धर्मनिरपेक्षता की चुनौतियां – सुभाष चन्द्र

धर्मनिरपेक्षता
धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है कि राज्य के मामलों में, राजनीति के मामलों में और अन्य गैर-धार्मिक मामलों से धर्म को दूर रखा जाए और सरकारें-प्रशासन धर्म के आधार पर किसी से किसी प्रकार का भेदभाव न करे। राज्य में सभी धर्मों के लोगों को बिना किसी पक्षपात के विकास के समान अवसर मिलें। धर्मनिरपेक्षता का अर्थ किसी के धर्म का विरोध करना नही है, बल्कि सबको अपने धार्मिक विश्वासों व मान्यताओं को पूरी आजादी से निभाने की छूट है। धर्मनिरपेक्षता में धर्म व्यक्ति का नितान्त निजी मामला है, जिसे राजनीति या सार्वजनिक जीवन में दखल नहीं देना चाहिए। इसी तरह राज्य भी धर्म के मामले में तब तक दखल न दे जब तक कि विभिन्न धर्मों के आपस में या राज्य की मूल धारणा से नहीं टकराते। धर्मनिरपेक्ष राज्य में उस व्यक्ति का भी सम्मान रहता है जो किसी भी धर्म को नहीं मानता। धर्मनिरपेक्षता पर विचार करते हुए डॉक्टर सर्वपल्ली राधकृष्णन् ने कहा है कि ‘‘जब भारतीयों के धर्मनिरपेक्षता ग्रहण करने की बात कही जाती है तो इसका यह अर्थ नहीं कि वे अधार्मिकता या भौतिकवाद का समर्थन करते हैं। वे सब धर्मों के प्रति यह सम्मान रखते हैं और सब पैगम्बरों का आदर करते हैं। सहिष्णुता का अर्थ अपने निज के धर्म के प्रति उदासीनता नहीं हैं, सहिष्णुता हमें आध्यात्मिक दृष्टि देती है, जो कट्टरता से उतनी ही दूर है जितना उत्तरी ध्रुव दक्षिणी ध्रुव से है। धर्म का वास्तविक ज्ञान, सम्प्रदाय-सम्प्रदाय, मजहब-मजहब के बीच की दीवारों को तोड़ देता है। दूसरे धर्मों के प्रति सहिष्णुता के आचरण से हमें अपने धर्म का ज्यादा सच्चा ज्ञान प्राप्त होगा’’

धर्म की निरपेक्षता पर विचार करते हुए प्रख्यात इतिहासकार विपन चन्द्रा ने लिखा कि ‘‘दूसरी जगहों की तरह भारत मे भी धर्म निरपेक्षता की चार तरह से व्याख्या की गई है। पहलीः धर्म को राजनीति में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। धर्म राजनीति, अर्थव्यवस्था, शिक्षा तथा सामाजिक जीवन और संस्कृति के बड़े क्षेत्रों से अलग रहना चाहिए। धर्म व्यक्ति का निजी या व्यक्तिगत मामला समझा जाना चाहिए। इसे अस्वीकार करने वाली धर्मनिरपेक्षता की तथाकथित भारतीय परिभाषा की बात करना धर्मनिरपेक्षता का निषेध है। साथ ही धर्मनिरपेक्षता का मतलब जीवन से धर्म को निकालना या धर्म का विरोध नहीं है। धर्म निरपेक्ष शासन का अर्थ धर्म को हतोत्साहित करने वाला शासन नहीं है।
दूसरीः किसी बहुधर्म समाज में धर्म निरपेक्षता का यह भी मतलब है कि शासन सभी धर्मों के प्रति तटस्थ रहे या जैसा कि बहुत से धार्मिक व्यक्ति कहते हैं निरीश्वरवाद सहित सभी धर्मों को बराबर सामान दें।
तीसरीः धर्मनिरपेक्षता का आगे मतलब है कि शासन सभी नागरिकों को बराबर समझे और उनके धर्म के आधार पर उनके साथ भेदभाव न करें।

चौथीः भारत के संदर्भ में धर्मनिरपेक्षता की और विशेषता है। भारत में धर्मनिरपेक्षता उपनिवेशवाद के खिलाफ सभी भारतियों को इक्ट्ठा करने और राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया के हिस्से की तरह एक विचारधारा के रूप में आई। इसके साथ-साथ सांप्रदायिकता एक अत्यध्कि विभाजक सामाजिक और राजनीतिक ताकत के रूप में उभरी। परिणामस्वरूप धर्मनिरपेक्षता का मतलब सांप्रदायिकता का स्पष्ट विरोध शासन शामिल है। इस विजन और उसके लिए प्रतिबद्धता के कारण ही स्वतन्त्र भारत विभाजन और विभाजन दंगों के बावजूद धर्मनिरपेक्ष संविधान तैयार कर सका और धर्मनिरपेक्ष शासन की आधारशिला रख सका।’’1

धर्मनिरपेक्षता भारत के लिए कोई नई चीज नही है। विभिन्न संस्कृतियों और धर्मों के लोग सह-अस्तित्व के साथ हजारों सालों से साथ-साथ रह रहे हैं। सन् 1947 में भारत स्वतंत्र हुआ तो संविधान में धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक ढांचा अपनाया। यद्यपि संविधान की प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्ष शब्द को 42वें संशोधन में अपनाया गया, लेकिन धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों के आधार शुरू से प्रभावी रहे हैं। अनुच्छेद 25, 26, 30(1)(2) के अंतर्गत धर्म की व्यक्तिगत एवं सामूहिक स्वतंत्रता की सुरक्षा, अनुच्छेद 15 के अंतर्गत राज्य द्वारा धर्म के आधार पर किसी नागरिक से भेदभाव न करना और अनुच्छेद 16 के अन्तर्गत अवसर की समानता का अधिकार धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों की पुष्टि करते हैं।

