क्या तुम पूरा चाँद ना देखोगे – अलविदा फहमीदा रियाज़

भारत में जन्मीं और पिता के तबादले के बाद पाकिस्तान जा बसीं मशहूर शायरा फहमीदा रियाज़ का 21 नवम्बर 2018 को निधन हो गया। वह 72 वर्ष की थी और पिछले कुछ समय से बीमार चल रही थीं। फहमीदा को साहित्य जगत में अपनी नारीवादी और क्रांतिकारी विचारधारा के लिए जाना जाता है। उनके निधन से उर्दू साहित्य जगत को गहरी क्षति पहुंची है। फहमीदा रियाज़ का जन्म मेरठ में 28 जुलाई 1946 को एक साहित्यिक परिवार में हुआ था। चार साल की उम्र में ही पिता की मृत्यु के बाद उनका पालन-पोषण उनकी मां ने किया। बचपन से ही साहित्य में रूचि रखने वाली फहमीदा ने उर्दू, सिन्धी और फारसी भाषाएं सीख ली थीं। पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने रेडियो पाकिस्तान में न्यूजकास्टर के रूप में काम किया। शादी के बाद वह कुछ वर्ष ब्रिटेन में रहीं और तलाक के बाद पाकिस्तान लौट आईं और उनकी दूसरी शादी जफर अली उजान से हुई।

1988 में पहली पीपीपी सरकार में फहमीदा को नेशनल बुक कांऊसिल आॅफ पाकिस्तान की मैनेजिंग डायरेक्टर बनाया गया। बेनजीर भुट्टो के दूसरे कार्यकाल के दौरान वे संस्कृति मंत्रालय से भी जुड़ी रहीं। 2009 में उन्हें उर्दू डिक्शनरी बोर्ड का मुख्य संपादक नियुक्त किया गया था। उन्होंने अनुवाद के जरिए भी उर्दू साहित्य को समृद्ध किया। उन्होंने अल्बेनियन लेखक इस्माइल कादरी और सूफी संत रूमी की कविताओं को उर्दू में अनुवादित किया। पाकिस्तान सरकार द्वारा उन्हें अल-मुफ्ताह अवार्ड से नवाजा गया। फहमीदा रियाज़ की पहली साहित्यिक किताब 1967 में प्रकाशित हुई थी जिसका नाम ‘पत्थर की जुबान’ था। उनके अन्य कविता संग्रह में धूप, पूरा चांद, आदमी की जिंदगी इत्यादि शामिल हैं। उन्होंने कई उपन्यास भी लिखे जिनमें जिंदा बहर, गोदवरी और करांची प्रमुख हैं। उनके 15 से ज्यादा फिक्शन और कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं।

फहमीदा रियाज़ भारतीय उपमहाद्वीप की एक संवेदनशील कवयित्रि के तौर पर प्रख्यात रहीं जिन्होंने ताउम्र उत्पीडितों एवं वंचितों का पक्ष लिया एवं लैंगिक असमानता के खिलाफ जेहाद जारी रखा। असल जिंदगी और साहित्य दोनों क्षेत्रों में मानवीय मूल्यों को जिस कद्र उन्होंने आत्मसात किया उसका उदाहरण 29 अप्रैल 2000 भारत-पाक मुशायरे के आयोजन के दौरान मिला। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में उपरोक्त आयोजन किया गया था जिसमें उन्होंने 1996 में रचित अपनी बहुचर्चित कविता ‘‘नया भारत’’ का वाचन किया तो वहां उपस्थित भारतीय सेना के दो अधिकारी कविता के तंज से भड़कते हुए अपने अपने रिवाल्वर तानें फहमीदा की ओर बढ़े। वो लाईनें क्या थी –

प्रेत धर्म का नाच रहा है

क़ायम हिन्दू-राज करोगे?

सारे उल्टे काज करोगे?

अपना चमन ताराज करोगे?

