ठोस अपशिष्ट प्रबंधन – डा. हरदीप राय शर्मा

(जीवन जीने के क्रम में मनुष्य कूड़ा कचरा उत्पन्न करता है, लेकिन अब कूड़े-कचरे को ठिकाने लगाने की समस्या एक विकराल रूप धारण कर चुकी है। पर्यावरण के लिए यह संकट पैदा कर रही हैं। इसके प्रति कुछ व्यावहारिक सुझाव देता हरदीप राय शर्मा का आलेख प्रस्तुत कर रहे हैं। डा. हरदीप राय शर्मा कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय कुरुक्षेत्र के इंस्टीच्यूट आफ इन्वायरमैंटस स्टडीज में सहायक प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं। पर्यावरण के संबंध में उनकी गहरी समझ है। – सं। )

अगर हम उपयोग करके फैंके गए बैग, सकोच, पैन को एक सिरे से दूसरा सिरा जोड़ेंगे, तो वह हमारी पृथ्वी को 348 बार लपेट लेंगे
प्रत्येक वर्ष 45000 टन प्लास्टिक कचरा विश्व के समुद्रों में पहुंचता है, जिसके कारण करीब 10 लाख समुद्री पक्षी और लाखों समुद्री जीव मारे जाते हैं।

भारत में प्रत्येक व्यक्ति 100 ग्राम प्रतिदिन से लेकर 900 ग्राम कचरा उत्पन्न करता है।

प्लास्टिक/पोलिथीन कचरे को पर्यावरण में पूरी तरह खत्म होने में लगभग 80 से 100 साल तक का समय लगता है। प्लास्टिक के टुकड़े खेतों में कृषि उत्पाद को कम करते हैं, बारिशों में शहरी बाढ़ एवं जलभराव को अंजाम देते हैं। एक आंकड़े के अनुसार हमारे देश में 20 गाय प्रतिदिन प्लास्टिक बैग को खाने से मर जाती हैं।

वो पदार्थ और वस्तु जो मनुष्य के किसी काम की न हो या उसका काम समाप्त हो जाने पर फैंक दी जाए, ‘अपशिष्ट’ या आम भाषा में कूड़ा कहलाती है। उदाहरण के तौर पर टॉफी की पन्नियां, केले के छिलके, दूध व बिस्कुट आदि के खाली पैकेट हमारी रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा हैं।

अपशिष्ट के अनेक प्रकार हैं जैसे ठोस अपशिष्ट, तरल अपशिष्ट, गैसीय अपशिष्ट, औद्योगिक अपशिष्ट, घरेलू अपशिष्ट, व्यापारिक अपशिष्ट, खतरनाक मलजल स्टेज, खानकर्म संबंधी, चिकित्सा संबंधी, कृषि संबंधी, शहरी अपशिष्ट आदि…

घरों से निकलने वाले अपशिष्ट हैं – खाली बोतलें, डिब्बे, रद्दी-कागज, फलों और सब्जियों के छिलके, बचा हुआ या खराब भोजन, पोलिथीन आदि।

दुकानों से निकलने वाले अपशिष्ट हैं – रद्दी कागज, पोलिथीन, खाली पैकेट, डिब्बे आदि

चिकित्सा संबंधी अपशिष्ट में दवाई की खाली शीशियां, एक्सपाईरी दवाइयां, इस्तेमाल की गई सिरिंज, गलोवज, पट्टियां आदि आते हैं।

निर्माण तथा दहन अपशिष्ट में कचरा, कंकरीट, लकड़ी-लोहे के अपशिष्ट, रोड़ी ईंटें आदि आती हैं।

औद्योगिक अपशिष्ट में भी बहुत से पदार्थ आते हैं जोकि उस औद्योगिक इकाई, उसमें इस्तेमाल होने वाला कच्चा माल, औद्योगिक क्रिया पर निर्भर करते हैं। औद्योगिक अपशिष्ट के मुख्य स्रोत हैं रसायनिक उद्योग, धातु एवं खनिज संसाधन उद्योग। अणु बिजली घरों से रेडियोधर्मी अपशिष्ट उत्पन्न होते हैं। ताप बिजली घरों से प्रचूर मात्रा में फलाई व बोटम आस्क पैदा होती है।

