( अंग्रेजी के विद्वान शशिकांत श्रीवास्तव साहित्य के गंभीर अध्येता हैं। कई दशकों तक कालेज में अध्यापन किया और हरियाणा के सरकारी कालेजों में प्रिंसीपल रहे। हिंदुस्तानी साहित्य की सांझी विरासत को आत्मसात किया है। उर्दू ग़ज़ल के गहरे जानकार हैं देस हरियाणा के आगामी अंकों में आप पढ़ेंगे शशिकांत श्रीवास्तव लिखित उर्दू ग़ज़ल के सफर को। प्रस्तुत है उर्दू की विभिन्न विधाओं के बारे में उनके विचार – सं।)
जब कभी भी, कहीं भी उर्दू ‘शायरी’ की बात होती है, तो आमतौर पर इसका मतलब ‘ग़ज़ल’ ही लिया जाता है और ऐसा स्वाभाविक ही है क्योंकि ‘ग़ज़ल’ ही उर्दू शायरी की सबसे ज्यादा प्रचलित और लोकप्रिय विधा है। पिछले 6 -7 दशकों से अपनी मधुर आवाज और गायकी से सहगल, बेग़म अख्तर, शांति हीरानन्द, तलत महमूद, गुलामअली, मल्लिका पुखराज, मेहदी हसन, जगजीत सिंह आदि ने उर्दू ‘ग़ज़ल’ को जन-जन तक पहुंचा दिया, यहां तक कि ‘शायरी’ और ‘ग़ज़ल’ पर्यायवाची शब्द बन गए हैं, परन्तु उर्दू शायरी में अन्य विधाएं भी हैं, जो अपने-आप में महत्वपूर्ण हैं। इनमें से सबसे अधिक प्रचलित विधा है – ‘नज़्म’।
ग़ज़ल
उर्दू शायरी को समझने तथा उसका भरपूर आनंद लेने के लिए आवश्यक है कि हम इसकी दो विधाओं ‘ग़ज़ल’ और ‘नज़्म’ को समझ लें। ग़ज़ल का एक निश्चित प्रारूप होता है, इसमें 2-2 लाईनों के कुछ शेर होते हैं। (आम तौर पर एक ग़ज़ल में 5 से 13 के बीच शेर होते हैं) पहले शेर को ‘मतला’ कहते हैं। इसकी दोनों लाईनों के आखिरी शब्द एक जैसे होते हैं, इन्हें ‘काफ़िया’ – ‘रदीफ़’ कहा जाता है। उदाहरण के लिए ‘मीर’ और ‘ग़ालिब’ की दो ग़ज़लों से ‘मतला’ पेश है।
इधर से अब्र उठकर जो गया है
हमारे हाल पर वो रो गया है – ‘मीर’
(अब्र : बादल)
इसमें ‘जो गया’, ‘रो गया’ काफ़िया है और ‘है’ रदीफ़ है।
एक और मतला देखिए :
दिले नादां मुझे हुआ क्या है
आखिर इस दर्द की दवा क्या है- ‘गालिब’
यहां भी अंतिम शब्द- ‘है’ रदीफ़ है और इससे पहले के दो शब्द ‘हुआ क्या’ काफ़िया है।
ग़ज़ल के अन्य शेरों में पहली लाईन का अंतिम शब्द कुछ भी हो सकता है, परन्तु दूसरी लाईन के अंतिम शब्द को काफ़िया – रदीफ़ निभाना होता है।
ग़ज़ल के आखिरी शेर को ‘मक़ता’ कहते हैं। शायर आमतौर पर इसमें अपना नाम या उपनाम ‘तख़ल्लुस’ डाल देते हैं। मीर और ग़ालिब का इन्हीं ग़ज़लों के ‘मक़ता’ देखिए :
सिरहाने ‘मीर’ के आहिस्ता बोलो,
अभी टुक रोते-रोते सो गया है,
या
मैंने माना कि कुछ नहीं ‘ग़ालिब’
मुफ्त हाथ आए तो बुरा क्या है।
इन ग़ज़लों पर नज़र डालने से ‘मतला’, ‘मक़ता’ और ग़ज़ल का प्रारूप स्पष्ट हो जाता है और साथ ही एक बात भी उभर कर आती है जो ग़ज़ल की बहुत बड़ी विशेषता है- ग़ज़ल का हर शेर अपने-आप में पूर्ण होता है और उसका अपना अर्थ होता है। ग़ज़ल के विभिन्न शेर ‘काफ़िया-रदीफ़’ से तो जरूर जुड़े होते हैं, परन्तु विषय में जुड़े हुए नहीं होते। हर शेर एक-दूसरे से स्वतंत्र होता है और उसे अलग से समझा जा सकता है।
