( सिद्दीक अहमद मेव पेशे से इंजीनियर हैं, हरियाणा सरकार में कार्यरत हैं। मेवाती समाज, साहित्य, संस्कृति के इतिहासकार हैं। इनकी मेवात पर कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। मेवाती लोक साहित्य और संस्कृति के अनछुए पहलुओं पर शोधपरक लेखन में निरंतर सक्रिय हैं। मेवाती संस्कृति के विभिन्न पहलुओं को उद्घाटित करता उनका लेख यहां प्रस्तुत है – सं)
संस्कृति किसी भी समाज, जाति अथवा क्षेत्र का आईना होती है । लोगों का रहन-सहन, खान-पान, आचार-विचार, रीति-रिवाज, वेषभूषा, खेल-कूद, मनोंरजन के साधन, पर्व और उत्सव, लोक कला एवं लोक साहित्य आदि सब मिलकर संस्कृतियों को समृद्ध और सम्पन्न बनाते हैं । इसलिए कहा जा सकता है कि केवल कला कौशल, शिल्प, हवेलियाँ, महल, मंदिर, मसजिद और गढ़ एवं किले ही नहीं, झौंपिडयाँ भी संस्कृति के दर्पण होते हैं । संक्षेप में कहें तो मनुष्य को जो चीज मुनष्य बनाती है, वह संस्कृति है । संस्कृति से कटकर कौमें दिशाहीन हो जाया करती हैं।
भारत एक विशाल देश है। क्षेत्रफल के लिहाज से ही नहीं, संस्कृति के लिहाज से भी। इस देश में जिस तरह से सामाजिक, धार्मिक, सामुदायिक, भौगौलिक और भाषायी विभिन्निताएं हैं, उसी प्रकार सांस्कृतिक विभिन्नताएं भी हैं। राजस्थानी संस्कृति, गुजराती संस्कृति, तमिल संस्कृति इत्यादि । फिर संस्कृतियों के अन्दर भी संस्कृतियां है, जैसे राजस्थानी संस्कृति के अन्दर मेवाड़ी मारवाडी और मेवाती आदि । मगर ये छोटी-छोटी लोक संस्कृतियाँ ही मिलकर एक समृद्व, सम्पन्न और सम्पूर्ण भारतीय, संस्कृति का निर्माण करती हैं और जिस तरह सामाजिक, धार्मिक, सामुदायिक, भौगोलिक और भाषायी विभिन्नताओं के बावजूद सम्पूर्ण भारत एक है, उसी तरह अनेक संस्कृतियों के बावजूद सांस्कृतिक भारत भी एक है ।
भारतीय संस्कृति ने इतिहास के अनेक उतार-चढाव देखे हैं । द्रविड, आर्य, हूण, कुषाण , यूनानी अरब, पठान, तुर्क, मुगल और अंग्रेज सब आये और चले गये। मगर ये सभी अपनी भाषा, अपनी संस्कृति, अपनी वेशभूषा और अपनी परम्पराएं भी साथ लाये थे कुछ हमने इनको दिया और कुछ हमने इनसे लिया, इस प्रकार विभिन्न संस्कृतियां के आदान-प्रदान से जिस भारतीय संस्कृति का निर्माण हुआ, वह ‘गंगा जमनी’ भारतीय संस्कृति आज सम्पूर्ण विश्व में विभिन्नताओं में एकता की एक ऐसी मिसाल है , यहाँ ऐवज शायर व भजन लिखता है तो सुगन चन्द मुकतेश पैगम्बर मुहम्मद पर महाकाव्य। हिन्दू सांगी मेव मुसलमानों का मनोरंजन करते हैं, तो मेव ( मुस्लिम) कलाकार रामलीलाओं के मंचन को सफल बनाते हैं ।
