दुक्ख की इसी होई बरसात – कर्मचंद केसर

हरियाणवी ग़ज़ल


दुक्ख की इसी होई बरसात।
निखर गया सै मेरा गात।
बिद्या बिन नर रह्ये अनाड़ी,
जणु कोय दरखत सै बिन पात।
बूढ़े माँ-बापां की खात्तर,
इब घर बण रह्ये सै हवालात।
पल म्हं खबर मिलै पल-पल की,
पह्लां आली रह्यी ना बात।
अपणी आगत आप बिग्याड़ै,
करकै माणस ओच्छी बात।
बेजायां बद रह्या परदुसण,
दिन इसा लाग्गै जणु सै रात।
किरसन जी खुद भाती बणकै,
हरनन्दी का भरग्ये भात।
कहते सुणे लोग चान्द पै,
बूढ़िया सूत रह्यी सै कात।
मतलब लिकड्याँ पाच्छै ‘केसर’
कौण किसे की पूच्छै जात।
 

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