खराब कम्पयूटर, इलैक्ट्रोनिक सर्किट, खराब मोबाइल ये सब ई-वेस्ट का हिस्सा बनते हैं। अपशिष्ट पदार्थों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। एक वो जो सूक्ष्म जीवों की क्रिया से अपघटित हो जाते हैं। उन्हें हम जैव उपघटनकारी अपशिष्ट कहते हैं। दूसरे वो जो सूक्ष्म जीवों द्वारा अपघटित नहीं हो सकते।

अपशिष्ट प्रबंधन

किसी भी प्रकार के अपशिष्ट प्रबंधन के अंतर्गत छः कार्य आते हैं।

पहला – अपशिष्ट उत्पादन: यह प्रक्रिया हमारे हाथ में न होकर अपशिष्ट पैदा करने वाले के हाथ में होती है। क्योंकि कब, किस समय किस वस्तु को अपशिष्ट बनाना है, यह तो उसके निर्माता या उसके उपभोक्ता पर निर्भर करता है।

दूसरा – अपशिष्ट स्रोत पर अपशिष्ट का पृथक्कीकरण, जमाकरण एवं प्रसंस्करण, जिसमें अपशिष्ट में से पुनःप्रयोग में आए जा सकने वाली चीजों को अलग करना, बचे हुए कूड़े को कूड़ादान में डालना, ये कार्य भी मुख्यतः घर, दुकान, उद्योग, फैक्टरी के मालिक/मुखिया के अंतर्गत आता है।

तीसरा – अपशिष्ट का विभिन्न-विभिन्न जगहों से इकट्ठा करके उसे अपशिष्ट निपटान या उसे पृथक्कीरण के स्थान पर भेजना। अपशिष्ट प्रबंधन पर कुल आने वाली लागत का लगभग 50 प्रतिशत इसी तीसरे पहलू पर खर्च होता है और यह कार्य नगरपालिका, निजी कंपनियों या गैर सरकारी संगठनों के तहत आता है।

चौथा – अपशिष्ट पृथक्कीकरण के स्थान पर मशीनों व मानवशक्ति द्वारा अपशिष्ट को जैविक, अजैविक, धातु, ज्लवनशील आदि भागों में विभक्त करना। इस स्थान पर अपशिष्ट में से सभी काम आ सकने वाली वस्तुएं अलग कर ली जाती हैं ।

पांचवां – अपशिष्ट स्थानांतरण में छोटे वाहनों द्वारा भीड़ भरे इलाकों से इकट्ठा किए गए कूड़े-कचरे अपशिष्ट को बड़े वाहन में स्थानांतरित किया जाता है। अपशिष्ट परिवहन में अपशिष्ट को दूरदराज स्थान पर निपटान हेतु भेजा जाता है। परिवहन में ट्रकों, रेल यातायात और पानी के जहाज का इस्तेमाल भी काफी मामलों में हुआ है।

छटा – अपशिष्ट निपटान प्रक्रिया जिसमें 6 तरीके आते हैं, जिसमें भूमि भराव और भष्मीकरण प्रमुख है।

औद्योगिक ठोस अपशिष्ट, विषैले धातुओं का स्रोत होते हैं। ऐसे संकटकारी अपशिष्ट भूमि पर फैल कर वहां की भौतिक, रासायनिक एवं जैविक विशेषताओं को बदल सकते हैं। जिससे भूमि की उत्पादकता भंग होती है। विषैले पदार्थ रिसकर नीचे चले जाते हैं तथा भूमिगत जल को प्रदूषित करते हैं। कचरे के सुचारू निपटान न होने से उस स्थान की भू-आकृति नष्ट होती है और उसे जलाने से वायु प्रदूषण होता है।