मेवाती संस्कृति भी उन हजारों लोक संस्कृतियों मे से एक है जो मिलकर भारतीय संस्कृति का निर्माण करती हैं । यह भी ऐसी ही एक संस्कृति है जो कई धार्मिक, सामाजिक, सामुदायिक, भौगोलिक एवं भाषायी (बोली) विभिन्नताओं के बावजूद ‘मेवाती संस्कृति’ कहलाती है, जो इतिहास के अनेक उतार-चढ़ाव देखने के पश्चात् भी पूरे वैभव और शान के साथ अपने अतीत की मजबूत बुनियादों पर खड़ी है ।
वास्तव में किसी विशेष क्षेत्र में रहने वाले लोगों का एक जैसा रहन-सहन, आचार-विचार, सामाजिक जीवन, वेषभूषा एवं भाषा-बोली एक या कुछ ही दिन में विकासित नहीं हो जाते, बल्कि यह सदियों की सतत् प्रक्रिया है, जिसमें रंग, नस्ल, जाति एवं सम्प्रदाय का कोई भेद-भाव नही होता। ‘मेवाती संस्कृति इसका एक जीवन्त उदारहण है, जहाँ न केवल विभिन्न सम्प्रदायों के लोगों के बीच अटूट सामाजिक सम्बन्ध हैं, बल्कि उनका लोक साहित्य भी हिन्दू एवं मुस्लिम ‘मिथ’ का सूबसूरत संगम है। सादल्लाह, ऐजव, नबी खाँ, खक्के एवं सूरजमल ने जहाँ होली और भजन लिखे हैं, वही राजु सहजो व कोक आदि हिन्दू शायरों ने जहाँ तैंतीस कोटि देवताओं का बखान किया है, वहीं हिन्दू शायर भी पैगम्बर और ख्वाजा अजमेरी को शीश नवाते नजर आते हैं। एक ही दोहे में पाण्डव, राम, हनुमान, अली और अल्लाह का वर्णन मेवाती शायरी का ही कमाल है । बुराई का प्रतीक ‘रावण’ और अच्छाई की मिसाल ‘राम‘ को मेव शायरों ने मुस्लिम मिथ को अपनी शायरी का केन्द्र बिन्दू बनाया है। मुस्लिम (मेव) शायरों ने भी इसी तरह अपनी शायरी का ‘केन्द्र’ बनाया है, जिस तरह किसी भारतीय शायर को बनाना चाहिए !
राम चन्द्र बण में फिरो, पाँचू पण्डू फिरा परदेस!
हरीश्चन्द्र बिकतो फिरो , नरन पे बिपदा पड़ी हमेश !!
पर नारी पैनी छुरी तीन ठौर सू खाय !
धन लूटे, जौबन हड़े , लाज कुटम की जाय !!
मेवात का ‘बात साहित्य’ हमारी मिश्रित संस्कृति की अटूट पहचान है । ‘गौरा का छल (शिव महिमा), चन्द्रावल गूजरी (कृष्ण लाली) और ‘राजा बासुक की बात जहाँ हिन्दू मिथक पर रची गई कथाएं हैं वही ‘जैतून जौधिया’, ‘हाजी कासम की बात’ और ‘हजरत अली की बात’ मुस्लिम मिथ का आईना हैं । मगर इन बातों (कथाओं) को कहने और सुनने वाले, हिन्दू या मुसलमान नहीं बल्कि बिना किसी भेद-भाव के ‘मेवाती’ है । महाकवि सादल्लाह द्वारा रचित ‘पण्डून का कडा’ (मेवाती महाभारत) तो मेवातियों विशेषकर मेव मुसलमानों के सामाजिक अत्सवों (शादी -विवाह अकीका आदि) का अटूट अंग है । महाकवि सादल्लाह की यह कालजयी रचना सैंकडों सालों से आम मेवाती के दिल-ओ-दिमाग पर आज भी रची-बसी हुई है ।
