ये सफर है तीरगी से रोशनी तक दोस्तो!

 बलबीर राठी

(16 अक्तूबर 2018 को बलबीर सिंह राठी का देहावसान हो गया। बलबीर सिंह राठी का जन्म अप्रैल 1933 में रोहतक जिले के लाखन माजरा गांव में हुआ था। अंग्रेजी साहित्य की उच्च शिक्षा प्राप्त की। वे रोहतक के जाट कालेज में अंग्रेजी के प्राध्यापक रहे। हरियाणा के विभिन्न राजकीय महाविद्यालयों में लंबे समय तक प्राचार्य रहे। हरियाणा की साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों में निरंतर रुचि लेते रहे। राठी साहब उच्च कोटि के शायर थे। देस हरियाणा की तरफ से विनम्र श्रद्धांजलि। पाठकों के लिए प्रस्तुत है उनकी रचना-यात्रा की एक झलक  – सं।)

मैं अपनी ही रचनाओं की भूमिका लिखने के पक्ष में नहीं हूं।  इससे अपनी रचनाओं के अधूरेपन का अहसास होता है, जिसे दूसरे तरीकों से पूरा करने के लिए भूमिका लिखी जाए और उसके बहाने उन रचनाओं की हल्की-फुल्की व्याख्या कर दी जाए और उनके अर्थ स्पष्ट करने का प्रयास किया जाए।  इससे यह संकेत मिलता है कि रचनाकार अपनी रचनाओं में अपने विचार व्यक्त करने में असफल रहा।  बहुत से रचनाकार भूमिका के बहाने कुछ और बात कहते हैं।  मैं भी इसलिए लिख रहा हूं कि मुझे रचनाओं को प्रकाशित करवाने की आवश्यकता क्यों पड़ी।

दरअसल, जब मैं स्कूल में पढ़ता था तो हिन्दी में कविताएं और कहानियां भी लिखता था।  मैंने तो छुट्टियों में एक उपन्यास भी लिख डाला था, जो बाद में मुंशी प्रेमचंद के उपन्यास का चर्बा निकला, यहां तक कि पात्रों के नाम भी चक्रधर, गंगाधर इत्यादि रखे थे, हरियाणा में ऐसे नाम नहीं रखे जाते। उन दिनों की एक कविता की दो पंक्तियां आज भी याद हैं-