साम्प्रदायिकता
आधुनिक भारत में साम्प्रदायिकता की समस्या गम्भीर रूप धारण करती जा रही है। साम्प्रदायिकता के कारण भारत का विभाजन हुआ और अब तक साम्प्रदायिक हिंसा में हजारों लोगों की जानें जा चुकी हैं और लाखों के घर उजड़े हैं, लाखों लोग विस्थापित होकर शरणार्थी का जीवन जीने पर मजबूर हुए हैं। साम्प्रदायिकता से समाज को छुटकारा दिलाना हर संवेदनशील व देशभक्त व्यक्ति का कर्तव्य है। साम्प्रदायिकता ‘‘मूलतः राज्य-व्यवस्था में एक प्राथमिक एवं निर्णयात्मक समूह के रूप में किसी के प्रति राजनीतिक निष्ठा की एक विचारधारा है। सम्प्रदायवाद किसी खास धार्मिक समुदाय को ही एकमात्र अपनी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा एवं गतिविधि िका समष्टि रूप एवं आधार समझता है। सम्प्रदायवाद एक राज्य-व्यवस्था तथा एक राष्ट्र के अन्दर अन्य धार्मिक समुदायों को प्रत्यक्षतः प्रतिकूल हस्ती के रूप में चित्रित करता है, जिसके फलस्वरूप एक दूसरे के प्रति अमैत्रीपूर्ण, वैमनस्यता तथा दुश्मनागत की भावना संगठित करता है। सम्प्रदायवाद एक राजनीतिक अभिमुखता है जो अपनी राजनीतिक निष्ठा की मंजिल धार्मिक समुदाय को ही समझता है, न कि राष्ट्र या राज्य को। सम्प्रदायवाद एक ऐसी राजनीतिक निष्ठा, एक ऐसी राजनीति है, जो बहुजातीय एवं बहुधार्मिक समुदाय से युक्त राष्ट्रवाद के विरू( होती हैं’’2

साम्प्रदायिकता आधुनिक युग की परिघटना है। अंग्रेजों ने अपनी सता को बनाए रखने हेतु हिन्दू व मुसलमानों में फूट डालने के लिए दोनों सम्प्रदायों के उच्च वर्ग के हितों की टकराहट को हवा दी। उच्च वर्ग के स्वार्थों की टकराहट के नतीजे के तौर पर ही साम्प्रदायिकता का जन्म हुआ। साम्प्रदायिकता ने हमेशा उच्च वर्ग के राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक हितों की रक्षा करने में तत्परता दर्शाई है। अंग्रेजों के आने के पहले की सामन्ती शासन-प्रणाली में शासकों का चुनाव नहीं होता था बल्कि तलवार की ताकत के आधार सता हथियाई जाती थी और जो भी सता पर काबिज होता था वह सभी सम्प्रदायों से वफादारी व सहयोग की अपेक्षा करता था। सरकारी नौकरियां भी उन्हीं को मिलती थी जो राजा के प्रति वफादार होते थे,चाहे कोई किसी भी धर्म से ताल्लुक रखता हो। राजा के प्रति वफादारी ही शासन-व्यवस्था में पद पाने का साधन थी। आम तौर पर अपनी स्थानीय जरूरतों को पूरा करने के लिए उत्पादन किया जाता था, बाजार में बेचने के लिए नहीं। इसलिए अर्थव्यवस्था में भी प्रतिस्पर्धा नहीं थी। अंग्रेजों ने जब भारत की शासन सता संभाली तो इस व्यवस्था में भारी फेरबदल हुआ। उत्पादन भी प्रतिस्पर्धात्मक हो गया और अपनी स्थानीय जरुरतों के अलावा बाजार में बेचे जाने के लिए होने लगा। इस नई व्यवस्था में हिन्दूओं व मुसलमानों के उच्च वर्ग में राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी तथा सरकारी नौकरियां प्राप्त करने की प्रतिस्पर्धा के चलते अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति के तहत साम्प्रदायिकता का जन्म हुआ।


साम्प्रदायिकता मात्र दो धर्मों के बीच विवाद,झगड़ों व हिंसा तक सीमित नहीं एक विचारधारा है। साम्प्रदायिक दृष्टिकोण के अनुसार एक धार्मिक समुदाय के सभी लोगों के सामाजिक,राजनीतिक, आर्थिक व धार्मिक हित एक जैसे होते हैं। साम्प्रदायिकता एक कदम आगे रखकर कहती है कि अलग-अलग समुदायों के हित न केवल अलग-अलग होते हैं,बल्कि एक-दूसरे के विपरीत होते है। इस तरह साम्प्रदायिकता एक नकारात्मक सोच पर टिकी होती है। इस धारणा के अनुसार तो भारत में हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई शान्तिपूर्ण तरीके से साथ-साथ रह ही नहीं सकते। यह धारणा न तो तर्क के आधार पर सही है और न ही तथ्यपरक है। भारत में ही विभिन्न धर्मों के लोग हजारों सालों तक शांतिपूर्ण ढंग से रहते आए हैं। विभिन्न धर्मों के लोग एक-दूसरे से घुल-मिल गए हैं विभिन्न धर्मों-सम्प्रदायों के लोगों ने खान-पान, रहन-सहन, वेश-भूषा व आचार-विचार में एक दूसरे से बहुत कुछ सीखा है। साम्प्रदायिकता हमेशा इस बात पर जोर देती है कि दो धर्मों के लोग इक्ट्ठा नहीं रह सकते।


साम्प्रदायिकता दो तरह की होती है -एक को नर्म या उदार साम्प्रदायिकता कहा जा सकता है दूसरी फासिस्ट या कट्टर साम्प्रदायिकता। नर्म या उदार साम्प्रदायिक लोगों का मानना है कि एक धर्म या सम्प्रदाय के लोगों की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक हित विशिष्ट भी होते हैं, जिनको हासिल करने के लिए बातचीत से या दबाव से जैसे भी हो पूरा करना चाहिए लेकिन साथ ही उदार या नर्म साम्प्रदायिक यह भी मानते हैं कि विभिन्न धर्मों के लोगों के सांझे हित हैं और इस साझेपन के कारण ही वे राष्ट्र बनते हैं इसलिए उन्हें अपनी राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक विकास के संघर्ष में साथ रहना चाहिए। दूसरे सम्प्रदाय या धर्म के प्रति उदार रूख के कारण ही इसको उदार सम्प्रदायिकता कहा जाता है। जो अपने सम्प्रदाय के हितों की पूर्ति के लिए जोर रखती है और इसके लिए अन्य सम्प्रदायों या धर्मों से सौदेबाजी भी करती है।


