कर्मचन्द ‘केसर’
ग़ज़ल
कलजुग के पहरे म्हं देक्खो,
धरम घट्या अर बढ़ग्या पाप।
समझण आला ए समझैगा,
तीरथाँ तै बदध सैं माँ बाप।
सारे चीब लिकड़ज्याँ पल म्हँ
जिब उप्पर आला मारै थाप।
औरत नैं क्यूँ समझैं हीणी,
पंचैत चौंतरे अर यें खाप।
भामाशाह सेठ होया सै,
बीर होया राणा प्रताप।
बहू नैं चिन्ता सै रोटी की,
सासू कै चढ़रया सै ताप।
सारी दुनियां अपणी दीक्खै,
नजर बदल कै देख ल्यो आप।
सच की राह कंटीली ‘केसर’
बौच-बौच पां धरिये नाप।