मुझे अपनाने दो संसार,

भले हों संकट गले का हार।

दसवीं कक्षा पास करने के बाद मैंने जीएमएन कालेज, अम्बाला छावनी में दाखिला ले लिया। इस कालेज में मेरे साथ दो छोटी-छोटी घटनाएं घटी कि मैं हिन्दी में कविताएं लिखना छोड़ कर उर्दू में ग़ज़लें, नज़्में लिखने लगा। हमारे कालेज के प्राचार्य श्री जसवंत राय लंबे, सुंदर और अत्यंत आकर्षक व्यक्तित्व के धनी थे। एक बार लड़कों ने हड़ताल कर दी और नारे लगाने लगे। उन्होंने सब छात्र-छात्राओं को एक जगह बिठा दिया और कालेज-स्टाफ की छुट्टी कर दी। फिर उन्होंने हमें दो नज़्में सुनाईं, पहली फ़ैज अहमद फ़ैज की- ‘मुझ से पहली सी मुहब्बत मिरी महबूब न मांग’, दूसरी साहिर लधियानवी की ‘कभी-कभी’, दोनों नज़्में सुना कर उन्होंने हमें हमारी भी छुट्टी कर दी और हड़ताल टूट गई। उनका नज़्में सुनाने का अंदाज इतना मनमोहक था कि मैं बयान नहीं कर सकता। मैंने इतने प्रभावी अंदाज में कभी कोई रचना नहीं सुनी। बहुत बाद में मैंने साहिर लुधियानवी की जबानी उनकी नज़्म ‘कभी-कभी’ और फ़ैज अहमद फ़ैज  की जबानी उनकी नज़्म, ‘मुझसे पहली सी मुहब्बत मिरी महबूब मांग’ भी सुनी, लेकिन उनके अंदाज में वो जादू नहीं था जो प्रिंसीपल जसवंत राय के अंदाज में था। मैंने मेरे पास बैठे साथी से उन नज़्मों के बारे पूछा। उसने उन शायरों के साथ उन पुस्तकों के भी नाम बता दिए, जिनमें वे मिल सकती थी। मैं कालेज में सीधा उर्दू की किताबों की उस दुकान पर पहुंचा, जिसमें उर्दू की किताबें किराये पर भी मिलती थी और मोल भी। लेकिन मैंने दोनों किताबें ख़रीद ली और रात-भर पढ़ता रहा और कई नज़्में जबानी याद भी कर ली। उसके बाद तो मैंने फ़िराक गोरखपुरी, मजाज़ लखनवी इत्यादि बहुत से प्रगतिशील शायरों के कलाम पढ़ डाले। इनके पढ़ने से मेरी जनवादी सोच में भी निखार आया और उर्दू शायरी से मेरा लगाव बढ़ गया। दूसरी घटना भी उसी दिन से संबंधित है। जिस साथी ने मुझे उन पुस्तकों के नाम बताए थे, उसने दो-तीन दिन पश्चात् मुझसे पूछा कि मैंने वो किताबें पढ़ी? कैसी लगी? ‘बहुत ही अच्छी लगी’ मैंने जवाब दिया। इसके बाद हम दोनों में घनिष्ठता बढ़ गई। एक दिन प्रयोगशाला से निकलते हुए उसने कहा, मैं भी नज़्में-ग़ज़लें कहता हूं, सुनोगे? फिर उसने अपनी नज़्म सुनाई और दो ग़ज़लें। अच्छी लगीं। वो ज़ार अम्बालवी से इसलाह करवाता था। उसने मुझे बताया कि उसके उस्ताद ने इनको ठीक कर रखा है। मैंने कहा ऐसी ग़ज़लें तो मैं भी लिख सकता हूं। उसने मुझे थोड़ा डराया कि ग़ज़लें लिखना इतना आसान नहीं है। मैंने रात में बैठकर मज़ाक-मज़ाक में 25-25 शे’अरों की दो ग़ज़लें कह डाली। अगले दिन उसे दिखाई। उसने वे ग़ज़लें मुझसे ले ली और शायद अपने उस्ताद को भी दिखाई हों, क्योंकि अगले दिन उसने कहा कि उस्ताद जी बुला रहे हैं, चलो उनको तुम्हारी ग़ज़लें दिखा दें। मैंने कह दिया कि मैंने कोई उस्ताद नहीं बनाना। ये उस्ताद लोग हमें अपने विचार व्यक्त नहीं करने देंगे, बल्कि अपने विचार थोप देंगे। मैंने शायरी केवल शायरी के लिए नहीं करनी, सामाजिक सरोकारों के लिए करनी है। ये बात तो यहीं खत्म हो गई, परन्तु इन दो छोटी-छोटी बातों ने मुझे हिन्दी-कविता से निकाल कर उर्दू-शायरी में ला खड़ा किया। मैंने उर्दू में शायरी करना शुरू कर दिया। कहानियां तो हिन्दी में लिखता रहा, परन्तु शायरी उर्दू में। उर्दू-लिपि में मुझे लिखने में सुविधा भी होती थी।

