लांटों के खिलाफ आंदोलन क्यों चल रहे हैं? और लोगों का विरोध कहां तक उचित है? इन्हीें बातों को जानने-समझने और अपनी आंखों से देखने हम पानीपत थर्मल प्लांट गए और उसके आसपास के गांवों के लोगों से बातचीत की। अमर उजाला, पानीपत के पत्रकार श्री प्रीतपाल ने इस काम में हमारी बहुत मदद की। उनके हवाले से जो जानकारियां हमें मिलीं वह परेशान करने वाली हैं।

 यह प्लांट 1974 में 110 मेगावाट बिजली उत्पादन के साथ शुरू हुआ और आज यहां 1368 मेगावाट बिजली का उत्पादन हो रहा है, प्लांट का परिसर 2182 एकड़ में फैला हुआ है, जिसमें  से प्लांट से निकलने वाली राख के लिए 900 एकड़ जमीन में तालाब (ऐश पौण्ड) बना हुआ है। इस पौण्ड की गहराई 25 मीटर है। बिजली उत्पादन के लिए इस प्लांट में रोज 20,000 टन कोयला लगता है जो धनबाद (झारखंड) और इंडोनेशिया से मंगवाया जाता है। इस 20,000 टन कोयले से 17,000 टन राख बनती है जिसे पानी के साथ पाइपों के जरिए ऐश पौण्ड में डाला जाता है। दशकों से लगातार राख और पानी बहाए जाने से मीलों तक फैला भयानक दलदल बन गया है जो पानी की तलाश में आए जानवरों को लील जाता है। राख के साथ पानी मिलाए जाने से आसपास के लगभग दस गांवों का भूजल स्तर शून्य हो गया है। फसलें खराब  हो जाती हैं, मकानों में भयंकर सीलन है और रेह, सेम या नूनी जमी रहती है। काफी सारे मकानों में दरार आई हुई है। नए मकान भी ज्यादा दिन नहीं बच पाते। लोग दहशत-भरा जीवन जी रहे हैं। प्रीतपाल जी ने खुखराना गांव का सरकारी स्कूल दिखाया, जो बेहद जर्जर हालत में था। दीवारों में भयंकर सीलन थी, ईंटें झड़ी हुई थी। एक अजीब सी मनहूसियत पूरे प्रांगण में पसरी हुई थी। जमीन  के नीचे पड़े हुए पानी के पाईप की चूड़ी बंद थी, फिर भी लगातार पानी बह रहा था। हमें बताया गया कि भूजल के शून्य स्तर पर होने के कारण पानी बहुत ऊपर आ गया है। बहुत से खेत अधिक पानी के कारण खराब हो गए हैं।

 प्लांट से लगातार निकलने वाली राख के कारण 25 मीटर गहरा राख का तालाब भरते-भरते अब जमीन की सतह तक पहुंचा है। आसपास के गांवों में लगातार राख उड़-उड़ कर आती रहती है और जब हवा चलती है तब खुखराना, सुताण, आसन, लुहारी, जाटकलां और अन्य गांव राख से ढंक जाते हैं। यह राख दस किलोमीटर के दायरे में उड़ कर जाती है और आपके कपड़े, शरीर, मुंह, फेफड़े, मकान, पशु सब को अपनी गिरफ्त में ले लेती है। हर जगह राख ही राख होती है। कोई बाहर सो नहीं सकता।

 लोगों ने बताया कि विश्व बैंक ने पहले राख के प्रबंधन के लिए पैसा दिया था, पर उसका इस्तेमाल नहीं किया गया। अब तो इस मद में कोई पैसा भी नहीं आता। राख से सीमेंट बनाने के लिए जेपी सीमेंट की फैक्टरी लगी है, पर उसमें रोज निकलने वाली 1700 टन राख में से मात्रा 200 टन ही इस्तेमाल होती है। पहले ईंट भट्ठे कुछ राख लेते थे, पर ईंट की गुणवत्ता खराब हो जाने से उन्होंने राख लेना बंद कर दिया। अब मुफ्त देने पर भी वे नहीं लेते।

इस राख के कारण टी.बी. से आसपास के गांवों के लगभग 40 लोगों की मौत हो चुकी है। खुखराना के एक सरपंच की मौत भी टी.बी. से ही हुई थी – खुखराना के नंबरदार ने एलर्जी से खराब हुआ अपना हाथ दिखाया। आसपास के गांवों के 80 प्रतिशत लोग दमा, एलर्जी, टीबी या आंख के रोगी हो चुके हैं। पहले कभी इन गांवों में मेडिकल कैंप लगते थे और प्लांट से डाक्टर आते थे, पर अब धीरे-धीरे यह सब बंद हो गए हैं। उच्च न्यायालय का आदेश था कि यहां के बाशिंदों की हर हफ्ते जांच होनी चाहिए, कुछ दिनों तक जांच हुई, पर थोड़े समय बाद वह भी बंद हो गई। गांवों के उप स्वास्थ्य केंद्र में शायद ही कोई दवाई मिलती है। लोगों के स्वास्थ्य और जीवन को किस्मत के भरोसे छोड़ दिया गया है।

लोगों ने बताया कि लगातार बीमार रहने के कारण अब एक बीमारी ठीक होने से पहले दूसरी बीमारी पकड़ लेती है। इस इलाके में मलेरिया और टाईफाईड आम है। पहले पीने का टैंकर आता था, अब वह भी आना बंद हो गया है। हैंडपंपों से शोरायुक्त पानी आता है। जिन लोगों की आर्थिक हालत थोड़ी ठीक है, उन्होंने तो आर.ओ. लगवा लिए हैं। पर गरीब तो वही पानी पी रहे हैं, जो प्लांट से निकल कर ऐश पौण्ड में जाता है और सीपेज के द्वारा पंपों तक पहुंच जाता है। सुताना गांव में कोई अपनी लड़की की शादी नहीं करना चाहता। लोगों ने बताया कि प्लांट लगने के बाद सरकार की ओर से आसपास के लोगों के स्वास्थ्य या उनकी दूसरी समस्याओं का पता लगाने के लिए कभी कोई सर्वे नहीं करवाया गया।