ग़ज़ल की विषय वस्तु :
‘ग़ज़ल’ का शाब्दिक अर्थ होता है – महबूब से मुख़ातिब होना, इसलिए स्वाभाविक है कि ‘ग़ज़ल’ आम तौर पर हुस्न और इश्क पर या इनसे जुड़े हुए दूसरे पहलुओं पर लिखी जाती रही है। ग़ज़ल में ‘हिज्र’, ‘विसाल’, ‘वफ़ा’, ‘जफ़ा’ ‘मय’, ‘मैक़दा’, ‘वाईज़’, ‘नासेह’, ‘रक़ीब’, ‘पैगाम’, ‘करम’, ‘सितम’ आदि शब्दों की भरमार होती है।
‘ग़ज़ल’ का शाब्दिक अर्थ होता है – महबूब से मुख़ातिब होना, इसलिए स्वाभाविक है कि ‘ग़ज़ल’ आम तौर पर हुस्न और इश्क पर या इनसे जुड़े हुए दूसरे पहलुओं पर लिखी जाती रही है। ग़ज़ल में ‘हिज्र’, ‘विसाल’, ‘वफ़ा’, ‘जफ़ा’ ‘मय’, ‘मैक़दा’, ‘वाईज़’, ‘नासेह’, ‘रक़ीब’, ‘पैगाम’, ‘करम’, ‘सितम’ आदि शब्दों की भरमार होती है। शायर अतिश्योक्ति का बहुत इस्तेमाल करते हैं। ‘क़ासिद’ का पैगाम लेकर आना, न आना इनके लिए जि़ंदगी और मौत की तरह है। इन सबके साथ, उर्दू ग़ज़ल में शायरों की बेमिसाल उपमाएं कल्पना की उड़ान, शब्दों का चयन और उनकी तरतीब- ग़ज़ल को बहुत ऊंचाइयों तक ले जाती है। उर्दू की अनेक ग़ज़लों में शायरों ने अपनी नाजुक ख्य़ाली, शब्दों के खूबसूरत इस्तेमाल और उपमाओं से साहित्य की उच्चतम चोटियों को छुआ है और इन ग़ज़लों को कालजयी बना दिया है।
परन्तु अब वक्त इतनी तेजी से बदल रहा है, जि़ंदगी इतनी मशीनी और भाग-दौड़ वाली हो गई है कि अब किसी को फुरसत ही नहीं रही है कि वह ‘ग़ज़ल’ – जैसी खूबसूरत चीज़ का आनंद ले सके, सामाजिक, आर्थिक, पारिवारिक, राजनैतिक परिवर्तन हो रहे हैं। बदलते हुए ढांचे से शायर भी अछूते नहीं रह पा रहे हैं और अब ग़ज़लों में हुस्न और इश्क़ की जगह, माहौल के असंतोष और आक्रोश ने ले ली है। बानगी के तौर पर दुष्यंत कुमार की एक ग़ज़ल देखिए :
हो गई है पीर पर्वत-सी, पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
आज यह दीवार परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि, ये बुनियाद हिलनी चाहिए।
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।
हम देख सकते हें कि इस ग़ज़ल का प्रारूप ‘मतला’, ‘काफ़िया’ – रदीफ़ तो पारम्परिक है, परन्तु विषयवस्तु और शब्दावली बिल्कुल हट कर है। अब ग़ज़ल के शेर अलग-अलग अर्थ वाले होकर भी एक ही विषय-वस्तु से जुड़े रह सकते हैं।
नज़्म
नज़्म की सबसे बड़ी विशेषता जो उसकी विशिष्ट पहचान भी है, वह है उसकी ‘विषय वस्तु’। नज़्म में शुरू से आखिर तक एक ही विषय, एक ही विचार होता है। पूरी नज़्म एक खूबसूरत लड़ी की तरह होती है, जिसमें एक ही विचार पिरोया जाता है, इसलिए किन्हीं दो या चार लाईनों का अलग से कोई स्पष्ट अर्थ नहीं हो सकता।