सम्पूर्ण मेव (मुस्लिम) समाज बारह पालों व एक पल्लाकड़ा तथा 52 गोतों में बटा हुआ है । विशेष बात यह है कि बारह में पाँच पाल जादू अर्थात यदुवंशी मानी जाती हैं, जो अपने को श्री कृष्ण के वंशज मानते हैं । चार पाल सूर्य वंशी मानी जाती हैं, जो अपने को पाण्डवों का वंशज मानते हैं। देंहगल पाल वाले अपने आपको रामचन्द्र का वंशज मानते हैं तो पाहट (पल्लाकड़ा) अपने को चौहान कहलाने पर गर्व करते हैं । सींगल पाल का सम्बन्ध बडगूजरों से है। ये ही नहीं डागर, रावत व सहरावत गोत्रीय जाटों की चौधराहटें क्रमशः देंहगल (घासेडियां) डेमरौत (अली मेव) व छिरकलौत (कोटिया) मेवों में है । उजीना व संगैल के छौक्कर राजपूतों का सम्बन्ध भी रूपड़िया छिरकलौंतों के साथ है। इसके अतिरिक्त मेवों के अट्ठाईस गोत, जैसे चौहान, पंवार, चालुक्य, तंवर , बड़गूजर, कटारिया आदि वही हैं, जो जाटों, राजपूतों एवं गूजरों में है। यही कारण है कि आज भी मेव अपने आपको ‘क्षत्रीय‘ कहलाने पर गर्व करता है ।
यह सही है कि आर्य समाज ने मेवात में रहने वाले जाटों, सैनियों, गूजरों, वैश्यों व अन्य हिन्दुओं को वैदिक शिक्षा का पाठ-पढाकर विशुद्ध हिन्दू संस्कृति से जोड़ने का प्रयास किया है और ‘तबलीग आन्दोलन’ ने मेवों को इस्लामी शिक्षा का पाठ पढाया है, मगर इतने लम्बे समय के अथक प्रयासों के बावजूद क्या वे उनका मेवातीपन परवर्तित कर पाये हैं? क्या वे उनके आचार-विचार, रहन-सहन, चरित्र, व्यवहार आदि को बदल पाये हैं ? शायद नहीं या फिर आंशिक रूप से ही ।
मेवाती वेश भूषा अवश्य बदली है । घाघरी और चोली का स्थान पहले खूसनी-कमीज ने और अब पंजाबी सूट ने ले लिया है तो धोती-कमरी का स्थान तहमद-कमीज अथवा तहमद-कमीज अथवा कुर्ते ने। मगर बनाती जूती और मेवाती पगड़ी आज भी उसी शान व गौरव का प्रतीक मानी जाती हैं। कड़ा, नेवरी, छण, पछेली , हंसली, बिच्छू, हार, हमेल और पचमणिया आदि में से अनेक गहने गायब हो चुके हैं। मगर इसे धार्मिक नजरिये से न देख ‘समय के साथ बदलाव‘ के नजरिये से देखा जाना शायद ज्यादा उचित होगा ।
शादी व अकीकी आदि पर चाक व कुआँ पूजन , भात, मांडा आदि रस्में आज भी यदि जारी हैं तो यह मेवाती मिश्रित संस्कृति की मजबूत विरासत का ही परिणाम है ।
इसी तरह हल-बैलों से खेती तबलीग से पहले भी होती थी और तबलीग के बाद भी। हाली और गढवाला (गाडीवान) तबलीग से पहले भी बिरहड़ा रतवाई और रसिया गाते थे और बाद में भी, मगर ट्रैक्टर आया। हल-बैल , गाड़ी समाप्त हो गये, साथ ही बिरहड़ा रतवाई और रसिया गाने वाले हाली और गड़वाले भी। यही हाल रथ-बहली और उनके गड़वालों का भी हुआ। यही नहीं ट्रेक्टर व थ्रेशर आये तो खलिहान (पेर) समाप्त हो गये। इनके साथ ही समाप्त हो गई बैशाख व जेठ की लम्बी रातों में बात कहने की परम्परा!