ठोस अपशिष्ट पदार्थों के प्रभाव

शहरी ठोस कूड़ा कर्कट सुचारू निपटान न होने के कारण सड़कों, रास्तों एवं खाली जगहों पर ढेरों में पड़ा रहता है। इस तरह के निपटान से जैविक अपघटनकारी पदार्थ खुले में एवं अस्वस्थ अवस्था में अपघटित होने लगता है। इससे दुर्गंध उत्पन्न होती है तथा इसमें बहुत से मक्खी, मच्छर और अन्य कीट पलने लगते हैं, जो कई प्रकार के रोगों को फैलाते हैं। फैले हुए कचरे के ढेर आवारा पशुओं जैसे कि गायों, कुत्तों, सुअरों आदि को आकर्षित करते हैं। कभी-कभी देखने में आता है कि नर्सिंग होम आदि का कचरा आदि भी नगरपालिका के कचरे के साथ ही फैंक दिया जाता है, जो कि कचरा उठाने वाले कर्मचारियों और कूड़ा बीनने वाले गरीब व्यक्तियों की सेहत के लिए नुक्सानदायक होता है।

औद्योगिक ठोस अपशिष्ट, विषैले धातुओं का स्रोत होते हैं। ऐसे संकटकारी अपशिष्ट भूमि पर फैल कर वहां की भौतिक, रासायनिक एवं जैविक विशेषताओं को बदल सकते हैं। जिससे भूमि की उत्पादकता भंग होती है। विषैले पदार्थ रिसकर नीचे चले जाते हैं तथा भूमिगत जल को प्रदूषित करते हैं। कचरे के सुचारू निपटान न होने से उस स्थान की भू-आकृति नष्ट होती है और उसे जलाने से वायु प्रदूषण होता है। ठोस अपशिष्ट से होने वाले प्रभाव का एक उदाहरण है।

लव कैनाल दुर्घटना जोकि न्यूयार्क के नियागरा फाल्स के एक उपनगर में हुई थी। लव कैनाल नाम की एक नहर विलियम लव द्वारा बनाई गई थी। इसे खोद कर उसमें हूकर्स कैमिकल एंड प्लास्टिक कार्पोरेशन द्वारा 1942 से 1953 तक रसायनिक कचरे के बंद स्टेड के डिब्बे फैंके जाते रहे। 1953 में कम्पनी ने इस निपटान स्थान को मिट्टी एवं ऊपरी तह भूमि से ढककर नगर के शिक्षा बोर्ड को बेच दिया। बोर्ड ने वहां एक प्राईमरी स्कूल और घरों का निर्माण किया। सन् 1976 में रहने वालों ने दुर्गंध आने की शिकायत की तथा उस जगह पर खेलने वाले बच्चों को रसायनिक जलन व धब्बे होने लगे। सन् 1977 में, स्टील डिब्बों को जंग लगने से, उनमें बंद रसायन रिसने लगे तथा मलजल नालियों में आने लगे तथा घरों एवं स्कूल के तलों में भी आने लगे। इस रिसाव में 26 के करीब विषैले पदार्थों की पहचान की गई। इस निपटान स्थान को चिकनी मिट्टी से फिर ढका गया तथा रिसने वाले अपशिष्टों को पम्पों द्वारा निकाल कर साफ करने के लिए भेजा गया तथा प्रभावित परिवारों के पुनर्वास का प्रबंध किया गया। लव कैनाल जैसे और भी बहुत से निपटान स्थान हो सकते हैं जो कि भूमिगत प्रदूषण के साथ-साथ वहां रहने वालों को भी नुक्सान पहुंचा रहे हों।

साहित्य में कम्पोस्ट बनाने का पहला संगठित उपयोग 1930 में भारत के इंदौर शहर में किया गया और इस प्रक्रिया को इंदौर प्रक्रिया भी कहते हैं। किसानों द्वारा जानवरों के गोबर को कुछ साल तक इकट्ठा कर पुनः उसका उपयोग खेतों में खाद के रूप् में करना भी कम्पोस्ट बनाने की प्राचीन विधि है। कभी-कभी हम लोग अपने बगीचे में जब गड्ढा खोद कर उसमें पत्ते आदि डालकर उसे पुनः मिट्टी से भर देते हैं, यह भी एक कम्पोस्ट बनाने का ही तरीका है। कम्पोस्ट बनाने के लिए केंचुओं का उपयोग करके काफी गैर-सरकारी संस्थाएं केंचुआ खाद का उत्पादन कर अच्छी आमदनी कर रही हैं और अपशिष्ट प्रबंधन में अपना योगदान दे रही हैं।