दो साल बाद मैंने राजकीय महाविद्यालय, रोपड़ में दाखिला ले लिया। तब मुझे ग़ज़लें-नज़्में कहने के साथ सुनाने का भी शौक़ था। प्राणी-विज्ञान के थोड़े ही विद्यार्थी होते थे। जल्दी ही घुल-मिल गए। हम सब होस्टल में रहते थे, इसलिए शाम को सैर करने के बाद सतलुज के किनारे लगभग रोज़ ही एक छोटी-सी महफ़िल जम जाती, जिसमें एक-दो गाने वाले थे, वे गाने सुनाते, अंत में एक परिपक्व कवि की तरह मैं ग़ज़लें-नज़्में सुनाता और मुझसे भी और साहित्य से अनजान साथी वाह-वाह करते। रोपड़ कालेज में प्रो. अमीर चन्द बहार हमें अंग्रेजी पढ़ाते थे। बहार साहिब बड़े सुलझे हुए शायर थे और बहुत ही प्रसिद्ध शायर जनाब तलोक चन्द महरूम के शागिर्द थे। उन्होंने अंग्रेजी की कईं प्रसिद्ध कविताओं का मज़नूम (पद्य) अनुवाद कर रखा था। एक दिन हम उनके कमरे में ही उनसे वह अनुवाद सुन रहे थे कि मेरे एक साथी ने कह दिया कि राठी भी उर्दू का बहुत अच्छा शायर है, वो बड़े खुश हुए और मुझसे मेरी कई रचनाएं सुनीं, जब हम चलने लगे तो मुझे उन्होंने रोक लिया और पूछा तुम्हारा उस्ताद कौन है? मैंने कहा, ‘कोई नहीं! और बनाना भी नहीं, सर’ ‘कोई बात नहीं’ मैं अरूज़ियात की दो किताबें लिख देता हूं। हमारे कालेज के पुस्तकालय में मिल जाएंगी, उन्हें पढ़ो, मुझे खुशी है कि एक विज्ञान का होनहार छात्र उर्दू शायरी में इतनी रूचि लेता है। मुझे उम्मीद है कि तुम एक दिन बड़े शायर बनोगे।’ मैंने वे दोनों पुस्तकें लेकर पढ़ीं। मुझे पहली बार ये अहसास हुआ कि उर्दू कविता संगीत का टुकड़ा या भावनाओं की अभिव्यक्ति ही नहीं, गणित का सवाल भी है। अगर मुझे उर्दू शायरी से इतना लगाव न होता तो मैं वे पुस्तकें पढ़ना छोड़ देता और प्राणी-शास्त्र और वनस्पति-शास्त्र को और लग्न से पढ़ता, लेकिन मैं शायर भी बनना चाहता था और ये ज़िद्द भी निभानी थी कि कोई उस्ताद नहीं बनाना। मैंने वे पुस्तकें दिल लगाकर पढ़ीं और उनमें से जो आसान छनद थे, उनको जबानी याद किया और पहली छन्दबद्ध ग़ज़ल कही। उसके कुछ शे’अर नीचे लिखे हैं-

दुश्मनी तुम ने की दुश्मनी की तरह

दोस्ती भी करो दोस्ती की तरह

आज भी धड़कनें तुम से मानूस हैं

यूं न देखो मुझे अजनबी की तरह

आदमी कब मिले सिर्फ चेहरे मिले

काश, मिलता कोई आदमी की तरह

मैंने बहार साहब को जब ग़ज़ल सुनाई तो बहुत खुश हुए। परन्तु उन्होंने एक शब्द ‘ज़हर’ के ठीक उच्चारण के बारे में भी बताया कि इसका ‘ह’ हलन्त होता है। मैंने इतनी लंबी बातचीत ये स्पष्ट करने के लिए करनी पड़ी कि मैं ग़ज़लें-नज़्में तो कहता रहा, परन्तु उन्हें छोटी-मोटी गोष्ठियों के सिवा सुनाने से कतराने लगे। धीरे-धीरे एक स्थायी झिझक मेरी आदत बन गई। उर्दू ग़ज़लों-नज़्मों के संदर्भ में मेरा आत्मविश्वास कम हो गया है। हम हरियाणा के लोगों का उर्दू के कुछ शब्दों का उच्चारण दोषपूर्ण होता है। मैंने पुस्तकों में पढ़कर, ध्यान से शायरी सुनकर सब त्रुटियों को दूर करने का भरसक प्रयत्न किया और मेरी नज़्में, ग़ज़लें इस कदर निखर गई कि उनकी प्रसिद्धि के लिए मेरी उदासीनता बनी रही। आज भी बनी हुई है यद्यपि रचनाओं पर मुझे अब पूर्ण विश्वास है कि वे पूरी तरह त्रुटिरहित हैं।