लोगों का कहना था कि फसलों पर धूल की परत जमा रहती है और बाजार में उसके दाम कम मिलते हैं। मार्च – अप्रैल में जब फसलों की कटाई होती है, तब राख की आंधी के कारण खुखराना और जाट कलां गांवों में कटाई के लिए मजदूर नहीं मिलते। खुखराना गांव के लोगों ने बताया कि प्लांट के लिए जब सरकार यह जमीन ले रही थी, तो यहां के बाशिंदों और किसानों को आने वाले समय मे यहां के पर्यावरण और लोगों के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले इन दुष्प्रभावों के बारे में नहीं बताया गया था।

नेहरू के ‘आधुनिक युग के मंदिर’ तो फिर भी सार्वजनिक क्षेत्र के अधीन थे। उनके लिए सरकार जवाबदेह थी। आज निजीकरण और उदारीकरण के दौर में निजी पूंजी को लूट की खुली छूट है और उसके मार्ग में आने वाली हर कानूनी अड़चन को हटाया जा रहा है, चाहे भूमि अधिग्रहण कानून हो, श्रम कानून हो या पर्यावरण संबंधी कानून, सबको विकास दर के आगे कुर्बान किया जा रहा है। इस नए दौर में विकास के इस विनाशकारी मॉडल की कितनी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी, इसका अनुमान लगाना मुश्किल है।

किसानों को यह अफसोस है कि आज उनके जिन खेतों की कीमत एक करोड़ प्रति एकड़ है, वह उनसे बेहद सस्ते दामों पर ली गई थी। 1970 में बहुत सारे किसानों को मात्रा 580 रुपए तो कुछ को  2000 रुपए प्रति एकड़ जमीन का मुआवजा मिला। 1977 में 8000 रुपए और 1990 में 70000 रुपए प्रति एकड़ जमीन की कीमत मिली। आज किसान अपनी जमीनों से भी हाथ धो बैठे हैं और स्वास्थ्य से भी। अपने बच्चों को देने के लिए उनके पास बीमारियों के अलावा कुछ भी नहीं है। कुछ लोगों को तो  मुआवजा भी नहीं मिला। लोगों ने बताया कि एमरजैंसी के समय जमीन ली गई। पहले हमने पैसे लेने से इन्कार किया था। फिर ले ली। पहले जेसीबी नहीं थी। सबको काम मिल जाता था। आज  प्लांट में भी जिन्हें काम मिला है, उनकी संख्या ज्यादा नहीं है।

खुखराना गांव के मौजूदा सरपंच ने बताया कि गांव वालों ने उच्च न्यायालय में मुकद्दमा लड़ा कि स्वास्थ्य कारणों से उन्हें कहीं और बसाया जाए। मुकद्दमें के लिए भी उन्हें अपना वकील करना पड़ा, ताकि कोई गड़बड़ी न हो जाए। फैसला आए भी दस साल बीत चुके हैं कि इस गांव को विस्थापित कर अब पास के सौदापुर गांव में बसाना है, अभी तक न तो उन्हें सौदापुर में बसाया गया है और न ही किसी प्रकार की ग्रांट सरकार की ओर से मिल रही है। इसके विरोध में कई गांवों की महापंचायत भी हो चुकी है। दूसरे, सरकार ने गांव में बसाने के लिए सिर्फ 54 एकड़ जमीन ही तय की है। बहुत सारी जमीन, मसलन पंचायती जमीन के कुछ हिस्सों को छोड़ दिया गया है। लाल डोरे के अंदर की जमीन का ही मुआवजा तय हुआ है। गांव का कुल मुआवजा 1.5 लाख प्रति एकड़ निर्धारित किया गया है।

खुखराना, सुताना और आसपास के दस गांव के लोग देश की राजधानी दिल्ली की जगमगाहट के बदले अपने पुरखों की जमीन खो बैठे हैं। खुद तिल-तिलकर मर रहे हैं और विरासत में अपने बच्चों को अंधकारमय भविष्य देने को अभिशप्त हैं। ये  विकास के ऐसे भयानक मॉडल का शिकार हो गए हैं जिसमें आम  मनुष्य के जीवन की कोई कद्र नहीं और जो आम आदमी के जीने के अधिकार तक को चोट पहुंचाता है। जो लोगों को अपनी जगह जमीन से उखाड़ देता है और पर्यावरण का भयानक विनाश करता है। यह मॉडल पहले लुभावने सपने दिखाता है और फिर आसपास के प्रभावित लोगों को बीच भंवर में छोड़ कर उन्हें पूरी तरह लाचार बना देता है।

नेहरू के ‘आधुनिक युग के मंदिर’ तो फिर भी सार्वजनिक क्षेत्र के अधीन थे। उनके लिए सरकार जवाबदेह थी। आज निजीकरण और उदारीकरण के दौर में निजी पूंजी को लूट की खुली छूट है और उसके मार्ग में आने वाली हर कानूनी अड़चन को हटाया जा रहा है, चाहे भूमि अधिग्रहण कानून हो, श्रम कानून हो या पर्यावरण संबंधी कानून, सबको विकास दर के आगे कुर्बान किया जा रहा है। इस नए दौर में विकास के इस विनाशकारी मॉडल की कितनी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी, इसका अनुमान लगाना मुश्किल है।

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