मोहनरमणीक
(रमणीक मोहन जाट कालेज, रोहतक से अंग्रेजी साहित्य के एसोसिएट प्रोफेसर पद से सेवानिवृत हुए। साहित्यिक-सांस्कृतिक-शैक्षिक गतिविधियों से जुड़े हैं। सांझी संस्कृति, भाईचारा व अमन के लिए विभिन्न उपक्रमों के माध्यम से निरंतर सक्रिय हैं। हरकारा पत्रिका का वर्षों तक संपादन किया। ‘सप्तरंग’ नामक संस्था के माध्यम से प्रगतिशील मूल्यों को समाज में स्थापित करने के लिए संघर्षरत हैं – सं.)
अब तो मन्टो पर एक फ़िल्म भी बन चुकी है। न भी बनी होती तो हिन्दी-उर्दू साहित्य में दिलचस्पी रखने वाला शायद ही कोई व्यक्ति होगा जो सआदत हसन मन्टो के नाम से वाक़िफ़ न हो। मन्टो यानी वो, जो कहानीकार के रूप में आम तौर पर दो तरह की कहानियों के लिए मशहूर हुए – कहानियाँ जिन्हें फ़हश यानी अश्लील माना गया, और भारत-विभाजन की त्रासदी से जुड़ी रचनाएँ जिन में ‘टोबा टेक सिंह’, ‘स्याह हाशिए’ और ‘खोल दो’ ने सब से अधिक ख्याति पाई। मगर एक अदीब के तौर पर मन्टो के मूल्यांकन के लिए, समग्रता में उन्हें समझने के लिए, उन की शख़्सियत के कुछ विशेष पहलुओं और अन्य रचनाओं पर चर्चा भी ज़रूरी है।
कॉलेज में पहले साल की पढ़ाई के इम्तिहान में दो बार फ़ेल हुए, और स्कूल के आख़री साल में उर्दू के परचे में नाकाम रहे इस शख़्स का नाम अपनी अमिट छाप छोड़ने वाले बीसवीं सदी के नामी-गिरामी उर्दू लेखकों की सूची में आता है। मन्टो भरपूर और प्रचुर मात्रा में लिखने वाले साहित्यकार रहे। एक गणना के मुताबिक़ 1934 से जनवरी 1955 तक की अपनी साहित्यिक यात्रा में मन्टो ने 230 कहानियाँ लिखीं – 69 कहानियाँ 1934 से 1947, और 161, 1948 से 1955 तक। 100 से ज़्यादा रेडियो फ़ीचर और ड्रामे लिखे। साहित्य के मुद्दों पर, हमारे रोज़मर्रा जीवन पर, लेख भी लिखे। और इन के अलावा ‘गंजे फ़रिशते’ नाम के संकलन में 22 रेखा-चित्र, जो अपने ज़माने की मशहूर हस्तियों के बारे में हैं। कुछ फ़िल्मों के संवाद और स्क्रिप्ट भी लिखे।
मन्टो के व्यक्तित्व और कृतित्व में हमें एक ख़ास तरह का सामंजस्य महसूस होता है। उन के व्यक्तित्व का खुलापन, उन की दयानतदारी, सीधी बात करने का अन्दाज़ जिस के बारे में उन के जानकार हमें बताते हैं, हमें उन की रचनाओं में भी नज़र आता है। जिन दोस्तियों और घुमक्कड़ी का ज़िक्र रेखाचित्रों के संकलन ‘गंजे फ़रिश्ते’ में आता है, उन का अक्स हमें उन की कहानियों में भी एक अलग रंग में देखने को मिलता है। और सब से बढ़ कर, उन की कहानियों में हमें एक संवेदनशील मानव-प्रेमी दिखाई देता है।
मन्टो की रचनाओं में साहित्य और ज़िन्दगी एक दूसरे से अलग खड़े नहीं दिखाई देते – उन का साहित्य ज़िन्दगी का ही आईना दिखाई देता है। अपनी कहानियों के कई पात्र उन्होंने अपने आस-पास के माहौल से ही उठाए। हाँ, यह ज़रूर है कि लेखन की उन की शैली, बात कहने का उन का लहजा, चुस्त जुमलाबाज़ी, अल्फ़ाज़ के इस्तेमाल की रवानी, और हालात को ड्रामाई अन्दाज़ में पेश करने का हुनर ज़िन्दगी को साहित्य का वो रूप दे देता है कि हम सोच में पड़ जाते हैं – हम कहानी पढ़ रहे हैं या ज़िन्दगी की ही किसी घटना का जीता-जागता वृत्तांत?