मैंने अपने भाषणों में कभी अपनी एक भी पंक्ति उद्धृत नहीं की, किसी सभा में, किसी समूह में ये डींग नहीं मारी कि मैं कोई साहित्यकार या शायर हूं। किस समाचार पत्र या साहित्यिक पत्रिकाओं में कोई रचना नहीं भेजी। मुझे सिवाए मेरे कुछ साथियों के किसी को ये गुमान भी नहीं था कि मैं शायरी भी करता हूं। मुझे मेरे इस खेल से मेरे एक प्रशंसक मित्र, डा. हरिवंश अनेजा ‘जमाल कायमी’ ने निकाला। उन्हें शायद मेरा कलाम इतना पसंद आया और उसे इतनी उच्चकोटि का समझा कि मुझे और मेरे कलाम को प्रसिद्धि दिलाने का बीड़ा भी उठा लिया। सबसे पहले उन्होंने मेरी नज़्में-ग़ज़लें रोहतक शहर की साप्ताहिक और मासिक पत्रिकाओं में प्रकाशनार्थ भेजीं। फिर किसी जगह शहर में कोई गोष्ठी होती, उसमें मुझे अपनी साइकिल पर बिठा कर ले जाते। उन दिनों मैं जाट कालेज, रोहतक में पढ़ाता था। मुझे याद है रोहतक में आकर मैं जिस पहली गोष्ठी में शामिल हुआ, उसमें कश्मीरी लाल ज़ाकिर, आक़िल लाहोरी, जमाल क़ायमी के इलावा रोहतक के कुछ हिन्दी-उर्दू-पंजाबी कविगण उपस्थित थे। वहां मेरी ग़जल को सराहा गया। फिर उन्होंने पत्रकारों को एक कवि-सम्मेलन के लिए मनाया, जिसमें मुझे-ख़सूसी के तौर पर बुलाया गया। रोहतक में मेरी प्रसिद्धि के लिए उन्होंने अपने और मेरे कलाम की चयनित रचनाओं की एक पुस्तक ‘जज़्बात’ के नाम से प्रकाशित करवाई, जिसमें मेरे परिचय में जनाब बिसमिल सईदी की तरज़ पर एक शे‘अर भी लिख दिया-

जनाब बिसमिल सईदी का शे‘अर-

यहां कौन दिल्ली में शायर हैं ‘बिसमिल’

जगन्नाथ आजाद है और मैं हूं।

जनाब जमाल क़ायमी-

दो ही तो शायर हैं रोहतक में ‘जमाल’

हजरते बलबीर राठी और मैं।

(जमाल साहब का कहना है कि उन्होंने जनाब बिसमिल सईदी का शे’अर नहीं पढ़ा था)