फासिस्ट साम्प्रदायिकता, दूसरे धर्म व सम्प्रदायों के प्रति झूठ, घृणा और हिंसा पर आधरित होती है। इस किस्म की साम्प्रदायिकता दूसरे धर्म या सम्प्रदाय के अनुयायियों के प्रति घृणा पैदा करती है, उसके बारे में तरह-तरह के झूठ-मिथक गढ़ती है व इनको जोर-शोर से प्रचारित करती है तथा हिंसा का सहारा लेती है। फासिस्ट साम्प्रदायिक बड़ी आक्रामक तेवर के साथ इस बात को लोगों की चेतना का हिस्सा बनाने की कोशिश करते हैं कि एक समुदाय को खत्म करने में ही दूसरे समुदाय का हित है,दोनों समुदायों के हित परस्पर विरोधी हैं इसलिए वे साथ-साथ नहीं रह सकते।

धर्म और साम्प्रदायिकता
साम्प्रदायिकता का धर्म से गहरा ताल्लुक होते हुए भी धर्म उसकी उत्पति का कारण नहीं है। धर्म और साम्प्रदायिकता बिल्कुल भिन्न हैं। धर्म में ईश्वर का, परलोक का, स्वर्ग-नरक का, पुनर्जन्म का, आत्मा-परमात्मा का विचार होता है। सच्चे धार्मिक का और धर्म का सारा ध्यान पारलौकिक आध्यात्मिक जगत से संबंधित होता है,धर्म में भौतिक जगत की कोई जगह नहीं होती जबकि इसके विपरीत साम्प्रदायिकता का अध्यात्म से कुछ भी लेना-देना नहीं है और साम्प्रदायिक लोग अपने भौतिक स्वार्थों जैसे राजनीति, सत्ता, व्यापार आदि की चिन्ता अधिक करते हैं।

किसी समाज में विभिन्न धर्मों के होने मात्र से ही साम्प्रदायिकता पैदा नहीं होती। धर्म से लोगों का भावनात्मक लगाव होता है,लोगों की आस्था जुड़ी होती है इसलिए इसका सहारा लेकर उनको आसानी से एकत्रित किया जा सकता है। लोगों की आस्था व विश्वास को साम्प्रदायिकता में बदलकर, दूसरे धर्म के लोगों के खिलाफ प्रयोग करके स्वार्थी-साम्प्रदायिक लोग अपना उल्लू सीधा कर लेते हैं। साम्प्रदायिकता स्वतः स्फूर्त परिघटना नहीं होती,बल्कि साम्प्रदायिक-उन्माद पैदा करने के लिए साम्प्रदायिक-शक्तियां वातावरण का निर्माण करती हैं,एक-दूसरे समुदाय के बारे भ्रम फैलाते हैं और एक-दूसरे के विरूद्ध नफरत फैलाते हैं। साम्प्रदायिक हिंसा अचानक नहीं होती बल्कि साम्प्रदायिक-शक्तियों की पूर्व-योजना का परिणाम होती हैं,बिना साम्प्रदायिक विचारधारा के प्रचार-प्रसार के साम्प्रदायिक हिंसा नहीं पनप सकती। साम्प्रदायिक हिसां व दंगे साम्प्रदायिकता का कारण नहीं बल्कि परिणाम होते हैं। भीष्म साहनी का मानना है कि ‘‘ जब सत्ता ग्रहण कर पाने की होड (में हम धर्म की आड) लेते हैं, तब हम एक ओर धर्म के वास्तविक स्वरूप को विकृत करते हैं, उसकी मानवीयता, उसके सद्उपदेश, सहिष्णुता आदि को ताक पर रख देते हैं, दूसरी ओर उन तत्त्वों को प्राथमिकता देने लगते हैं जो एक जाति को दूसरी जाति से अलग करते हैं, जैसे पूजा-पाठ की विधियों, धर्माचार, व्रत-उपवास, आदि आदि। इस तरह हम अपनी जाति की अलग पहचान बनाना चाहते हैं, तब एक व्यक्ति इंसान न रहकर, एक हिन्दू, एक मुसलमान, एक सिक्ख आदि में बदल जाता है। सत्ता की होड़ इस जातीयता की भावना को उग्र और आक्रामक बनाती है। तब, धर्म के नाम पर हमारे सभी कुकर्म, हिंसा, बर्बरता, घृणा, द्वेष सभी यथोचित ठहराये जाने लगते हैं। इस तरह साम्प्रदायिकता का विकराल रूप सामने आने लगता है।’’3


भारत में बहुत से धर्मों के लोग रहते हैं। लोगों के धार्मिक हित कभी नहीं टकराते इसलिए उनसे कोई हिंसा-तनाव होने का सवाल ही नहीं उठता। कुछ लोगों के सांसारिक हित (सत्ता-व्यापार) टकराते हैं तो वे अपने स्वार्थों को पूरा करने के लिए इस बात का धुंआधार प्रचार करते हैं कि एक धर्म के मानने वाले लोगों के हित समान हैं और भिन्न-भिन्न धर्मों को मानने वाले लोगों के हित परस्पर विपरीत एवं विरोधी हैं। बस यहीं से साम्प्रदायिकता की शुरूआत होती है। साम्प्रदायिकता को फैलाने वाले स्वार्थी लोग इतने चालाकी से इस काम को करते हैं कि लोग उन कुछ लोगों के हितों को अपने हित मानने की भूल कर बैठते हैं। उन स्वार्थी-साम्प्रदायिक लोगों के भौतिक स्वार्थ लोगों को अपने आध्यात्मिक हित नजर आएं इसके लिए वे धर्म का सहारा लेते हैं।


