विनोद वर्मा ‘दुर्गेश’
वरिष्ठ साहित्यकार आनंद प्रकाश ‘आर्टिस्ट’ ने ‘खोया हुआ विश्वास’ उपन्यास में जातीय आधार पर आरक्षण आंदोलन को वर्ण्य-विषय बनाकर वर्तमान ज्वलंत समस्या को अपने हिसाब से उजागर करने का प्रयास किया है। इस तरह के आंदोलन की पृष्ठभूमि चाहे जो भी रही हो पर परिणाम यही सामने आता है कि समाज में व्यक्तिगत स्तर पर जातीय भेदभाव न होते हुए भी एक-दूसरी जाति के लोगों का एक-दूसरी जाति के लोगों के प्रति विश्वास खोया जाता है, जो सामाजिक ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय विकास के मार्ग में भी अवरोधक बनकर खड़ा हो जाता है।
प्रथम कड़ी में उपन्यासकार ने लिखा है ‘एक तरफ एक व्यक्ति के पास खेत हैं, उद्योग हैं, गाड़ी-मोटरों में चलता है, घर व खेत और उसके द्वारा स्थापित उद्योग-धंधों में काम करने के लिए नौकर हैं और वह अपने बच्चों को विदेश में पढ़ा रहा है या विदेश में पढ़ाने का खर्च उठाने में सक्षम है और यह निश्चित है कि उसकी वंश परंपरा में अब विकास की गति रुकने वाली नहीं है। दूसरी तरफ एक वह व्यक्ति है, जो ऐसे ही किसी व्यक्ति की मोटर-गाड़ी का ड्राइवर है, सुबह सूरज उगने से पहले अपने साहब के यहां पहुंचता है और रात को जग साहब सो जाते हैं, तो वह अपने घर जाकर अपने उन बीवी-बच्चों को जगाता है जो उसका इंतज़ार करके सो चुके होते हैं।’ उपन्यासकार की यह दूरगामी सोच को उद्घाटित करने वाली पंक्तियां हैं और अधुनातन समाज का सच भी। समाज में व्याप्त निम्न वर्ग और उच्च वर्ग की खाई को पाटने का काम करने वाली उक्त पंक्तियां उपन्यासकार की लेखकीय प्रतिभा, क्षमता एवं परिपक्वता का परिचय देते हुए उनका क़द बढ़ाने में सक्षम हैं।
दूसरी कड़ी में उपन्यासकार ने आंदोलन से उपजे विनाश के विविध बिम्ब प्रस्तुत करने का सार्थक प्रयास किया है यथा ‘जातीय आधार पर आरक्षण के नाम पर दंगा करने वालों ने यह जला दिया, वो जला दिया, इसे लूट लिया, उसे मार दिया, आज इतने मरे, इतने घायल, इतनी दुकानें जलकर खाक हुई, बारात रोकी, दूल्हे को जाने दिया, एम्बुलेंस को रास्ता न मिलने के कारण मरीज की रास्ते में ही हुई मौत, पुलिस ने रास्ता खुलवाने की कोशिश की तो पुलिस पर किया पथराव…।’ आदि विवरण हमें फरवरी 2016 में हरियाणा में चले ‘जाट आरक्षण आन्दोलन’ के समय निरंतर प्रसारित होते रहे ऐसे समाचारों की याद दिलाता है।
तीसरी कड़ी में उपन्यासकार एक दार्शनिक सोच के साथ पाठक के सामने उपस्थित होता है उपन्यास के पात्र रामसिंह की बोली में प्रवृत्तिगत भाषा व्यवहार को लेकर वह कहता है -‘क्यों, रामसिंह आदमी नहीं है क्या, जो ऑफिस में अंग्रेजी के सर, मैडम और मिस जैसे शब्द तो क्या हिंदी के श्रीमान् जी और श्रीमती जैसे शब्दों का भी इस्तेमाल नहीं करता है।’
