लघु कथा
(ग्रामीण विभाग के अधीक्षक पद से सेवानिवृत कृष्णचंद महादेविया हिमाचल प्रदेश के मंडी जिले के सुंदर नगर में रहते हैं। मूलतः लघुकथा व एंकाकी लेखक हैं और हिमाचल के लोक साहित्य के जानकार हैं -सं.)
‘ओए धर्मू, साले हरामी, अपनी नालायक औलाद संभाली नहीं जाती क्या?’ अपने आंगन में खडे़-खड़े डमलू ठाकर भेड़िए की तरह गुर्राकर बोला।
‘क्या हुआ ठाकर जी, ऐसे लाल-पीले क्यों हुए जाते हो?’ धर्मू ने शांत भाव से किन्तु भेड़ की तरह मिमियाते से अपने पड़ोसी डमलू ठाकर से कहा।
थे तो दोनों पड़ोसी किन्तु दोनों के घर जाने के या बाहर जाने के रास्ते अलग-अलग थे। डमलू ठाकर को धर्मू के आंगन में आने का जन्मजात अधिकार था, जबकि धर्मू लोहार उसके आंगन को छू भी नहीं सकता था।
‘तेरी नस्ल ने आम निकालने के लिए पेड़ पर पत्थर मारा और वह मेरे छप्पर को तोड़ता हुआ भीतर पहुंच गया है। तेरे लड़के के छुए पत्थर ने मेरे घर को जूठ लगा दी है। अब तो देवता नाराज हो जाएंगे। बस तूं झट से बकरा निकाल। देवता की बलि देकर ही जूठ से मुक्ति मिलेगी, समझ गया कि नहीं।’ डमलू ठाकर ने दांत पीसते और उसे डराते स्वर में कहा।
धर्मू के लड़के के पत्थर से डमलू ठाकर के घर लगी जूठ की खबर पूरे गांव में आग की तरह झट फैल गई। आनन-फानन में गांव वालों की जात पंचायत बैठ गई। धर्मू लोहार ने पत्थर से घर जूठा और अपवित्र होने की बात नहीं मानी। जबकि डमलू ठाकर ने घर को जूठ लगने की बात कही और अपनी ऊंची जात होने का हवाला भी दिया। उसने देवता के लिए बकरा दिलाने की पंचायत से विनती की।
पंचायत का फैसला डमलू ठाकर के पक्ष में गया। अब तो धर्मू लोहार को बेटी की शादी के लिए रखे रुपए बकरा खरीदने के लिए देने ही पड़े।
देवता को बकरे की बलि देकर सब लोग डमलू ठाकर का घर पवित्र होना मान गए थे। किन्तु धर्मू का आठवीं में पढ़ने वाला वह लड़का पंचायत और डमलू ठाकर का सिर फोड़ने के लिए वजनदार पत्थर ढूंढने लगा था।
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