धर्म और साम्प्रदायिकता न केवल भिन्न है, बल्कि परस्पर विरोधी है। साम्प्रदायिक व्यक्ति कभी धार्मिक नहीं होता,लेकिन वह धार्मिक होने का ढोंग अवश्य करता है। साम्प्रदायिक व्यक्ति की धार्मिक आस्था तो होती नहीं इसलिए वह ऐसे कर्मकाण्ड करता है जिससे कि बहुत बड़ा धार्मिक दिखाई दे। मंदिरों-मस्जिदों के लिए अत्यधिक धन जुटाएगा,कथाओं-कीर्तनों का आयोजन करेगा। धार्मिक सभाएं-जुलूस आयोजित करेगा ताकि वह सबसे बड़ा धार्मिक और धर्म की सेवा करने वाला नजर आए। अपने धर्म के मूल्यों से, धर्म की शिक्षाओं से उसका कोई लेना-देना नहीं होता। साम्प्रदायिक लोग साम्प्रदायिक-दंगें आयोजित करके-हिंसा, आगजनी, लूट-खसोट, बलात्कार आदि अपराध करते हैं, जबकि उनका धर्म उन कुकृत्यों की कोई इजाजत नहीं देता। ये काम कोई धर्म-सम्मत काम नहीं है बल्कि धर्म के विरोधी हैं लेकिन स्वार्थी साम्प्रदायिक लोग इसको धर्म की आड़ में बेशर्मी से करते हैं। साम्प्रदायिक हिन्दू और साम्प्रदायिक मुसलमान या अन्य धर्म का साम्प्रदायिक व्यक्ति दूसरे धर्म के लोगों को तो नुक्सान पहुंचाकर मानवता को नुक्सान पहुंचाता ही है, इसके साथ वह सबसे पहले अपने धर्म का और उसको मानने वाले लोगों को नुकसान पहुंचाता है। कट्टर या साम्प्रदायिक व्यक्ति की शत्रुता दूसरे धर्म के कट्टर और साम्प्रदायिक व्यक्ति से नहीं होती ��ल्कि अपने ही धर्म को मानने वाले उदार व्यक्ति और सच्चे धार्मिक से होती है।


स्वामी विवेकानन्द ने धार्मिक संकीर्णता व कट्टरता के बारे में लिखा कि ‘‘संकीर्णतावाद, कट्टरतावाद और उसके वीभत्स उत्तराधिकारी धर्मोंन्माद ने इस सुंदर धरती पर बहुत दिनों तक राज किया है। उसने इस धरती को हिंसा से भर दिया है, उसे बार-बार मानव रक्त से नहलाता रहा है, सभ्यता को नष्ट कर दिया है तथा पूरे देश को निराशा के गर्त में ढकेल दिया है। यदि ये भयावह दानव नहीं होते, तो मानव समाज ने जितनी प्रगति की है, उससे अधिक प्रगति की होती, पर उनका समय आ गया है और मैं यह पूरी आशा करता हूं कि आज सुबह इस सभा के सम्मान में जो घंटनाद हुआ, वह सभी तरह की धर्मांधता, तलवार या कलम से किये जाने वाले सभी तरह के उत्पीड़नों,व्यक्तियों के बीच सभी विद्वेषपूर्ण भावनाओं को जो उन्हें एक ही लक्ष्य की ओर ले जाती हैं मौत का सबब साबित होगा।’’


यद्यपि यह बात सही है कि साम्प्रदायिकता का मूल कारण धर्म नहीं है लेकिन साथ ही यह बात भी सच है कि धर्म के प्रतीकों व विश्वासों के सहारे ही यह विष-बेल फैलती है। धर्म से जुड़े प्रतीक और विश्वास साम्प्रदायिकता को आधार प्रदान करते हैं। साम्प्रदायिक शक्तियां बड़ी चालाकी से धर्म में व्याप्त संकीर्णता, अंध्विश्वास, भाग्यवाद और अतार्किकता का लाभ उठाती हैं। भीष्म साहनी के अनुसार ‘‘संस्थागत धर्म साम्प्रदायिकता का सबसे बड़ा पोषक है। धार्मिक विचार, धर्मोंपदेश, धर्मग्रंथ साम्प्रदायिकता को बढ़ावा नहीं देते,पर संस्थागत धर्म जरूर देता है क्योंकि वह नागरिकों को धर्म के आधार पर बांट देता है। संस्थागत धर्म अपने विधि- निषेध, धर्माचार आदि के आधार पर धर्म के मानने वालों को एक स्वरूप, एक अलग अस्तित्व देता है। फिर, अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए वह धन संपति अर्जित करता है, प्रशासन के साथ मेल-जोल बढाता है, और दूसरी ओर विधि-निषेध पर बल देते हुए धर्म संस्थाएं जनसाधारण को आतंकित करती रही हैं। आज के जमाने में जब लोगों का विश्वास धार्मिक विधि-निषेध पर शिथिल पड़ने लगा है,और लोग धर्माचार से दूर होने लगे हैं तो राजनीति के क्षेत्र में सक्रिय लोग, इस संस्थागत धर्म के साथ जुड़कर, जनसाधारण पर इसके प्रभाव का लाभ उठाते हुए, अपने राजनीतिक लक्ष्यों की पूर्ति करने की कोशिश करते हैं।’’4

सच्चा धार्मिक या सच्चे अर्थों में धर्म को मानने वाला कभी साम्प्रदायिक नहीं हो सकता और साम्प्रदायिक व्यक्ति कभी धार्मिक हो ही नहीं सकता यदि कोई धर्म में, ईश्वर में या खुदा में विश्वास करता है और मानता है कि यह सृष्टि ईश्वर या खुदा की रचना है तो उसे सबको मान्यता देनी चाहिए। यदि उसकी ईश्वर या खुदा की सता में जरा भी आस्था है तो वह सभी लोगों को उसकी संतान समझेगा इसके विपरीत यदि वह अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए साम्प्रदायिकता के विचार को ग्रहण करेगा। साम्प्रदायिक व्यक्ति किसी दूसरे सम्प्रदाय क्या अपने सम्प्रदाय में भी समानता-बराबरी-भाईचारे के विपरीत होगा और अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए असमानता की विचारधारा को अपनाएगा। इस बात को एक उदाहरण के माध्यम से समझा जा सकता है।

