वी.बी.अबरोल
(प्रोफेसर वी बी अबरोल राजस्थान विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त करके जाट कालेज, रोहतक में अंग्रेजी के प्राध्यापक नियुक्त हुए। महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय में चले शिक्षक आंदोलन में सक्रिय भागीदारी के कारण नौकरी गंवाई। बाद में दयाल सिंह कालेज, करनाल में अंग्रेजी के प्राध्यापक नियुक्त हुए और वहीं से सेवानिवृत हुए। हरियाणा के जन ज्ञान-विज्ञान आंदोलन में सक्रिय तौर पर हिस्सा ले रहे हैं। वी बी अबरोल का बलबीर सिंह राठी के साथ पचास वर्ष का साथ रहा। प्रस्तुत है एक आत्मीय संस्मरण – सं।)
मैं रोहतक के मशहूर ऑल इंडिया जाट हीरोज़ मेमोरियल कॉलेज में 29 जुलाई 1968 को बतौर लेक्चरर इन इंगलिश अपनी जोइनिंग रिपोर्ट देने के लिए प्रिंसिपल चौ. हुकम सिंह (बाद में कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में रजिस्ट्रार भी रहे) के कार्यालय में पहुंचा कि पीछे-पीछे एक बहुत ही खूबसूरत, चश्मा लगाए हुए 35-36 साल के व्यक्ति ने भी प्रवेश किया। उनको बैठने का इशारा करते हुए प्रिंसिपल साहिब ने मेरी जोइनिंग रिपोर्ट पर नज़र डाली और फिर उन सज्जन की तरफ देखते हुए बोले: ‘‘बलबीर सिंह, यह आपके डिपार्टमेन्ट में नए लेक्चरर आए हैं। इनको ले जाकर इनकी क्लास में इंट्रोड्यूस कर आओ।’’ सज्जन ने मुस्कराते हुए कहा, ‘‘यह तो खुद इतने छोटे लगते हैं कि मुझे आश्चर्य हुआ कि इस स्टूडेन्ट की आपके सामने कुर्सी पर बैठने की हिम्मत कैसे हुई।’’ इसके बाद मुझसे मुखातिब होते हुए बोले, ‘‘चलिए।’’
प्रिंसिपल साहिब के दफ्तर से क्लास रूम तक पहुंचने में जो दो एक मिनट का समय लगा, उसमें उन्होंने अपना परिचय दिया, ‘‘मैं बलबीर सिंह राठी हूँ। आपके ही डिपार्टमेन्ट में पढ़ाता हूँ । अस्थाना साहिब (डिपार्टमेन्ट के हैड) ने बताया था कि आपको फलानी क्लास का फलाना सेक्शन मिला है।’’ फिर उन्होंने मेरा परिचय पूछा। मैने अपना नाम बताते हुए कहा कि अभी एक महीना पहले ही राजस्थान विश्वविद्यालय जयपुर से एम.ए. किया है। इतनी देर में हम क्लास तक पहुंच गए। राठी साहिब मुझे साथ लेकर अन्दर गए तो सब विद्यार्थी उठकर खड़े हो गए। उनको बैठने के लिए कह कर उन्होंने मेरा परिचय दिया, ‘‘यह आपके नए टीचर हैं। इनकी शक्ल देख कर यह न समझ लेना कि यह हमें क्या पढ़ाएगा। इन्होंने देश के मशहूर राजस्थान विश्वविद्यालय से एम.ए. किया है। बहुत अच्छे डिबेटर रहे हैं।’’ और न जाने क्या क्या। वह तो पांच मिनट बाद चले गए पर तारीफ़ इतनी कर गए कि बाकी पीरियड़ मुझे विशेष दिक्कत नहीं हुई।
इस तरह राठी साहिब से मेरी पहली मुलाकात हुई। कुछ दिन बाद दिल्ली से किसी ग्रोवर ब्रदर्स की तरफ से एक घुमन्तू किताब बेचने वाला आया। उसके पास 19वीं और 20वीं शताब्दी के शुरूआती कुछ सालों के महानतम रूसी लेखकों की किताबों के अंग्रेजी व हिन्दी अनुवाद थे। मैंने हिन्दी, बंगाली (हिन्दी अनुवाद में) व अंग्रेजी व अमरीकन साहित्य तो कुछ पढ़ा था पर रूसी साहित्य में थोड़ा बहुत टॉलस्टाय व एक दो कहानियाँ गोर्की व चेखव के अलावा तुर्गनेव, पुश्किन, गोगोल, शोलोखोव व कुछ अन्य नाम केवल सुने थे। किताबों की छपाई, कागज, बांइडिंग भी बढ़िया थे और कीमत भी नाममात्र। मुझे 29 से 31 जुलाई का वेतन 42 रू ताज़ा ताज़ा मिला था, सो मैंने कुछ किताबें खरीद लीं। राठी साहिब ने देखा तो कहने लगे, ‘‘दिखाओ तो सही क्या लिया है।’’ किताबें उनको भी पसन्द आईं । फिर बोले, ‘‘आइन्दा लेने से पहले दिखा लिया करो। मेरे पास हुईं तो ले कर पढ़ सकते हो और नई हुईं तो मैं तुमसे लेकर पढ़ सकता हूँ।’’ कुछ रूसी साहित्य के बारे में बताया भी। इस तरह हमारी जान पहचान कुछ गहरी होने लगी पर तीन-चार महीने बाद एक दिन पता चला कि राठी साहिब तो प्रिंसिपल बन कर गोहाना जा रहे हैं। मैं आज भी अपनी तरफ़ से पहलकदमी कर कम बोलता हूँ: उस समय तो पहली बार एकदम नए लोगों के बीच आया था, इसलिए उनके जाने से कुछ अकेलापन महसूस हुआ।