तुम भी बैठे करोगे सोचा
पूरी है वैसी तैयारी
कौन है हिन्दू, कौन नहीं है
तुम भी करोगे फ़तवे जारी
वहां भी मुश्किल होगा जीना
दांतों आ जाएगा पसीना
जैसे-तैसे कटा करेगी
वहां भी सबकी साँस घुटेगी
माथे पर सिन्दूर की रेखा
कुछ भी नहीं पड़ोस से सीखा
क्या हमनें दुर्दशा बनाईं
कुछ भी तुमको नज़र न आई
भाड़ में जाये शिक्षा-विक्षा
अब जाहिलपन के गुण गाना
आगे है गड्ढा मत देखो
वापिस लाओ गया ज़माना।
वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित उनका कविता संग्रह ‘क़तरा-क़तरा’ में उपरोक्त नया भारत कविता शामिल है। फहमीदा रियाज़ को पाकिस्तान रेडियो के अनुभव के चलते बीबीसी में नौकरी मिल गई। जहां उन्हें पूर्वी पाकिस्तान से आ रही अप्रिय खबरें पढ़नें का काम दिया गया। वे उर्दू के उन बहुत कम लेखकों में शुमार हैं जिन्होंने अपनी कविताओं को ‘मेघदूत’, ‘भरत-नाट्यम’ एवं ‘कार्ल मार्क्स’ शीर्षक से नवाजा। 80 के दशक में फहमीदा ने एक लम्बी कविता ‘क्या तुम पूरा चाँद नहीं देखोगे’ के माध्यम से पाकिस्तान की जनता एवं वहां के नेताओं से बहुत से सवाल पूछे जिनका सार यह था कि जनतन्त्र एवं लोकपक्षीय राजनीति के असफल हो जाने का उन्हें रंज है। उनका कहना था कि नेता चाहे इस लड़ाई को जारी न रखें लेकिन यदि आम जनता इस संघर्ष को आगे बढ़ाती है तो वे इस जंग के तराने जरूर लिखेंगीं।
उनकी शायरी के तेवर और भाषा के तीखेपन के चलते जिया-उल-हक के सैनिक प्रशासन ने उनके पति को जेल में डाल दिया और वे बच्चों समेत निर्वासित जीवन जीने के लिए दिल्ली आ गईं। उल्लेखनीय है कि अमृता प्रीतम ने ‘नागमणि’ पत्रिका में उनकी प्रताड़ना को बेहतरीन तरीके से उद्धत किया था। लगभग 6 वर्ष तक जामिया मिलिया इस्लामिया में उन्होंने अध्यापन कार्य किया।
साहित्य और इंसानियत के परचम को बुलंद करने वाली फहमीदा रियाज़ मानों फैज अहमद फैज की पंक्तियां गुनगुनाते हुए शांत हो गई:-
जिस धज से कोई मक्तल में गया, वोह शान सलामत रहती है
येह जान तो आनी जानी है, इस जान की तो कोई बात नहीं।


 
फहमीदा रियाज की कविता
कार्ल मार्क्स
ना कोई अवतार-पयम्बर, ना जग का रखवाला
हम जैसा ही इक इन्सां था घबरी दाढ़ी वाला
वह भी जिन्दा था धरती पर, हुई ये बात पुरानी
मर-खप गया, बरस बीते हैं वह बुड्ढा नुस्रानी
होनी का वक्कर बाकी ही, अनमिट जनम के टुकड़े
इसी घेर में नाच रहे हैं, बदल-बदल कर मुखड़े
अपने-अपने काम हैं सबको, अपना अपना जीवन
अपनी-अपनी समझ से जग में सोच रहे हैं निर्धन
देखती आँखें देख रही हैं, क्या है होने वाला
पूरब से लेकर पच्छिम तक धधक रही है ज्वाला
पगडंडी के किसी मोड़ पर वह भी खड़ा हुआ है
समय ने कितनी धूल उड़ाई, शायद देख रहा है
देखा था सौ बार ये फोटो, इस पल ठिठक गई हूं
होंठ काट कर काँप उठी हूं, पल भर जब सोचा है
तू कैसा इन्सां जनमा था
क्या कुछ छोड़ गया है!
काली धरती फाड़ के सूरज जहां जहां निकला है
आदमियों ने तड़प-तड़प कर तेरा नाम लिया है
यूं तो समय रूके नहीं रोके, पर ऐसा भी हुआ है
उड़ती सदी ने पल भर थम कर मुड़ के तुझे देखा है
इक इन्सानी नस्ल ने तुझको रह-रहकर सोचा है
एक नस्ल ने हाथ उठाकर तुझे सलाम किया है

Leave a reply

Loading Next Post...
Sign In/Sign Up Sidebar Search Add a link / post
Popular Now
Loading

Signing-in 3 seconds...

Signing-up 3 seconds...