कचरा निपटान के विभिन्न तरीके

पहला आम तरीका है कचरे को किसी खुली जगह पर फैंक देना। हमारे भारत में यह तरीका काफी प्रचलन में है। काफी शहरों को नगरपालिका भी कचरे को इकट्ठा कर उसे शहर से कहीं दूर खाली जगह पर फैंक देती है, जिससे अलग-अलग तरह की पर्यावरण संबंधी समस्याएं उत्पन्न होती हैं।

दूसरा तरीका है कचरे को आबादी से दूर किसी जगह पर फैंक कर उसे मिट्टी से ढक देना, जिससे कि वहां मक्खी, मच्छर, कीट आदि आकर्षित न हों और न ही उनका प्रजनन हो। इस तरीके से कचरे से उठने वाली दुर्गंध भी कम हो जाती है। यह तरीका ठीक उसी प्रकार का है, जिस प्रकार एक बिल्ली अपने मल को मिट्टी से ढक देती है।

तीसरा तरीका है स्वास्थ्यकर भूमि भराव। इस तरीके के अंतर्गत सबसे पहले उपयुक्त जगह का चुनाव किया जाता है। जगह का चयन करते समय उस स्थान की मिट्टी, भूमिजल का स्तर, आबादी से दूरी, सड़कों द्वारा आसानी से पहुंच, स्थानीय जलवायु परिस्थितियों का विशेष ध्यान रखा जाता है। उपयुक्त जगह का चयन होने के बाद उस स्थान की जल निकासी का भी काम भी किया जाता है, जिससे बारिश के मौसम में वहां जल भराव की समस्या न हो। इन सब के बाद वहां पर खुदाई करके उस भूमि तल को ऊपरगामी पट्टियों जोकि प्रायः चिकनी मिट्टी की कई तहें, अच्छी क्वालिटी के प्लास्टिक या अन्य जियोटैक्सटाइल (भू-वस्त्र)  को बिछाया जाता है। ये तहें कचरे से रिसने वाले घुलाव को भूमि जल में जाने से रोकते हैं। तहों को अच्छी प्रकार भूमि तल व दीवार की ओर बिछाने के बाद उसमें कचरे को पतली तहों में फैलाया जाता है। कचरे को फैलाने से पहले उसमें से ग्लास, लोहे, एल्यूमीनियम के टुकड़े, प्लास्टिक, चमड़ा, कपड़ा, कागज आदि को अलग कर लिया जाता है। कचरे को खोदी हुई जगह पर फैंकने के बाद उसकी अच्छी तरह से दबाई की जाती है और फिर उसे चिकनी मिट्टी, ईंट भट्ठे या किसी फैक्ट्री की राख से ढक दिया जाता है। जब भूमि भराव पूरा हो जाता है, तो पुनः इसे चिकनी मिट्टी, रेत-बजरी तथा ऊपरी भूमि से ढक दिया जाता है, ताकि बारिश का या अन्य पानी रिसकर अन्दर न जा सके। भूमि भराव के निकट कुछ कुएं भी खोदे जाते हैं, जिनसे यह पता लगता है कि कहीं भूमि भराव का कोई रिसाव भूमिगत पानी को प्रदूषित तो नहीं कर रहा? भूमि भराव से उत्पन्न होने वाली गैस जिसे हम लैंडबिल गैस कहते हैं, इकट्ठी कर ली जाती है और कहीं-कहीं ऊष्मा एवं बिजली पैदा करने के लिए जलाई जाती है।

स्वास्थ्यकर भूमि भराव के बाद विभिन्न प्रकार के कचरे भस्मीकरण प्रबंधन का दूसरा ऐसा मुख्य उपाय है, जिसमें कचरे के ज्वलनशील पदार्थों को ऊंचे तापमान पर भस्म कर दिया जाता है। इस उपाय का मुख्य उद्देश्य कचरे की मात्रा और संक्रामकता को कम करने के साथ-साथ उसमें से ऊर्जा उत्पादन करना भी होता है। कचरे को जलाने से पहले उसे छोटे-छोटे टुकड़ों में काटकर सुखा लिया जाता है, जिससे कि वो आसानी से जल जाए। जलाने वाले कचरे में प्लास्टिक, धातुओं और ईंट पत्थरों का होना कचरा भट्ठी की उम्र व क्षमता को कम कर देता है। पृथक-पृथक कचरे के लिए विभिन्न-विभिन्न प्रकार की कचरा-भट्ठियों का उपयोग होता है ।