उर्दू शायरी में ‘नज़्म’ एक बहुत प्रचलित व प्रभावी विधा है, जो महत्वपूर्ण स्थान रखती है। यह एक ‘स्वछन्द’ काव्य-विधा है। इसमें ग़ज़ल की तरह प्रारूप का कोई बंधन नहीं होता – ना ही ‘मतला’ या ‘मक़ता’ और ना ही ‘काफ़िया’, ‘रदीफ़’ का बंधन होता है।
नज़्म की सबसे बड़ी विशेषता जो उसकी विशिष्ट पहचान भी है, वह है उसकी ‘विषय वस्तु’। नज़्म में शुरू से आखिर तक एक ही विषय, एक ही विचार होता है। पूरी नज़्म एक खूबसूरत लड़ी की तरह होती है, जिसमें एक ही विचार पिरोया जाता है, इसलिए किन्हीं दो या चार लाईनों का अलग से कोई स्पष्ट अर्थ नहीं हो सकता। इस तरह ‘नज़्म’, ‘ग़ज़ल’ से बहुत अलग होती है। ग़ज़ल के हर शेर का अपना अर्थ होता है जबकि ‘नज़्म’ अपनी सम्पूर्णता में ही समझी जा सकती है। ‘ग़ज़ल’ में बड़ी से बड़ी बात, किसी भी विचार को शेर की दो लाईनों में बांध दिया जाता है। इसके विपरीत, ‘नज़्म’ में छोटी से छोटी बात को भी विस्तार दे दिया जाता है। नज़्म का विषय कुछ भी हो सकता है। आसपास होने वाली किसी भी घटना को – जिसे शायर बहुत शिद्दत से महसूस करता है वह अपने ज़ज़्बात को ‘नज़्म’ में बांध देता है, इसलिए ‘नज़्म’ का क्षेत्र बहुत विस्तृत है- राजनैतिक, सामाजिक, साम्प्रदायिकता, रूढिय़ां, भ्रूण हत्या, कोई भी कुरीति या नितांत व्यक्तिगत – नज़्म का उपयुक्त विषय हो सकता है, बहुत गहरे में, नज़्म इन पर चोट करती है और पाठकों का ध्यान इन बुराइयों की ओर खींच कर उन्हें दूर करने की कोशिश करती है।
इस प्रकार नज़्म विषय के चुनाव में और प्रारूप में तो स्वतंत्र है ही, इसके अलावा ‘नज़्म’ कितनी लंबी हो, इसका भी कोई बंधन नहीं है। बहुत छोटी भी हो सकती है और लंबी भी।
आजकल की मशीनी और भागदौड़ की जि़ंदगी में ‘ग़ज़ल’ लिखना, पढऩा अपेक्षाकृत कम होता जा रहा है। आज का माहौल नज़्म के लिए अधिक उपयुक्त है। बहुत ही उत्कृष्ट नज़्में कही लिखी जा रही हैं। हालांकि, ‘ग़ज़ल’ भी चल रही है और ख़ूब चल रही है।
यहां उदाहरण के तौर पर दो नज़्में दी जा रही हैं। एक नज़्म फैज़ अहमद फैज़ की है और दूसरी कैफी आज़मी की।
‘फैज़’ साहब ने इस बेमिसाल नज़्म में एक अत्यंत गंभीर मसला उठाया है – इन्सान की वास्तविकता क्या है। यदि उसे इसका इल्म हो जाए तो वह मानों सब कुछ पा जाता है।
मेरा दर्द नग़्मा-ए-बेसदा
मेरी ज़ात जर्रा-ए-बेनिशां
मेरे दर्द को जो जुबां मिले
मुझे अपना नाम-ओ-निशां मिले,
मेरी ज़ात का जो निशां मिले
मुझे राज़े-ए-नज़्मे – जहां मिले
मेरी ख़ामोशी को जुबां मिले
मुझे क़ायनात की सरवरी
मुझे दौलत-ए-दो जहां मिले
सांप – कैफी आज़मी
ये सांप आज जो फन उठाए
मेरे रास्ते में खड़ा है
क़दम चांद पर मैंने जिस दिन रखा
उसी दिन इसे मार डाला था मैंने
उखाड़े थे, सब दांत, कुचला था सर भी
मरोड़ी थी दुम, तोड़ दी थी कमर भी
मगर चांद से झुक के देखा जो मैंने
तो दुम इसकी हिलने लगी थी
ये कुछ रेंगने भी लगा था
ये कुछ रेंगता, कुछ घिसटता हुआ
पुराने शिवाले की जानिब चला,
