अस्सी पार की ये औरतें
जो चलते हुए कांपती हैं
लडख़ड़ाती हैं
या लाठी के सहारे
कदम बढ़ाती हैं धीरे-धीरे
सन सैंतालीस में
जिला मुल्तान से आई थीं
जब अचानक बैठे-बिठाए
बदल गया था उनका मुल्क
तब ये युवतियां थीं
या युवतियां हो जाने वाली थीं
उस वक्त जब समझदार लोग
किसी भी तरह जान बचाना चाहते थे
या सोना-चांदी
ये लड़कियां
तंदूर पर पकती
रोटियों को याद करती थीं
या कुएं के ठंडे मीठे पानी को
वे अपने साथ लाना चाहती थीं
मुसलमान सहेलियों के होठों पर
छूट गई अपनी हंसी
कपास और शलगम के पौधों पर
छूट गए अपने गीत
पर सामने मौत थी
मौत के जबड़े खून से सने थे
रास्ते में कट गई कितनी सहेलियां
कितनी नहरों में कुद गई
कितनी कैद कर ली गईं
कितनी आग में जल मरीं
इन लड़कियों ने बेबस आंखों से
अपनों को मरते देखा
इन्होंने सुनी
मरते परिजनों की आखिरी चीखें
ये चीखें उनकी देह से चिपक गई
जैसे पत्थर की छाती को
छेनी से काटकर
लिख दी गई हों इबारतें
ये चीखें आज भी
उनकी नींद में चली जाती हैं
तब ये बूढ़ी औरतें
फिर से युवतियां होकर
मूक विलाप करती हैं
ये बूढ़ी औरतें हंसती भी हैं
कुएं के पानी-सी छलछलाती हंसी
पर उनकी हंसी की धवलता में
जाने कहां से आ घुलता है लाल रंग
उन्हें हूबहू याद हैं अपने गांव
अक्सर वे सोचती हैं
अब बूढ़ी हो गई होंगी पीछे छूटी सहेलियां
उन्हीं की तरह
उनकी हंसी में भी शायद
कभी घुल जाता होगा लाल रंग
इनमें से एक औरत
सैंतालीस मेें पोटली मे बांध लाई थी
गांव की मिट्टी
ये सब औरतें एक साथ
कभी-कभी पोटली खोलती हैं
सूखी मिट्टी
फिर से गीली हो जाती है।
स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा (मार्च-अप्रैल 2017, अंक-10), पेज – 34