इस पुस्तक के प्रकाश में आने से मेरा नाम रोहतक में एक शायर के नाते लिया जाने लगा। डॉ. जमाल क़ायमी को दिल्ली में एक हायर सैकेण्डरी स्कूल में संस्कृत के लैक्चरर की ज़गह मिल गई। हमारी रोजाना की मुलाक़ातें सप्ताह के अंत में होने लगी। वहां भी उन्होंने अपना मिशन जारी रखा। मेरी ग़ज़लें भिन्न-भिन्न उर्दू रसालों में प्रकाशित होने लगी। मुझे तब पता चलता जब वह रिसाला मेरे पते पर मुझे मिलता। मेरे एक मित्र राजेन्द्र ‘बानी’ दिल्ली से एक माहनामा ‘तलाश’ दत्त-भारती के साथ निकालते थे। उनका हुक्म था कि जब मैं उनके पास उनसे मिलने जाऊं, तो अपनी ग़ज़लों की डायरी लेता आऊं। ‘बानी’ साहब का ज़दीद उर्दू शायरी में बड़ा नाम था। डॉ. गोपी चन्द नारंग उनके प्रशंसकों में से थे। उनके माहनामा में ग़ज़ल का छपना स्वयं में एक सनद थी। बानी साहब के साथियों में मखमूर सईदी, राजनारायण राज़, अमीक़ हनफी, सलाम मछली सहरी थे। वो अपनी गोष्ठियों में मुझे बुला लेते थे, परन्तु मेरी जनवादी सोच से उन साथियों की सोच मेल तो नहीं खाती थी, लेकिन उनकी वजह से मेरे कलाम की तारीफ़ करते थे। उधर जमाल साहब के शायर दोस्तों का भी एक समूह था, वो जिस भी कवि-सम्मेलन में जाते, तो उनके साथ मेरा होना अनिवार्य हो गया था। जनाब नरेश कुमार ‘शाद’ से उन्हीं लोगों के जरिये गहरे रिश्ते जुड़ गये। जमाल साहब ने मेरी ग़ज़लें रेडियो ‘सीलोन’ भेजनी आरंभ कर दी। एक दिन मैं कालेज में पहुंचा तो साथी प्राध्यापकों ने घेर लिया बधाई तो दी ही, मिठाई खिलाने की जिद्द भी की। उन्होंने बताया कि मेरी ग़ज़ल सीलोन रेडियो से प्रसारित हुई थी। दूसरों से भी मुझे बड़ा शायर मनवाने की उनकी जिद्द भी अजीब थी। एक बार मुरादनगर मुशायरे में हम सब गए। ये सीधे आयोजकों के पास पहुंचे और उन्हें इस बात की बधाई दी कि एक महान उर्दू शायर बलबीर राठी मुशायरे में शामिल हो रहे हैं। उनकी इज़्जत अफ़जाई की जानी चाहिए। उन्होंने मुझे सदरे मुशायरा बना दिया। मुझे इस तरह के अदब-क़ायदे नहीं आते थे। उन लोगों से ही पूछ कर किसी तरह अपनी इज्जत बचाई। जमाल साहब की की कोशिशों से मेरा उर्दू-जगत् में एक मुकाम हो गया। प्रो. रामनाथ चसवाल आबिद आलमी, बिमल कृष्ण अश्क, डॉ. कुंदन अरावली जब रोहतक आए तो सबसे पहले मुझसे ही मिले और रोहतक में शायरों का एक खासा बड़ा हलका बन गया, जिसमें आबिद आलमी, कुंदन अरावली, बिमल कृष्ण अश्क, वेद असर, पूर्ण कुमार होश और कभी-कभार जमाल क़ायमी भी इस हलके में आ शामिल होते थे। इसी दौरान मेरी पहली किताब ‘क़तरा-क़तरा’ पर हरियाणा के भाषा-विभाग ने पहला ईनाम दे दिया। एक तरह के उर्दू-साहित्य की गहमा-गहमी का दौर रहा। फिर अलग-अलग कारणों से ये हलका बिखर गया और मैं फिर अपने खोल में दुबक गया। सरकारी कवि-सम्मेलनों में भाग लेने के अतिरिक्त सारी साहित्यिक गतिविधियां लगभग थम गईं। हां कभी-कभार मैं और आबिद आलमी लंबी बैठकें अवश्य कर लेते थे।

