लघु कथा
(ग्रामीण विभाग के अधीक्षक पद से सेवानिवृत कृष्णचंद महादेविया हिमाचल प्रदेश के मंडी जिले के सुंदर नगर में रहते हैं। मूलतः लघुकथा व एंकाकी लेखक हैं और हिमाचल के लोक साहित्य के जानकार हैं -सं.)
‘मैं राज शर्मा, कनगढ़ से। यहां बैंक में कैशियर हूं।’ राज शर्मा का स्वर गुड़ की चासनी में भीगा हुआ था।
‘मैं आशीष वर्मा, टिक्कन से। सीनियर सैकेंडरी स्कूल में इकोनोमिक्स का लैक्चरर हूं।’ सूखे ठूंठ की तरह स्वर को गीला बनाते आशीष वर्मा ने कहा।
‘आप दोनों से मिलकर बहुत अच्छा लगा। मैं मुनीश, बैहलघाटी से। यहां, पीडब्ल्यूडी में सहायक अभियंता हूं।’ अपनेपन से मुनीश ने सस्मित कहा था।
रामपुर बस स्टैंड के एक कोने पर खड़े दोनों बतियाने लगे थे। वे अक्सर शिमला से एक ही बस में आते थे और वैसे रहते भी एक ही कालोनी में थे। किंतु कभी आज की तरह वार्ता का आदान-प्रदान नहीं हुआ था।
‘एक्सक्यूज मुनीष। युअर सरनेम प्लीज?’ राज शर्मा ने एकाएक जब पूछा तो उसके चेहरे पर कोई झिझक और शालीनता नहीं थी।
‘चौं ऽ ऽ चौधरी।’ कलेजा मुंह को आने से रोकते मुनीश ने अप्रत्याशित से प्रश्न पर धीरे से कहा। ये पढ़े-लिखे ऐसा प्रश्न भी कर सकते थे, उसने सोचा तक न था।
‘चौधरी तो यहां बस स्टैंड पर सामान ढोने वालों को कहा जाता है। चौधरी रेवेन्यू रिकॉर्डिड है क्या?’ आशीष वर्मा ने संदेह से देखते हुए पूछा।
‘नहीं, हमारे यहां सभी लिखते हैं तो…’
उसके चेहरे पर उमड़ते आत्महीनता के भाव पढ़ते बॉय कह कर वे सव्यंग्य मुस्कराते हुए एक ओर हो लिए। जबकि मुनीश, विधायकी पाने के लिए अपने स्वाभिमान और क्षत्रियत्व को बेचने वाले चौधरियों की करतूत पर वहीं जड़वत खड़े सोचता जाता था।
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