जैसा क्रिकेट के खेल में होता है कि नए खिलाड़ी को फ़ॉरवर्ड शोर्ट लेग जैसी खतरनाक जगह पर फ़ील्डिंग के लिए लगा दिया जाता है, कुछ उसी तर्ज पर जाट कॉलेज में रिवाज़ था कि सबसे जूनियर आदमी को इंग्लिश लिटरेरी सोसाइटी का टीचर इनचार्ज बना दिया जाता था। उस साल वह घंटी मेरे गले बांध दी गई। फिर कहा गया कोई प्रोग्राम करो। सर्दियां आ गई थी, इसलिए एक दिन लाइब्रेरी और स्टाफ़ रूम के सामने वाले लॉन में डिक्लेमेशन कन्टेस्ट रख दिया। अध्यक्षता के लिए राठी साहिब से बेहतर कौन हो सकता था। उन्होंने इस शर्त पर निमंत्रण स्वीकार किया कि जब उनके कॉलेज में कोई कार्यक्रम होगा तो मैं भी टीम लेकर आऊंगा। और कुछ दिन बाद मुझे उनके अहसान का बदला चुकाने का मौका मिला। मैंने दो लड़कों को चुनकर भाषण लिखाए, उनको कहा कि अच्छी तरह से याद कर लो। बोलने का कुछ अभ्यास करवाया और फिर निश्चित दिन उन्हें गोहाना ले गया। उनमें से एक जे.पी. चौधरी तो स्पोर्ट्स स्कूल, राई का पढ़ा हुआ था, अंग्रेजी भाषा का कुछ अभ्यास था, सो ठीक-ठाक बोल गया पर दूसरा अनूप बास्केटबॉल का खिलाड़ी था, भाषण-वाषण का उसका पहला ही मौका था। फिर गोहाना कॉलेज में पहली बार इतना बड़ा कार्यक्रम हो रहा था। आसपास देहात से भी बहुत लोग आए हुए थे। इतनी भीड़ देखकर अनूप नर्वस हो गया और एक-आध मिनट बाद सब भूल गया। वह अंग्रेजी छोड़ हिन्दी में बोलने लगा: साहेबान, अब मैं आपको एक कहानी सुनाता हूँ। एक जंगल में एक शेर था जो दूसरे जानवरों को बहुत तंग करता था और मार कर खा जाता था। एक दिन जानवरों ने मीटिंग कर तय किया कि हम बारी बारी एक शिकार उसके पास रोज भेज दिया करेंगे पर वह हमें तंग न करे। शेर तक यह सन्देश पहुंचाने की डयूटी ‘गादड़े’ की लगी। ‘गादड़ा’ डरता डरता शेर के पास गया। शेर ने पूछा: बोल ‘गादड़े’ क्या कहने आया था? ‘गादड़े’ ने कांपते हुए जवाब दिया: जनाब, कहने तो बहुत कुछ आया था पर आपको देखकर सब कुछ भूल गया। सो साहेबान, भाषण तो मैं पूरा याद करके आया था पर आपके सामने सब भूल गया।
इतना कह कर अनूप तो बैठ गया पर श्रोता कई मिनट तक हंसते और तालियां बजाते रहे: गांव का किसान का छोरा स्टेज पर इतनी बात बोल गया। कार्यक्रम के बाद चाय के समय मैंने राठी साहिब से माफ़ी मांगी कि हम कुछ अच्छा नहीं कर पाए। इस पर उन्होंने अनूप की पीठ थपथपाते हुए कहा: अच्छा नहीं कर पाए? अरे भई, यह नहीं होता तो गांवों से आए चौधरी साहेबान क्या इतनी शान्ति से अंग्रेजी की भाषण प्रतियोगिता में बैठते? इस लड़के ने तो हमारा कार्यक्रम इतना कामयाब करवा दिया।
इसके बाद तो हर दो-चार महीने बाद गोहाना के चक्कर लगने लगे। चलो, राठी साहब के पास चलते हैं मातू राम की जलेबी खाने। मातू राम की जलेबी को जितना मशहूर राठी साहब ने किया, आज के ज़माने में तो इस प्रमोशन के लिए अच्छी खासी फ़ीस वसूल की जा सकती है।