धीरे-धीरे उर्दू जानने वालों की संख्या में निरन्तर कमी होने लगी और ’उर्दू-अकादमी’ बनने के बावजूद मुशायरे आयोजित करना कम से कम सिर्फ हरियाणा के शायरों के साथ कठिन हो गया। जो श्रोतागण जुड़ते थे वे फ़ारसीनुमा उर्दू नहीं समझते थें। मुझे फ़ारसी नहीं आती थी इसलिए मेरी रचनाएं उनकी समझ में आ जाती थी। परन्तु मुशायरे और गोष्ठियों के एक-आध शहर में केंद्र रह गए। इसलिए मेरी ख़ामोशी लंबी होती चली गई। 1992-93 में मेरी पुस्तक ‘लहर-लहर’ (ग़ज़ल संग्रह) को उर्दू अकादमी हरियाणा ने प्रथम पुरस्कार प्रदान कर दिया, परन्तु किसी ने ध्यान नहीं दिया। लोगों को उर्दू से कोई लगाव नहीं रहा, इसलिए इस जबान का महत्व नहीं रह गया। हम कुछ लोगों ने मिलकर 1981 में ‘जनवादी लेखक संघ’ हरियाणा की स्थापना की तो इसकी गतिविधियों से लोग जुड़ने लगे और उसके वार्षिक आयोजन काफ़ी आकर्षक होने लगे। फिर कई जगह ‘जिला जनवादी लेखक संघ’ स्थापित हुए। हमने जींद जिला में ‘जनवादी लेखक संघ’ की इकाई स्थापित कर दी। हिन्दी ग़ज़ल का चलन बढ़ने लगा और ‘जनवादी लेखक संघ’ के कवि-सम्मेलनों में हिन्दी ग़ज़ल ही अधिकतर सुनने को मिलती। मुझे ये महसूस होने लगा कि मेरी ग़ज़लों के प्रशंसकों की संख्या बढ़ने लगी है। बहुत से युवा लेखक जब मुझसे मेरी ग़ज़ल मांगते तो लिपि की समस्या खड़ी हो जाती। जनाब महावीर सिंह ‘दुखी’ मेरे कुछ ज्यादा ही प्रशंसक हैं। उन्होंने डरते-डरते से मुझसे कहा कि ‘आप की रचनाएं तो बहुत ही अच्छी हैं, परन्तु उर्दू जानने वाले तो नाम-भर को हैं। यदि आप मुझे आज्ञा दें तो आप की रचनाओं को देवनागरी लिपि में रूपांतरित करने का गौरव प्राप्त कर लूं?’ उसके बाद इस काम के लिए कुछ इतनी लगन से जुटे कि मेरी आधी रचनाओं को देवनागरी में रूपांतरित कर दिया है। मुझे लगता है कि जमाल साहब के बाद ‘दुखी’ साहब ने मेरी रचनाओं के प्रचार-प्रसार का बीड़ा उठा लिया है। परन्तु मुझे मेरे ख़ौल से पूरी तरह निकालने में डॉ. सुभाष चन्द्र, रीडर, हिन्दी विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय और डॉ. ओम प्रकाश करुणेश का सबसे अधिक योगदान है। दोनों हिन्दी साहित्य के बहुत बड़े विद्वान हैं और मैं उनके प्रशंसकों में से हूं। उन्होंने कहा कि ‘लोगों से अपनी रचनाओं को छुपाए रखने से आप साहित्य की क्या सेवा कर रहे हैं?’ अपनी रचनाओं को प्रकाश में आने दीजिए, इन्हें पाठकों तक पहुंचाइये। मैं भी शिद्दत से महसूस कर रहा हूं कि मुझे अपनी रचनाओं को अपने प्रशंसकों से और अपने बच्चों से छुपा कर रखने का कोई हक नहीं। यूं भी मेरी रचनाओं को श्रोताओं से अधिक पाठकों की आवश्यकता है।

 

(बलबीर सिंह राठी की चुनिंदा ग़ज़लें व नज़्में की भूमिका से)

 

 

 

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