स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान एक तरफ महात्मा गांधी धर्म-निरपेक्ष राज्य के पक्के समर्थक थे, धर्म को व्यक्ति का निजी मामला मानते थे। सभी धर्मों का और उनके मानने वालों का आदर करते थे। उन्होंनें धर्म के आधार पर राष्ट्र बनाने का विरोध किया। गांधी जी स्वयं को सनातनी हिन्दू कहते थे, जनेऊ धरण करते थे। प्रार्थना सभाएं करते थे,‘रघुपति राघव राजा राम’की आरती गाते थे। हिन्दू रिवाजों-मान्यताओं में विश्वास जताते थे, ईश्वर में विश्वास करते थे, हिन्दू-ग्रन्थों का आदर करते थे। उनका कहना था कि ‘‘मैं अपने धर्म की ‘शपथ लेकर कहता हूं कि मैं उसके लिए अपनी जान दे दूंगा। लेकिन यह मेरा व्यक्तिगत मामला है। राज्य का इससे कुछ भी लेना देना नहीं। राज्य का काम है सामाजिक कल्याण, संचार, विदेशी संबंध, मुद्रा इत्यादि देखना न कि आपका और हमारा धर्म। वह हर किसी का व्यक्तिगत मामला है।’’5मौलाना अबुल कलाम आजाद थे जो इस्लाम की मान्यताओं में विश्वास रखते थे, कुरान पर चार-भागों में टीका लिखी, जो पांचों समय नमाज पढ़ते थे और नियमित रूप से मस्जिद जाते थे लेकिन वे धर्म को निजी मामला समझते थे। धर्म-निरपेक्ष राष्ट्र में विश्वास करते थे। उनका कहना था कि ‘‘मैं मुसलमान हूँ, और गर्व के साथ अनुभव करता हूंू कि मुसलमान हूं। इस्लाम की तेरह सौ बरस की शानदार रिवायतें मेरी पैतृक संपति हैं। मैं तैयार नहीं हूँ कि इसका कोई छोटे-से-छोटे हिस्से को भी होने दूं। इस्लाम की तालीम, इस्लाम का इतिहास, इस्लाम का इल्म और फन, और इस्लाम की तहजीब मेरी पूंजी है और मेरा फर्ज है कि उसकी रक्षा करूं। मुसलमान होने की हैसियत से मैं अपने मजहबी और कलचरल दायरे में अपना एक खास अस्तित्व रखता हूं और मैं बरदास्त नहीं कर सकता कि इसमें कोई हस्तक्षेप करे। किंतु इन तमाम भावनाओं के अलावा मेरे अंदर एक और भावना भी है, जिसे मेरी जिंदगी की ‘रिएलिटीज़’ यानि हकीकतों ने पैदा किया है। इस्लाम की आत्मा मुझे उससे नहीं रोकती, बल्कि मेरा मार्ग-प्रदर्शन करती हैं। मैं अभिमान के साथ अनुभव करता हूं कि मैं हिंदुस्तानी हूं। मैं हिंदुस्तान की अविभिन्न संयुक्त-राष्ट्रीयता नाकाबिले तक्सीम मुत्ताहिदा कौमियत का एक अंश हूं। मैं इस संयुक्त-राष्ट्रीयता का एक ऐसा महत्त्वपूर्ण अंश हूं। उसका एक ऐसा टुकड़ा हूं जिसके बिना उसका महत्त्व अधूरा रह जाता है। मैं इसकी बनावट का एक जरूरी हिस्सा हूं। मैं अपने इस दावे से कभी दस्तबरदार नहीं हो सकता।’’


दूसरी ओर इसके विपरीत मुहम्मद अली जिन्ना थे, जिनका नमाज और मस्जिद से कोई लेना-देना नहीं था। जिनका इस्लाम में, इस्लाम की मान्यताओं में कोई विश्वास नहीं था। खान-पान, रहन-सहन, वेश-भूषा,आचार-विचार व विश्वास-व्यवहार कहीं से भी जिन्ना इस्लाम धर्म के निकट नहीं थे। लेकिन उन्होंनें धर्म के आधार पर अलग राष्ट्र की मांग की,जिसके फलस्वरूप पाकिस्तान का निर्माण हुआ। महात्मा गांधी व अबुल कलाम मौलाना आजाद सच्चे अर्थों में धार्मिक थे लेकिन इसके विपरीत जिन्ना व अन्य साम्प्रदायिकों का धर्म से व धार्मिकता से कतई वास्ता नहीं था।

आजादी की लड़ाई में शामिल नेताओं ने भारत को धर्मनिरपेक्ष राज्य के रूप में निर्माण करने की बात कही थी। शहीद भगतसिंह और उसके संगठन के क्रांतिकारी साथियों ने भी धर्म को राजनीति के क्षेत्र से बाहर रखने का विचार रखा। भगतसिंह ने ‘साम्प्रदायिक दंगें और उनका इलाज’लेख में अपना मत स्पष्ट किया कि ‘‘1914-15के शहीदों ने धर्म को राजनीति से अलग कर दिया था। वे समझते थे कि धर्म व्यक्तिगत मामला है, इसमें दूसरे का कोई दखल नहीं। न ही इसे राजनीति में घुसाना चाहिए, क्योंकि यह सरबत को मिलकर एक जगह काम नहीं करने देता। इसलिए गदर पार्टी-जैसे आन्दोलन एकजुट व एकजान रहे,जिनमें सिक्ख बढ़-चढ़कर फांसियों पर चढ़े और हिन्दू-मुसलमान भी पीछे नहीं रहे। इस समय कुछ भारतीय नेता भी मैदान में उतरे हैं, जो धर्म को राजनीति से अलग करना चाहते हैं। झगड़ा मिटाने का यह भी एक सुन्दर इलाज है और हम इसका समर्थन करते हैं। यदि धर्म को अलग कर दिया जाये तो राजनीति पर हम सभी इकट्ठे हो सकते हैं। धर्मों में हम चाहे अलग-अलग ही रहें।’’6