एक बार जाट कॉलेज में दो-तीन दिन का बड़ा सांस्कृतिक कार्यक्रम रखा गया। संगीत प्रतियोगिता के लिए निर्णायक मण्डल में एक तो राठी साहब के नाम का सुझाव आया। निर्णायक मण्डल के एक और सदस्य थे मशहूर ऑर्थोपीडिक सर्जन डा. पी.एस. मैनी जो उस समय रोहतक मेडिकल कॉलेज में सीनियर प्रोफ़ेसर थे जिनके हीर गायन की दूर दूर तक धूम थी। प्रतियोगिता से पहले मैं जब मेहमानों का आपस में परिचय करवा रहा था तो बलबीर सिंह राठी नाम सुनते ही डा. मैनी चौंक कर बोले: आप क़तरा-क़तरा वाले बलबीर राठी हैं? भाई साहब ने शरमाते हुए जवाब दिया: जी। डा. मैनी एकदम उनसे लिपट कर कहने लगे: मैंने नहीं सोचा था कि रोहतक जैसी जगह इस पाए का शायर होगा। डाक्टर साहिब तो खैर उनसे पहली बार मिल रहे थे पर मैं जो पता नहीं कब राठी साहिब के बजाय उनको भाई साहिब कहने लगा था, भी हैरान रह गया कि वह हरियाणा के अजीम तरीम शायर भी हैं।
आबिद आलमी साहिब (प्रो. रामनाथ चसवाल) ने जो उनकी मित्र मण्डली के एक खास सदस्य थे, भी कभी उनके व्यक्तित्व की इस खूबी का जिक्र नहीं किया था। मैं तो यही सोचता था कि दोनों की दोस्ती अंग्रेजी साहित्य का प्रोफ़ेसर होने और तरक्कीपसन्द ख्यालों की वजह से है। यह उनकी विनम्रता ही थी कि जिस शख़्स के साथ भाई साहिब जैसा रिश्ता जोड़ने की घनिष्ठता थी, उसके व्यक्तित्व के इतने महत्वपूर्ण पहलू से मैं अब तक अनजान था। चलते चलते जिक्र कर दूं कि डा. मैनी ने जिस क़तरा-क़तरा का जिक्र किया, उसके लिए उस साल हरियाणा उर्दू अकादमी ने भाई साहिब को सम्मानित किया था।
विनम्रता के साथ-साथ भाई साहिब की साफ़गोई भी काबिले तारीफ़ थी। कई लोगों को अपने शायर/कवि होने की गलतफ़हमी हो जाती है और वह सीखने के बजाय अपनी डींगें हांकने लगते हैं। मैंने देखा है कि लिहाज़ के मारे बड़े शायर/कवि भी उनकी कमज़ोरी बताने के बजाय तारीफ़ करके पीछा छुड़ा लेते हैं। पर भाई साहिब पूरी बेमुरव्वती के साथ उनको उनकी औकात का अहसास करवा देते थे। समझाते भी कि भैया, नारेबाजी शायरी नहीं होती। आप जो कहना चाहते हैं, उसके लिए कलात्मकता बहुत ज़रूरी है। खास बात यह कि जो लोग उनको अच्छी तरह जानते थे, वह उनकी बिना लाग-लपेट की आलोचना को बेशकीमती सलाह मानकर सिर-माथे लेते थे। यहां कोई नाम न लिए जाएं तो ही बेहतर।
भाई साहिब ग़ज़ब के मज़ाकिया भी थे। यह भी उनकी मज़ाकपसन्द तबीयत का हिस्सा था कि कम-से-कम अपने दोस्तों के सामने भाभी जी को वह नाम से सम्बोधित करने के बजाय ‘विक्टोरिया’ कह कर बुलाते और उस समय उनके चेहरे पर शरारत भरी मुस्कान बिखरी होती। उनकी वह मुस्कान और चश्मे के मोटे शीशों के पीछे से भी हंसती हुई आंखें इस समय मेरी आंखों को धुंधला किए दे रही हैं।
मैं आठ भाई-बहनों में सबसे छोटा घर में सबका लाडला था। कॉलेज में गया तो मेरा बड़ा भाई मेरे से पहले ही वहां था। मैं सब सीनियर्स का छोटा भाई बन गया। रोहतक आया तो वहां भी बलबीर (राठी) भाई साहिब, राम मेहर (राठी) भाई साहिब, हरिचन्द (हुड्डा) भाई साहब, (बलबीर) मलिक साहिब, चसवाल (आबिद आलमी) साहिब, विवेक (शर्मा) भाई साहिब बड़ी लम्बी फेहरिस्त है। लिखते लिखते ख़याल आया कि मियां, कहां सबका लाडला बने घूमते थे, 72-73 साल के तो तुम भी हो लिए। अब अपनी उम्र के मुताबिक बोरिया-बिस्तर संभालने की तैयारी करो। लाड-प्यार के लिए आधी सदी कम नहीं होती। तुम्हें तो उससे भी ज्यादा ही मिल गया।
लिखने के बाद देस हरियाणा के पिछले अंक के पन्ने पलट रहा था कि ध्यान गया कि सुभाष ने सम्पादकीय की शुरूआत राठी साहब की दो पंक्तिओं से की है। कैसा अजीब संयोग।
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