भूल गई रंग चाव, ए भूल गई जकड़ी – राजेंद्र सिंह

राजेन्द्र सिंह

आज के इस युग में जब स्वयं हाशिए पर चले गए हिन्दी साहित्य में भी प्रकाशन का अर्थ सिर्फ  कहानियों, कविताओं या कुछ हद तक उपन्यास के प्रकाशन तक सिमट कर रहा गया है, तथा शोध के नाम पर ठेके पर तैयार करवाए गए ऐसे शोध प्रबन्धों के जुगाडी प्रकाशनों की भरमार है जिसको शायद शोधकर्ता ने स्वयं भी पूरा पढा नहीं होता, ऐसे में किसी ऐसी पुस्तक का प्रकाशन होना जिसके हर पृष्ठ से मेहनत, ईमानदारी, निश्च्य, एवं वास्तविक शोध की खुशबू आए तो यह बात सिर्फ सन्तोष ही नहीं देती बल्कि एक नई आशा एवं उर्जा का संचरण भी करती है। एक हरियाणवी पाठक का उत्साह और भी बढ जाता है जब यह रचना साहित्य एवं समीक्षा की मुख्यधारा में उपेक्षित एवं लुप्तप्राय: हरियाणवी लोकगीत ‘जकड़ी’ को समर्पित हो।

1970 के दशक के अन्तिम वर्षों का समय वह दौर था जब हरियाणा में यहां की संस्कृति, साहित्य, मिट्टी, वेशभूषा, काम-धन्धों एवं स्वप्नों ने अपना रंग पलटना शुरु कर दिया था। ‘भूल गई रंग चाह ए भूल गई जकड़ी, तीन चीज याद रैहगी ए नूण तेल लकड़ी’, इस समय की ये वो हरियाणवी कहावत थी जो उस दौर में जीवन की करवट लेती रंगत की परिचायक थी। यह कहावत हमें बताती है कि हरियाणवी महिलाओं के दिन-रात के साथी लोकगीत जकड़ी भी बाजार की चपेट में आ चुके थे एवं हरियाणवी जन मानस के मस्तिष्क में लोकगीतों एवं लोककथाओं की रचनात्मकता तथा विनोदशीलता की जगह अब चुल्हे-चौके के संचालन एवं बाजार से संबंधित रोजमर्रा की जरूरतों से जुडी चिन्ताओं ने ले ली थी। देवेन्द्र कुमार द्वारा लिखी पुस्तक ‘जकड़ी: हरियाणवी महिलाओं के सर्व सुलभ लोकगीत’ पाठक को चार दशक पुराने ग्रामीण हरियाणा में ले जाती है जिसके अब सिर्फ अवशेष बाकी हैं। यह पुस्तक उन अवशेषों को बटोरने एवं सहेजने का एक ईमानदार एवं दुर्लभ प्रयास है।

पुस्तक के पहले भाग में लेखक ने ‘जकड़ी: एक परिचय’ शीर्षक के तहत जकड़ी जैसी स्वच्छन्द लोक विधा को परिभाषित करने की कोशिश की है। जकड़ी के इतिहास एवं अन्य संस्कृतियों से इसके गूढ संबंधों सहित विभिन्न आयामों को छुआ है। उनका यह प्रयास हरियाणवी बोली को हिन्दी की सम्मानित और परिष्कृत लोक भाषाओं के समकक्ष बिठा देता है। भोजपुरी, ब्रज, गुजराती, राजस्थानी आदि भाषाओं एवं संस्कृतियों में तो जकड़ी शब्द का प्रयोग गाहे बगाहे हुआ ही है, यह जानकर वास्तव में आश्चर्य होता है कि महाकवि विद्यापति ने भी अपनी पुस्तक में जकड़ी का उल्लेख किया है। देवेन्द्र कुमार का यह प्रयास जकड़ी के लोकरूप का उत्सव  तो मनाता है ही साथ में उनका प्रमाणित विधि-विधान से किया गया शोध इस  लोकविधा को शास्त्रीयता भी प्रदान करता है।

जकड़ी गीत एक युवा हरियाणवी महिला के यथार्थ की अभिव्यक्ति हैं तथा अधिकतर लोकगीतों का कथ्य इस ग्रामीण हरियाणवी महिला के दैनिक जीवन के कष्टदायी अनुभवों से गहरे रूप में जुडा हुआ है। इन लोकगीतों में युवा महिलाएं अपने मायके एवं ससुराल के  सभी संबंधियों तथा उनके व्यवहार के संबंध में अपने हृदय एवं आत्मा की अंतरंग भावनाओं को उडेल कर रख देती हैं। ये लोकगीत हरियाणवी स्त्री के जीवन के सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव की सटीक अभिव्यक्ति हैं जब वह रजस्वला होने से लेकर पुत्रवती होने तक विस्थापन एवं पुन:स्थापन के मानसिक एवं सामाजिक द्वन्द्व से गुजरती है। यही कारण है कि वह हमें स्वयं उसके द्वारा बनाए एवं गाए गए जकड़ी गीतों में बहन, बेटी, बहू, पत्नी, ननद, देवरानी, जेठानी, भाभी, प्रेमिका, नवविवाहिता एवं सास आदि के विभिन्न रूपों में नजर आती हैं।

पुस्तक में जकड़ी गीतों का छह श्रेणियों में वर्गीकरण  किया गया है। इसी वर्गीकरण के आधार पर इसको विभिन्न भागों एवं पाठों में बांटा गया है। हरियाणवी महिला के विभिन्न रुपों एवं भूमिकाओं से जुडे जकड़ी लोकगीतों को अलग अलग भागों में रखा गया है। हर जकड़ी के बाद हिन्दी में उसकी व्याख्या, समीक्षा एवं समालोचना का रोचक एवं गम्भीर प्रयास किया गया है। कुल 268 जकडिय़ों का यह संग्रह पाठक को रोमांच से भर देता है।

इस पुस्तक की असली नायिकाएं वो 75 महिलाएं है। जिनकी सांस्कृतिक जड़ें हरियाणा के आठ जिलों हिसार, जीन्द, रोहतक, भिवानी, झज्जर, पानीपत, सोनीपत, फतेहाबाद एवं कैथल के 63 गावों से जुड़ी हुई हैं। इस सार्थक रचना के माध्यम से  लेखक ने हरियाणवी साहित्य एवं शोध में कुछ नया करने एवं रचने की प्ररेणा दी है।

पुस्तक :  जकड़ी: हरियाणवी महिलाओं के सर्व-सुलभ लोकगीत
लेखक:  देवेन्द्र कुमार
प्रकाशक:  किशोर विद्या निकेतन, वाराणसी
मूल्य:    350 रुपये

स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा (मार्च-अप्रैल 2017, अंक-10), पेज – 70

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