मगर सबसे बड़ी हानि हुई टेलीविजन के आने से। टी.वी. आ गया तो माँ, दादी या नानी से बात सुनने की परम्परा भी समाप्त हो गई। बच्चों द्वारा ‘फाली आडने’ का समय उनके पास कहाँ रहा। टी.वी. ने ही ग्रामीण क्षेत्रों में क्रिकेट को लोकप्रिय किया, जो हमारे सारे ग्रामीण खेंलो को निगल गई। कुश्ती-कबड्डी ही नहीं हुद्दा-गींद, गंगू-बल्ला, नूणा-शिकारी, किलाई-डंडा हाबड़ दूस आदि सब टी.वी. व क्रिकेट पर कुर्बान हो गये। अब शादी-विवाह और अकीका आदि के अवसर पर मीरासी या ढोला नही सुना जाता बल्कि टी.वी. लाकर रख दिया जाता है । यदि पुरानी पीढी के लोग ‘पन्डून का कड़ा’ अथवा कोई बात सुनना चाहें तो फिर पुरानी पीढी अलग और नई पीढ़ी अलग । कैसी विंडबना है कि हमारी नई पीढ़ी ‘पंजाबी पोप’ तो सुनना पसंद करती है जो उसकी समझ में भी नही आता, मगर अपने दोहों, गानों आदि को वह अनपढों, जाहिलों एवं पिछड़े लोगों की विरासत समझती है। हमारी नई पीढ़ी की यह सोच दुर्भाग्यशाली ही नहीं बल्कि एक गंभीर चूक भी है। अपनी संस्कृति, अपने लोक साहित्य, अपनी भाषा और अपनी परम्पराओं से कटकर, भला कोई कैसे अपनी पहचान कायम रख सकता है। अपने अतीत से कटकर क्या हम अपने भविष्य को संवार पायेंगे? यह अत्यन्त महत्वपूर्ण सवाल है जिसे प्रत्येक समझदार मेवाती आज अपने आपसे पूछ रहा है ।
हमारा अतीत ही तो हमारा इतिहास है और यही इतिहास हमारी विरासत भी है और प्रेरणा भी। फिर पने अतीत से कटकर क्या हम अपनी पहचान कायम रख पायेंगे? कहना कठिन है। इसलिए जरूरी है कि हम अपनी विरासत अर्थात मेवाती संस्कृति एवं उसका विकास हमारी प्राथमिकता में हो, ताकि हमारी नई पीढ़ी दिशाहीन न हो ।
सिक्के का एक पहलू और भी है जिसने हमारी लड़ाई के स्वरूप को ही बदल दिया है। वैश्वीकरण के बाद टेलीविजन और सिनेमा के माध्यम से पश्चिमी संस्कृति ने जिस तेजी के साथ हमारी संस्कृति पर हमला बोला है, उसने हमारी लोक संस्कृतियों को ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति के अस्तिव को ही खतरा पैदा कर दिया है जिसके कारण आज अपनी संस्कृति को बचाने रखने की लड़ाई पहले नम्बर पर आ गई है और इसके विकास का प्रयास दूसरे नम्बर पर चला गया है ।
मगर अपनी संस्कृति की सुरक्षा, इसका संरक्षण एवं इसका विकास हमें करना होगा और यह हुनर हम बखूबी जानते भी हैं । गिर कर उठना और उठकर लड़ना हमारा स्वाभाविक गुण रहा है। प्रत्येक लड़ाई से सुर्खरू होकर निकलना हमारी परम्परा रही है और उस परम्परा का निर्वाह करना हम बखूबी जानते हैं।
मगर इसके लिए सबसे हमें अपनी सोच को सही दिशा देनी होगी। जिसके लिए जरूरी है कि सबसे पहले हम अपने आपको ‘मेवाती’ कहलाने पर गर्व महसूस करें। हमें इस बात पर गर्व हो कि हम मेवातियों का भी एक शानदार एवं गौरवपूर्ण इतिहास है। हमारी भी एक समृद्ध एवं सुन्दर संस्कृति है। हमारे भी अपने पर्व, त्यौहार, परम्पराएँ एवं रीति-रिवाज हैं। हमारा अपना लोक साहित्य है, हमारी अपनी लोक कलाएं हैं, लोक नृत्य हैं, लोक वार्ताएं हैं और लोक संगीत हैं। हमें न केवल अपने लोक साहित्य पर गर्व ही हो, बल्कि इसकी गहन जारकारी भी हो ताकि दूसरे लोगों की तरह अपने घरों व समाज में मेवाती भाषा, मेवाती परम्पराओं और मेवाती रीति-रिवाजों का स्वतन्त्रतापूर्वक निर्वाह कर सकें। हमें इस चीज का ज्ञान हो कि मेवाती भाषा एवं मेवाती लोक साहित्य किसी से भी कम नहीं है। भला जिस क्षेत्र में बात-बात पर कहावतों, मुहावरों, लोकोक्तियों, दोहों और छन्दों का प्रयोग होता हो, उस क्षेत्र की भाषा भला कैसे किसी से कम हो सकती है।
मगर पहले हम स्वयं अपनी भाषा, अपनी संस्कृति एवं अपने लोक साहित्य पर गर्व करें, तभी हम दूसरे लोगों को इसके महत्त्व को समझा पायेंगे। झूठे श्रेष्ठ बोध अथवा हीन भावना के कारण हम पहले ही मेवाती लोक साहित्य एवं संस्कृति को काफी हानि पहुँचा चुके हैं। हालात तो आज भी ऐसे हो गये है कि
तांत गई, तूंबी गई, टूट गया सब तार!