मन्टो की कहानियों में विविधता है। ब्रिटिश हुकुमत के ख़िलाफ़ खड़े मुल्क की आब-ओ-हवा हमारे सामने रखती कहानियाँ हैं; समाज के हाशिए पर पड़े लोगों को हमारे लिए ज़िन्दा करती कहानियाँ भी हैं; ऐसे किरदारों के इर्द-गिर्द घूमती कहानियाँ हैं जो समाज की रवायतों और सीधे रास्तों से हट कर चलना पसन्द करते हैं, और वे कहानियाँ भी हैं जो देश के बंटवारे के हालात को हमारे सामने लाती हैं। यह सफ़र 1919 के जलियाँवाला बाग़ के हादिसे से प्रेरित पहली प्रकाशित कहानी ‘तमाशा’ से शुरू होता है। ‘1919 की एक बात’ और ‘स्वराज के लिए’ भी इसी पृष्ठभूमि के अफ़साने हैं। इन तीनों को पढ़ लें तो उस दौर का अमृतसर और उस का माहौल हमारी आँखों के सामने ज़िन्दा आ खड़ा होता है। ग़ुलाम देश की ही कहानी ‘नया क़ानून’ है, जिस में मंगू कोचवान हमारे लिए उस दौर के आम आदमी का नुमाइंदा बन जाता है जो उम्मीद लगाए बैठा है कि 1935 का नया क़ानून उस के जीवन में एक बड़ा बदलाव लाएगा। मगर कहानी के आख़िर तक आते-आते पता चलता है कि क़ानून बदलने से ही ज़िन्दगी और हालात नहीं बदल जाते – ख़ास तौर पर तब जब वह क़ानून एक साम्राज्यवादी हुकूमत ने बनाया हो। इन कहानियों में हमें मन्टो की मौजूदगी का एहसास रहता है – हालात को बयान करते और उन का जायज़ा लेते लेखक के तौर पर ही नहीं बल्कि इन हालात को किसी न किसी तरह असरअन्दाज़ करने की ललक वाले इन्सान के रूप में भी। मुल्क में जो कुछ हो रहा था, उस के प्रति उन की दिलचस्पी इन कहानियों में ज़ाहिर है।
मन्टो की कहानियों में हमें टेढ़े किरदार बार-बार देखने को मिलते हैं, जो बने-बनाए सांचों में ढलने को तैयार नहीं, जो एक अलग ही रास्ते पर चलने पर आमादा हैं। जैसे, ‘टेढ़ी लकीर’ और ‘बादशाहत का ख़ात्मा’ कहानियों के मुख्य किरदार या फिर कहानी ‘लाइसेन्स’ की नीति, जो पति की मौत के बाद तांगा चला कर अपना पेट पालती है। बेबसी में घिरे, मौजूदा सामाजिक व्यवस्था और उस के घटिया प्रतिनिधियों के ख़िलाफ़ जैसे-तैसे विरोध का स्वर उठाने को लालायित किरदार भी हैं – जैसे कहानी ‘शग़ल’ का, बारह घण्टे मज़दूरी करने वाला फ़ज़ल, जो अमीरों की अय्याशी के ख़िलाफ़ यह कहने की हिम्मत करता है कि “अगर अमीर आदमियों के यही शग़ल हैं तो हम ग़रीबों की बहु-बेटियों का अल्लाह बेली है”। या फिर कहानी ‘नारा’ में मूंगफली बेचने वाला केशोलाल जिस ने “अन्दर ही अन्दर अपने हर ज़र्रे को एक बम बना लिया था” क्योंकि वह दो महीनों का खोली का किराया न दे पाने की वजह से मालिक की मोटी गालियाँ सहने को मजबूर है। और नीति तो औरत को तांगा न चलाने देने के ख़िलाफ़ पुरज़ोर आवाज़ उठाती है – “हुज़ूर, आप मेरा तांगा-घोड़ा ज़ब्त कर लें, पर मुझे यह तो बताएँ कि औरत तांगा क्यों नहीं चला सकती…। औरतें चर्खा चला कर अपना पेट पाल सकती हैं; …। टोकरी ढो कर रोज़ी कमा सकती हैं; … कोयले चुन-चुन कर अपनी रोटी पैदा कर सकती हैं…। मैं तांगा चला कर क्यों अपना पेट नहीं भर सकती?…। आप मुझे मेहनत-मज़दूरी से क्यों रोकते हैं?” मन्टो की कई महिला किरदारों की तरह नीति भी हालात का शिकार है मगर ‘काली शलवार’ की सुलताना और ‘हतक’ की सौगन्धी की तरह विचारशील है, मोज़ेल की तरह हालात से जूझने को तैयार है।
मन्टो के पाकिस्तान जा बसने के बाद की रचनाओं में नए हालात के साथ चलते, उन पर टिप्पणी करते मन्टो हमें दिखाई देते हैं। इन रचनाओं को पढ़ कर नव-निर्मित मुल्क की उस दौर की एक तस्वीर हमारे ज़ेहन में उभरती है। इसी दौर की रचनाओं में कुछ ऐसी भी हैं जिन में उस वक़्त के भारत-पाकिस्तान सम्बन्धों का साया पड़ता महसूस होता है।
लकिन इन पर स्वतंत्र तौर से बात करने की ज़रूरत है।
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