धर्मनिरपेक्षता और साम्प्रदायिकता दोनों राजनीतिक शब्द हैं और लगभग एक दूसरे के विरोधी हैं इसलिए साम्प्रदायिकता का सबसे बड़ा हमला धर्मनिरपेक��षता पर ही होता है। कभी वह धर्मनिरपेक्षता की खिल्ली उड़ाकर इसको कमज़ोर करते हैं तो कभी धर्मनिरपेक्ष लोगों को छद्म धर्मनिरपेक्ष कहकर इसकी स्वीकार्यता पर प्रहार करते हैं। धर्मनिरपेक्षता को अपनाए बिना किसी देश में लोकतंत्र नहीं रह सकता और साम्प्रदायिकता मूलतः लोकतंत्र के खिलाफ है। साम्प्रदायिक लोग इस बात को अच्छी तरह जानते है कि वे लोकतंत्र का सीधे-सीधे विरोध नहीं कर सकते लेकिन धर्म की आड़ लेकर और धर्मनिरपेक्षता के बारे मे गलतफहमी पैदा करके, धर्मनिरपेक्षता को ‘अल्पसंख्यकों का तुष्टीकरण’ कहकर लोकतंत्र को कमजोर कर सकते हैं। साम्प्रदायिकता समाज के सभी समुदाय को समान नागरिक अधिकारों के खिलाफ है। वह समाज मे एक समुदाय का दूसरे समुदाय पर और एक समुदाय के विशिष्ट वर्ग का दूसरे वर्गो पर वर्चस्व स्थापित करना चाहती है,जबकि धर्मनिरपेक्षता इस बात को सुनिश्चित करती है कि समाज के सभी लोगों को समान नागरिक अधिकार मिलें चाहे अल्पसंख्यक हो या बहुसंख्यक। साम्प्रदायिकता धर्म को नागरिक अधिकारों के ऊपर रखती है, जबकि धर्मनिरपेक्ष-लोकतन्त्र में नागरिक अधिकार अधिक महत्वपूर्ण होते है।

साम्प्रदायिकता और संस्कृति
साम्प्रदायिकता अपने को संस्कृति के रक्षक के तौर पर प्रस्तुत करती है, जबकि वास्तव में वह संस्कृति को नष्ट कर रही होती है। सांस्कृतिक श्रेष्ठता दम्भ व जातीय गौरव साम्प्रदायिकता के साथ आरम्भ से जुडे़ हैं। साम्प्रदायिकता के असली चरित्र को समझने के लिए उसके सांस्कृतिक खोल को समझना और इस खोल के साथ उसके संबंधों को समझना निहायत जरूरी है। संस्कृति में लोगों के रहन-सहन, खान-पान, मनोरंजन, रूचियां-स्वभाव, गीत-नृत्य, सोच-विचार, आदर्श-मूल्य, भाषा-बोली सब कुछ शामिल होता है। जो जीवन में जीता है उस सबको मिलाकर ही संस्कृति बनती है। किसी विशेष क्षेत्र के लोगों की विशिष्ट संस्कृति होती है, चूंकि जलवायु व भौतिक परिस्थितियां बदल जाती हैं, भाषा-बोली बदल जाती है, खान-पान, व रहन-सहन बदल जाता है जिस कारण एक अलग संस्कृति की पहचान बनती है। इस तरह कहा जा सकता है कि संस्कृति का संम्बन्ध भौगोलिक क्षेत्र से होता है और संस्कृति की पहचान भाषा से होती है।

साम्प्रदायिकता लोगों के धार्मिक विश्वासों का शोषण करके फलती-फूलती है इसलिए इसका जोर इस बात पर रहता है कि व्यक्ति की पहचान धर्म के आधार पर हो। न केवल व्यक्ति की पहचान बल्कि वह संस्कृति व भाषा को भी धर्म के आधार पर परिभाषित करने की कोशिश करती है। धर्म को जीवन की सबसे जरूरी व सर्वोच्च पहचान रखने पर जोर देती है। इसलिए हिन्दू संस्कृति और मुस्लिम संस्कृति जैसी शब्दावली का निर्माण किया गया। महान कथाकार मुंशी प्रेमचंद ने ‘साम्प्रदायिकता और संस्कृति’लेख में इस पर गहराई से विचार करते हुए लिखा है कि ‘साम्प्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है। उसे अपने असली रूप में निकलते शायद लज्जा आती है,इसलिए वह गधे की भांति जो सिंह की खाल ओढ़ कर जंगल के जानवरों पर रोब जमाता फिरता था, संस्कृति का खोल ओढ़ कर आती है। हिन्दू अपनी संस्कृति को कयामत तक सुरक्षित रखना चाहता है,मुसलमान अपनी संस्कृति को। दोनों ही अभी तक अपनी-अपनी संस्कृति को अछूती समझ रहे हैं। यह भूल गए हैं कि अब न कहीं मुस्लिम-संस्कृति है, न कहीं हिन्दू-संस्कृति, न कोई अन्य संस्कृति, अब संसार में केवल एक संस्कृति है और वह है आर्थिक-संस्कृति, मगर हम आज भी हिन्दू और मुस्लिम संस्कृति का रोना रोए चले जाते हैं। हालांकि संस्कृति का धर्म से कोई संबंध नहीं। आर्य संस्कृति है, ईरानी संस्कृति है, अरब संस्कृति है,लेकिन ईसाई-संस्कृति और मुस्लिम या हिन्दू संस्कृति नाम की कोई चीज नहीं है। हिन्दू मूर्तिपूजक है,तो क्या मुसलमान कब्र पूजक और स्थानपूजक नहीं है, ताजिए को शर्बत और शीरीनी कौन चढ़ाता है, मस्जिद को खुदा का घर कौन समझता है? अगर मुसलमानों में एक सम्प्रदाय ऐसा है, जो बड़े-से-बड़े पैगम्बरों के सामने सिर झुकाना भी कुफ्र समझता है,तो हिन्दुओं में भी एक सम्प्रदाय ऐसा है जो देवताओं को पत्थर के टुकड़े और नदियों को पानी की धरा और धर्मग्रन्थों को गपोड़े समझता है। यहां तो हमें दोनों संस्कृतियों में कोई अन्तर नहीं दीखता।’’7 धर्म के आधार पर संस्कृति की पहचान करना साम्प्रदायिकता है। साम्प्रदायिकता की विचारधारा संस्कृति और धर्म को एक दूसरे के पर्याय के तौर पर प्रयोग करके भ्रम पैदा करने की कोशिश करती है, जबकि धर्म संस्कृति का एक अंश मात्र है। बहुत सी चीजों के समुच्चय योग से संस्कृति बनती है धर्म भी उसमें एक तत्त्व है। धर्म संस्कृति का एक अंग है,धर्म में सिर्फ आध्यात्मिक विचार,आत्मा-परमात्मा,परलोक,पूजा-उपासना आदि ही आते हैं। साम्प्रदायिक शक्तियां संस्कृति के सभी तत्वों के ऊपर धर्म को रखती है।