जहां इसको दूध पिलाया गया।
पढ़े पंडितों ने कई मंत्र ऐसे
ये कमबख़्त फिर से जिलाया गया।
शिवाले से निकला ये फुनकारता
रगे-अजऱ् पर डंक सा मारता
बढ़ा मैं कि एक बार फिर सर कुचल दूं
इसे भारी क़दमों से अपने मसल दूं।
करीब एक वीरान मस्जिद थी
मस्जिद में ये जा छुपा
जहां इसको पिटराल से गुस्ल देकर
हसीन एक तावीज़ गर्दन में डाला गया
हुआ जितना सदियों में से इन्सां बुलंद
ये कुछ उससे ऊंचा उछाला गया।
ये हिन्दू नहीं है, मुसलमां नहीं
ये दोनों का मग्ज़ और खूं चाटता है
बने जब ये हिन्दू, मुसलमान इन्सान
उसी दिन ये कमबख़्त मर जाएगा।
कैफ़ी आज़मी की सांप को प्रतीक बनाकर साम्प्रदायिक दंगों को भड़काने वाले धर्म के ठेकेदारों पर तीखा कटाक्ष किया है। हम सभी हिन्दू-मुसलमान बनने के बजाए सच्चे इंसान बन जाएं, तभी और सिर्फ तभी इस साम्प्रदायिक ‘सांप’ को कुचल सकते हैं। कैफ़ी आज़मी की यह नज़्म मौजूदा दंगे-फसाद (धर्म-मंदिर-मस्जिद के नाम) पर करारी चोट है। इसी तरह और नज़्म-गो भी समाज में फैली कुरीतियों पर चोट करती हुई बेहतरीन नज़्में लिख रहे हैं।
रुबाई
उर्दू शायरी में रुबाई अपना एक विशेष स्थान रखती है। यह चार लाईनों की एक स्वतंत्र रचना है, जिसका अपना पूर्ण अर्थ होता है। इन चार लाईनों की रचना ‘अ, अ, ब, अ’ तरतीब से होती है। विषय कुछ भी हो सकता है-पारंपरिक ग़ज़ल वाला विषय (हुस्नो-इश्क) या किसी गंभीर मसले को छूता हुआ – कुछ भी। लगभग सभी शायरों ने ग़ज़ल और नज़्म के साथ-साथ कुछ रुबाईयां भी लिखी हैं। ‘जोश’, ‘जिगर’, ‘साहिर’, ‘फ़ैज़’, ‘शाद’, ‘अमजद’, ‘फ़रहत’ आदि शायरों ने तो बहुत ऊंचे पाए की रुबाईयां कही हैं : चन्द रुबाईयों पर नज़र डालते हैं :
मज़हब से, न ईमान से खतरा है बहुत, (अ)
दुनिया में न शैतान से ख़तरा है बहुत, (अ)
सच पूछे जो कोई मुझसे ‘फ़रहत साहेब’ (ब)
इन्सान को इन्सान से ख़तरा है बहुत (अ)
-‘फ़रहत’ कानपुरी
जितने सितम किए थे किसी ने अताब में,
वो भी मिला लिए करम-ए-बेहिसाब में
हर चीज़ पर बहार, हर इक शै पे हुस्न था,
दुनिया, जवान थी, मेरे अहदे-शबाब में
-‘सीमाब’ अकबराबादी
(अताब=क्रोध , करम-ए-बेहिसाब में – अनगिनत मेहरबानियां, अहदे-शबाब – जवानी का समय)
ग़ज़ल, ‘नज़्म’, ‘रुबाई’ के अलावा उर्दू शायरी की और भी कई विधाएं हैं जैसे ‘मसनवी’ – पद्य में कोई कहानी, आमतौर पर प्रेम-कहानी। ‘मर्सिंया’ (शोक-गीत) ‘क़सीदा’ (किसी की प्रशंसा) आदि उर्दू में चार लाईनों की और रचना (‘रुबाई’ के अतिरिक्त) भी होती है। जाते-जाते एक नज़र ‘फ़ैज’ की इन निहायत खूबसूरत चार लाईनों पर डाल लें, जिन्हें सिर्फ महसूस किया जा सकता है :
रात यूं दिल में तेरी खोई हुई याद आई,
जैसे वीराने में चुपके से बहार आ जाए,
जैसे सहराओं में हौली से चले बादे नसीम
जैसे बीमार को बेवजह क़रार आ जाए,
शायरी के ऐसे ही हीरे उर्दू शायरी को सदा बहार बनाए रखते हैं।
संपर्क – 989658734