सुणन वाला ना रहा, बस रही बजावणहार !!
मेवात के इतिहास, संस्कृति एवं लोक साहित्य का योजनाबद्ध तरीके से संकलन, संरक्षण, सम्पादन और प्रकाशन किया जाय। इसके सथ ही मेवाती इतिहास, संस्कृति, लोक साहित्य, लोक कवियों एवं उनकी रचनाओं, और मेवात के इतिहास पुरुषों एवं उनके जीवन व कार्यों पर गहन तथा विस्तृत शोध हो, किताबें, लेख एवं निबन्ध लिखे जायें और उनका प्रकाशन हो, ताकि हमारी नई पीढी ही नहीं, पूरी दुनिया देख सके कि ज्ञान और चातुर्य का सूरज मेवात में भी चमकता है ।
इस कार्य को सुचारू रूप से चलाने के लिए जरूरी है कि ‘मेवाती’ इतिहास एवं संस्कृति अकादमी की स्थापना की जाय, जो राज्य एवं केन्द्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त हो ताकि इसके द्वारा प्रकाशित सामग्री की प्रमाणिकता पर किसी को कोई शंका न हो।
मगर बात फिर घूम-फिर कर वहीं आ जाती है कि यदि हम आगे बढ़ना चाहते है तो पहल भी हमें ही करनी पड़ेगी । अपनी संस्कृति एवं लोक साहित्य के सरंक्षण और विकास के लिए सबसे पहले हमें ही कदम उठाना होगा। अपने लोक साहित्य में नये प्रयोग तथा नई-नई रचनाएं कर, बदलते हुए समय के साथ तालमेल बिठाना पड़ेगा। क्योकि भाषा वही समृद्ध होती है जो दूसरी भाषाओं के शब्द अपने अन्दर समायोजित कर सके। इसी प्रकार संस्कृति भी वही समृद्ध होती है जो दूसरी संस्कृतियों के साथ समायोजन कर, विचारों, परम्पराओं एवं साहित्यिक रचनाओं का आदान-प्रदान कर सके। मेवाती संस्कृति एवं लोक साहित्य की विशेषता तथा गहराई से परिचित करवायें ताकि संस्कृति एवं साहित्य के आदान-प्रदान का सिलसिला शुरू किया जा सके। मेवात में तो प्रचलित भी है, चातर सू चातर मिले, ज्ञान सवायो होय।
वीर, श्रृंगार, विरह, भक्ति, प्रेम और उपदेशात्मक दोहों का अथाह भण्डार तथा मुहावरों, लोकोक्तियों, लोक वार्ताओं, लोक गीतों, पहेलियों एवं लोक कथाओं से भरपूर मेवाती लोक साहित्य तथा हिन्दू-मुस्लिम मिश्रित परम्पराओं वाली मेवाती संस्कृति यदि अब तक उपेक्षित रही है। मगर अब ‘बीती ताहि बिसार कर’ जो कुछ बचा है यदि उसे भी संभाल लिया जाये तो भारतीय लोक संस्कृति के एक समृद्ध एवं अमूल्य भाग को बचाया जा सकता है। हमें यह करना चाहिए और करना पड़ेगा क्योंकि मेवाती संस्कृति हमारी अमूल्य धरोहर है ।
संपर्कः 9813800164