संस्कृति को धर्म के साथ जोड़कर साम्प्रदायिक विचारधारा एक बात और जोड़ती है कि एक धर्म के मानने वाले लोगों की संस्कृति एक होती है,उनके हित एक जैसे होते हैं। ऐसा स्थापित करने के बाद फिर वे एक कदम आगे रखकर कहते हैं कि एक संस्कृति दूसरी संस्कृति से टकराती है। दो धर्मों के व दो संस्कृतियों के लोग मिल जुलकर नहीं रह सकते। अतः संस्कृति की रक्षा के लिए हमारे (साम्प्रदायिकों) पीछे लग जाओ । इसी आधार पर साम्प्रदायिक लोग जनता को इस बात का झांसा देकर रखती है कि वह संस्कृति की रक्षा कर रहे हैं जबकि वे सांस्कृतिक मूल्यों यानी मिल जुलकर रहने, एक दूसरे का सहयोग करने, एक दूसरे का आदर करने को नष्ट कर रहे होते हैं ।


यह बात बिल्कुल बेबुनियाद है कि समान धर्म मानने वालों की संस्कृति भी समान होगी । भारत के ईसाई व इंग्लैंड के ईसाई का, भारत के मुसलमान व अरब देशों के मुसलमानों का, भारत के हिन्दू व नेपाल के हिन्दुओं का, पंजाब के हिन्दू और तमिलनाडू के हिन्दू का, असम के हिन्दू व कश्मीर के हिन्दू का धर्म तो एक ही है लेकिन उनकी संस्कृति बिल्कुल अलग-अलग है। न उनके खान-पान एक जैसे हैं, न रहन-सहन, न भाषा -बोली में समानता है न रूचि-स्वभाव में । इसके विपरीत अलग-अलग धर्मों को मानने वालों की संस्कृति एक जैसी हो सकती है,होती है क्योंकि संस्कृति का सम्बन्ध क्षेत्र से है। काश्मीर के हिन्दू व मुसलमानों का धर्म अलग-अलग होते हुए भी उनकी बोली, खान-पान, रूचि-स्वभाव में समानता है। तमिलनाडू के हिन्दू और मुसलमान की संस्कृति लगभग एक जैसी है। धर्म के आधार पर संस्कृति की पहचान अवैज्ञानिक तो है ही, साम्प्रदायिकरण की कोशिश है।


एक संस्कृति या पवित्र संस्कृति जैसी कोई चीज नहीं है। संसार के एक समुदाय के लोगों ने दूसरे समुदाय के लोगों से काफी कुछ ग्रहण किया है। इस आदान-प्रदान से ही समाज का विकास हुआ है। विशेषकर भारत जैसे देश में जहां विभिन्न क्षेत्रों से लोग आकर बसे वहां तो ऐसी किसी शुद्ध संस्कृति की कल्पना भी नहीं की जा सकती। यहां शक, कुषाण, पठान, अफगान, तुर्क, मुगल आए जो विभिन्न प्रदेशों के रहने वाले थे, वे अपने साथ कुछ खान-पान की आदतें, कुछ पहनने के कपड़ों का ढंग, कुछ पूजा विधान, कुछ विचार व काम करने के नए तरीके भी लेकर आए, जिनका भारतीय समाज पर गहरा असर पड़ा। कितनी ही खाने की वस्तुएं व पकाने का ढंग,इस तरह यहां के जीवन में शामिल हो गई कि कोई यह नहीं कह सकता कि ये बाहर की चीजें हैं, वे यहां के लोगों के जीवन का हिस्सा बन गई।

भाषा संस्कृति का महत्त्वपूर्ण पक्ष है। भाषा की उत्पति के साथ ही मानव जाति का सांस्कृतिक विकास हुआ है। भाषा के माध्यम से ही सामाजिक-व्यक्तिगत जीवन के कार्य चलते हैं।भाषा में ही मनोरंजन करते हैं, हंसते-रोते हैं, सुख-दुख की अभिव्यक्ति करते हैं। भाषा-बोली में व्यवहार करने वाले लोगों की रुचियों-स्वभाव की भाव-भूमि एक ही होती है। लेकिन साम्प्रदायिकता की विचारधारा भाषा को धर्म के आधार पर पहचान देकर उसका साम्प्रदायिकरण करने की कुचेष्टा करती है। जैसे हिन्दी को हिन्दुओं की भाषा मानना,पंजाबी को सिखों की और उर्दू को मुसलमानों की भाषा मानना। साम्प्रदायिक लोगों के लिए भाषा भी दूसरे धर्म के लोगों के प्रति नफरत फैलाने का औजार है। देखा जाए तो हिन्दी और उर्दू तो जुडवां बहनों की तरह हैं जो एक ही क्षेत्र से,एक ही मानस से पैदा हुई हैं। अमीर खुसरो को कौन सी भाषा का कवि कहा जाए। यदि हिन्दी के महान कथाकार मुंशी प्रेमचंद की रचनाओं से उर्दू के शब्दों को निकाल दिया जाए तो वह कैसी रचनांए बचेंगी, इसका अनुमान लगाया जा सकता है।

