निंदर घुगियाणवी
(निंदर घुगियाणवी पंजाबी के लेखक हैं। ‘जब मैं जज का अर्दली था’ घुगियाणवी का आत्मवृत साहित्य की दुनिया में खूब मकबूल हुआ। इसमें घुगियाणवी ने भारतीय न्याय-व्यवस्था के बहुत से अनछुए पहलुओं को उदघाटित किया था। इसके बाद ‘काले कोट का दर्द’ व अनेक रचनाएं प्रकाश में आई। घुगियाणवी पंजाबी लोक गायक जमला जट्ट के शागिर्द हैं। उनसे उन्होंने लोक वाद्य यंत्र तुंबी बजाना व गाना सीखा। वर्तमान में वे पंजाब कला परिषद के प्रबन्धकीय अधिकारी हैं – सं।)
सारे हस्पतालों में से यही जवाब मिला था कि अब घर ले जा कर सेवा करो इनकी, बस भगवान भरोसे हैं आपके पिता जी। और कोई ज़ोर न चलता देख घर ला पाये। हम घर के सदस्यों को अच्छी तरह से पता चल चुका था कि पिता जी अब ठीक नहीं हो पायेंगे। नामुराद बिमारी कैंसर की कहां जीने देती है आदमी को? अंदर ही अंदर यहीं गम खाते हुए, उतरे हुए चेहरे लेकर घूम रहे थे और घर का कोई सदस्य आपस में बात भी न कर रहा था। बच्चे अलग सहमे-सहमे से रहने लगे थे। स्कूल जाते दिल न लगाते और जल्दी घर आ जाते। हमारी मां को पूछते कि दादी हमारे दादा कब ठीक होंगे? होंगे कि नहीं ठीक, बता दो दादी? मां बच्चों से अपने आंसू छुपा लेती और बाबा नानक की फोटो की ओर हाथ जोड़ कर कहती बाबा जी के आगे अरदास करो पुत्तर, आपके दादा ठीक हो जायेंगे…।“
चंडीगढ़ मेरी बड़ी बूआ सीता राणी मिलने आई। पलंग पर निढ़ाल पड़े अपने छोटे भाई, (जिसको वह उठा-उठा कर खेलाया करती थी और अपने हाथों से पाला-पोसा था) की ओर देख कर बोली, “ओए बिल्लू, उठ पलंग से, तुझे अच्छे-भले को क्या हो गया बे? उठ पलंग से शेर बन…।“ पिता जी उठ तो न सके, अपनी बहन की ओर देखते उनके आंसू निकल पड़े। बहन ने अपने हाथों से अपने भाई के आंसू पोंछे। थोड़ी देर बाद बूआ इधर-उधर हो गयी तो मैं पिता जी के पास बैठ गया। बोलते-बोलते मैं तल्ख़ हो गया, “पापा, तुम्हें बूआ के सामने रोने की क्या जरूरत थी? वह समझती होगी, कि कहीं मेरे भाई की सेवा संभाल नहीं करते…तभी रोता होगा यह भाई।” पिता जी कुछ ना बोले। मेरी ओर देखते रहे और उसी पल ही उनके आंसू फिर बह पड़े। मैं कुछ भी बोल न सका। दो शब्द जैसे पैर जमा कर एक ही जगह रूक गये हों। शब्दों की चुप्पी सारी परिस्थिति को स्वयं ब्यान कर जाती थी। पिता के पास से उठ कर अपने चौबारे की ओर चढ़ गया तां कि कई दिनों से भरा हुआ मन अच्छे से हल्का तो कर लूं।
मनुष्य के जीवन में बहुत बार ऐसे पल आते रहते हैं जब सिर्फ़ और सिर्फ़ खामोशी ही साथ देती है। शब्द रूठ कर कहीं दूर चले जाते हैं। तब आदमी करे तो क्या करे! ऐसे निराशामय समय में मैं खुद को अनेकों सवाल करता रहता पर जवाब किसी सवाल का ना दे सकता था। अजीब तरह के पल थे। ऐसे संकटग्रस्त पलों को भूल जाना अपने आप को भूल जाने के बराबर होता है क्योंकि खुशी के पल तो मनुष्य के जीवन में हर पल ही डुबकी लगाते रहते हैं! बाकी हर छोटी से छोटी और बड़ी बात को शिद्दत के साथ अहसास करने की होती है, कोई करता है, कोई नहीं करता है। जीवन की तल्ख़ हकीकतों ने मुझे अपने पलों के बारे में ऐसा सोचने के लिये मज़बूर कर दिया है।
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