चौथी कड़ी में लेखक ने समाज को सच का आईना दिखाने का प्रयास किया है ‘बिल्कुल ठीक समझा है गीता तुमने और अब इसी संदर्भ में समझने वाली बात यह है कि ज़िन्दगी में हमसे आगे निकलने की होड़ में कुछ लोग जान-बूझकर भी हमसे टकराने की कोशिश करते हैं, ताकि एक सुनियोजित तरीके से घटना को दुर्घटना का नाम देकर वो अपराध की सज़ा पाने से बच सकें।’
उपन्यास की अंतिम कड़ी में उपन्यासकार विषय विशेष के गहन अध्ययन एवं प्रस्तुतिकरण के बाद एक निर्णायक के रूप में प्रस्तुत हुआ एक बानगी देखिए ‘जब समाज में जाति प्रथा थी, तब समाज में जातियां भी थी, किन्तु आज समाज में जातियां नहीं, जातियों के नाम हैं और इन नामों के सहारे स्वार्थी लोग न केवल अपना-अपना स्वार्थ सिद्ध कर रहे हैं, बल्कि राष्ट्र व समाज का भी बहुत बड़ा अहित कर रहे हैं। इसके कारण कहीं ऑनर किलिंग के मामले सामने आ रहे हैं, तो कहीं जातिगत द्वेष भावना के चलते सामान्य मेल-जोल और सद्भावनापूर्ण दोस्ती को भी प्रेम-प्रसंग का नाम देकर किसी की हत्या करके उसे ऑनर किलिंग का मामला बना दिया जाता है। रोजगार के लिए न केवल सराकरी नौकरियों में आरक्षण की मांग की जा रही है, बल्कि संवैधानिक व्यवस्था के तहत पहले से दिए गए आरक्षण का विरोध भी किया जा रहा है। परदे के पीछे जो व्यक्ति अपनी जाति से भिन्न जाति के स्वयं से श्रेष्ठ किसी व्यक्ति की प्रतिभा, क्षमता व कार्य कुशलता का उपयोग करके उससे अपना काम निकालवाने के बाद अथवा निकलवाते वक़्त उसकी तारीफ करते हैं और कहते हैं कि इस क्षेत्र में उत्कृष्ट सेवाओं के लिए तो आपको सरकार की तरफ से मान-सम्मान मिलना चाहिए, वही व्यक्ति उसे किनारे करके स्वयं आगे बढ़ने के लिए या अपनी जाति के अन्य किसी व्यक्ति को आगे बढ़ाने के लिए कोई भी तरीका अपनाकर उसकी पदोन्नति में बाधा पहुँचाते हैं और अपनी जाति के व्यक्ति का सहयोग करके उसे न केवल गलत तरीके से पद व पदोन्नति लाभ दिलवाते हैं, बल्कि मान-सम्मान के हक़दार बहुत से व्यक्तियों को छोड़कर अपनी जाति के अथवा अपने चहेते किसी भी व्यक्ति को सम्मानित किए जाने का औपचारिक आधार बना कर उसे सम्मानित करवा कर प्रतिभावान को नीचा दिखाने का प्रयास करते हैं। यही नहीं, विभाजन की त्रासदी को झेल कर अपने दम पर क़ामयाब हुए व्यक्तियों के प्रति भी जातीय भावना से प्रेरित लोग ऐसा ही दृष्टिकोण रखते देखे गए हैं।’
उपन्यास के संवाद साहित्यिक ही नहीं, बल्कि मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी सार्थक, छोटे-छोटे किन्तु पाठक के मन पर अमिट छाप छोड़ने वाले हैं। एक-एक संवाद पाठक को सोचने पर विवश करता है। समग्रतः कहा जा सकता है कि प्रस्तुत कृति उपन्यास विधा के सामान्य पाठक ही नहीं बल्कि, अध्येताओं एवं शोधकर्ताओं के लिए भी काफी उपयोगी सिद्ध होगी, ऐसा मेरा विश्वास है।
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