साम्प्रदायिकता और राष्ट्रवाद
यह बिल्कुल संभव नहीं है कि एक व्यक्ति साम्प्रदायिक भी रहे और साथ साथ राष्ट्रवादी भी रहे। किसी राष्ट्र में उसके लोग ही सबसे महत्वपूर्ण घटक है। जनता के बिना किसी राष्ट्र की कल्पना नहीं की जा सकती। राष्ट्र की मजबूती के लिए जनता में एकता व भाईचारा होना आवश्यक है। जनता में एकता और भाईचारा पैदा करने वाली शक्तियों को ही सच्चा राष्ट्रवादी कहा जा सकता है। जबकि साम्प्रदायिक शक्तियां धर्म के आधार पर देश की जनता की एकता को तोड़ती है उनमें फूट डालती है और उनको आपस में लड़वाने के लिए एक दूसरे के बारे में गलतफहमियां पैदा करती है और देश को अन्दर से खोखला करती हैं तो उनको राष्ट्रवादी किसी भी दृष्टि से नहीं कहा जा सकता। स्वतन्त्रता के लिए शहीद हुए क्रांतिकारी गणेश शंकर विद्यार्थी ने ‘राष्ट्रीयता’ पर प्रकाश डालते हुए लिखा कि ‘‘राष्ट्रीयता जातीयता नहीं है। राष्ट्रीयता धार्मिक सिद्धांतों का दायरा नहीं। राष्ट्रीयता सामाजिक बंधनों का घेरा नहीं है। राष्ट्रीयता का जन्म देश के स्वरूप से होता है। उसकी सीमाएँ देश की सीमाएं हैं प्राकृतिक विशेषता और विभिन्नता देश को संसार से अलग और स्पष्ट करती है और उसके निवासियों को एक विशेष बंधन-किसी सादृश्य के बंधन-से बांध्ती है।’’8 साम्प्रदायिकता राष्ट्रवाद की व्याख्या भी धर्म की आड़ लेकर करती है। धार्मिक मुददों का साम्प्रदायिकरण करके उसे इस तरह प्रस्तुत करती है, जैसे कि वह राष्ट्रीय सवाल हो। साम्प्रदायिक शक्तियां धर्म के साथ राष्ट्र को जोड़कर देखती हैं और दूसरे धर्मों-सम्प्रदायों के प्रति अपनी अमानवीय घृणा को राष्ट्रीय भावनाएं बताती हैं। धर्म को जिन राष्ट्रों ने सर्वोच्चता दी है उनमें कट्टरता व पिछड़ापन मौजूद है, जैसे पाकिस्तान, बंगलादेश और अरब देश । इन देशों के शासक अपनी जनता के साथ कैसा सलूक करते हैं और उनका शासन कितना ‘धार्मिक राष्ट्रवादी’ होता है उसके लिए अफगानिस्तान के तालिबानों और पाकिस्तान के पफौजी-मुल्ला गठजोड़ शासन से लगाया जा सकता है। धर्म के आधार बने राष्ट्र में सभी लोगों के लिए समानता की भावना नहीं होती।

जब राष्ट्रवादी शक्तियां कमजोर पड़ती हैं तो साम्प्रदायिक शक्तियां स्वयं को राष्ट्रवादी घोषित करके उनका स्थान लेने की कोशिश करती हैं और कई बार कामयाब भी हो जाती हैं। साम्प्रदायिक शक्तियां हमेंशा युद्ध का और युद्वोन्माद का समर्थन करती हैं,सेना और परमाणु विस्फोट समेत आधुनिक हथियारों के भंडारण की वकालत करती है और पडोसी देश पर हमला करने के लिए अखबारों, समाचार पत्रों में बयान व टिप्पणी देते हैं जिससे वे जनता की नजरों में बड़े राष्ट्रवादी बन जाते हैं।

धार्मिक बहुलता भारतीय समाज की मूलभूत विशेषता है। धर्मनिरपेक्षता असल में समाज की इस बहुलतापूर्ण पहचान की स्वीकृति है, जो अलग-अलग धार्मिक विश्वास, रखने वाले, अलग-अलग भाषाएं बोलने वाले समुदायों व अलग-अलग सामाजिक आचार-व्यवहार को रेखांकित करती है और इन बहुलताओं, विविधताओं व भिन्नताओं के सह-अस्तित्व को स्वीकार करती है, जिसमें परस्पर सहिष्णुता का भाव विद्यमान हैं। सांस्कृतिक बहुलता वाले देशों को धर्मनिरपेक्षता ही एकजुट रख सकती है। किसी भी राष्ट्र की शांति व एकता के लिए जरूरी है कि उसमें रहने वाले सभी समुदायों व वर्गों को विकास के उचित अवसर मिलें व सबमें बराबरी की भावना विकसित हो। धर्म, जाति, भाषा या अन्य किसी कारण से किसी के साथ भेदभाव करना राष्ट्रीय हितों के प्रतिकूल तो है ही मानवीय गरिमा के प्रतिकूल भी है।

संदर्भः
1 गांधीः एक पुनर्विचार ( विपन चन्द्रा के लेख) गांधी जी, धर्मनिरपेक्षता और साम्प्रदायिकता से,पृ. 49, सहमत, नई दिल्ली, 2004
2 विश्वामित्र चौधरी, भारत में साम्प्रदायिकता, पृ. 11
3 सं. ओमप्रकाश ग्रेवाल, नया पथ (जनवरी-मार्च 91), पृ. 27
4 सं. ओमप्रकाश ग्रेवाल, नया पथ (जनवरी-मार्च 91), पृ. 28
5 महात्मा गांधी, उफ. ए. मदान द्वारा उद्धृत ज्ण्ैण्प्ण् टवसण् 3ण् श्रंदण्97ण् च्ंहम 4
6 मेरी कलम से; भगतसिंह के दस्तावेज, डॉ. सुभाष चन्द्र (सं.) पृ. 10, शहीद भगतसिंह अध्ययन केन्द्र, नरवाना, 2005
7 जातियता, जातिवाद और साम्प्रदायिकता, वासुदेव शर्मा (सं.), पृ.-45, लोकजतन प्रकाशन, भोपाल, 2004
8 सामाजिक क्रांति के दस्तावेज ( भाग-1), शंभुनाथ (सं.), पृ. 620, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2004

लेखक देस हरियाणा पत्रिका के संपादक व  कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के हिन्दी-विभाग में प्रोफेसर हैं।

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