अपशिष्ट निपटान का पांचवां तरीका है जानवरों के उपयोग में लाना है। इस तरीके में होस्टलों, होटलों, बड़े समारोहों के बचे हुए खाने को एकत्रित करके उसे सुअरों को खिलाया जाता है। इससे जहां एक तरफ खाने का उपयोग होता है, वहीं दूसरी ओर कचरे की मात्रा में कमी आती है।

छटा तरीका है कम्पोस्ट बनाना। इस प्रक्रिया के तहत कचरे में से जैविक उपघटनकारी घरेलू कचरे को अन्य कचरे से अलग कर लिया जाता है। फिर उस कचरे में आर्द्रता, तापमान, पोषक तत्वों, आमाप को संतुलित करके उसे जैविक खाद में तब्दील किया जाता है। इससे एक अच्छी प्रकार की पोषक समृद्ध तथा पर्यावरण-प्रिय खाद बन जाती है जो भूमि की हालत को सुधार कर उसकी उपजाऊ शक्ति को बढ़ाती है।

साहित्य में कम्पोस्ट बनाने का पहला संगठित उपयोग 1930 में भारत के इंदौर शहर में किया गया और इस प्रक्रिया को इंदौर प्रक्रिया भी कहते हैं। किसानों द्वारा जानवरों के गोबर को कुछ साल तक इकट्ठा कर पुनः उसका उपयोग खेतों में खाद के रूप् में करना भी कम्पोस्ट बनाने की प्राचीन विधि है। कभी-कभी हम लोग अपने बगीचे में जब गड्ढा खोद कर उसमें पत्ते आदि डालकर उसे पुनः मिट्टी से भर देते हैं, यह भी एक कम्पोस्ट बनाने का ही तरीका है। कम्पोस्ट बनाने के लिए केंचुओं का उपयोग करके काफी गैर-सरकारी संस्थाएं केंचुआ खाद का उत्पादन कर अच्छी आमदनी कर रही हैं और अपशिष्ट प्रबंधन में अपना योगदान दे रही हैं।

ठोस अपशिष्ट निवारण के लिए पांच बातों पर जोर दिया जाता है।

पदार्थ के इस्तेमाल में होने वाले कच्चे माल को कम इस्तेमाल करना, किसी वस्तु या सामान की इस्तेमाल अवधी को बढ़ाना।

पुर्नर्विचार करना-किसी सामान को खरीदने से पहले यह सोचना चाहिए कि वाकई हमें इसकी जरूरत है।

अपशिष्ट पदार्थों का पुनः प्रयोगः वे डिब्बे अथवा बर्तन को पुनः भरे जा सकते हैं परन्तु फैंक दिए जाते हैं। दुबारा प्रयोग में लाए जा सकते हैं

पदार्थों का पुनःसंसाधन। पुनःसंसाधन का अर्थ है कि फैंकी हुई वस्तुओं जैसे ग्लास, एल्यूमीनियम, लोहे, कागज, प्लास्टिक आदि को पिंघलाकर, गलाकर नए पदार्थ बनाना।

अपशिष्ट की वसूली करना – इसमें कचरे के जमाकरण के स्थान पर ग्लास, एल्यूमीनियम, लोहे, कागज, प्लास्टिक आदि को छांट कर अलग किया जाता है।

इन सभी क्रियाओं से पैसे ऊर्जा, कच्चे माल, भूमि स्थान की बचत होती है तथा प्रदूषण भी कम होता है। कागज का पुनःप्रयोग नया कागज बनाने के लिए वृक्षों की कटाई को कम करेगा। धातुओं का पुनः प्रयोग खनिकर्म को कम करेगा तथा धातु को साफ करने के लिए कम पिंघलाव होगा, जिससे प्रदूषण भी कम होगा।

अपशिष्ट उत्पाद हमारी दैनिक क्रियायों का अभिन्न भाग है, जिसे हम रोक तो नहीं सकते, लेकिन अपनी समझ-बूझ से कम अवश्य कर सकते हैं।

संपर्क – 90349-41121

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