स्त्री और पुरुष में प्राकृतिक तौर पर अंगों की भिन्नता है, लेकिन सामाजिक तौर पर लैंगिक भेदभाव से इसका कोई संबंध नहीं हैं। स्त्री के प्रति दोयम भाव सामाजिक व्यवस्था की देन है। साहित्यकारों ने सामाजिक सच्चाइयों को अपने लेखन का आधार बनाया।ये बात सही है कि लोक कवि लोक बुद्धिमता, प्रवृतियों और बौद्धिक-नैतिक रुझानों का अतिक्रमण नहीं कर पाते। कई बार अपनी स्वयं की सोच के कारण, कई बार लोक प्रभाव-दबाव या पेशेगत कारणों से. लेकिन लोक प्रचलित मत की सीमाओं का अतिक्रमण करना भी अपवाद नहीं है।इसका उदाहरण है पं. लख्मीचंद की ये रागनी जिसमें पौराणिक किस्सों में पुरुषों ने स्त्रियों के प्रति जो अन्याय किया उसे एक जगह रख दिया है और वो भी स्त्री की नजर से.
देखे मर्द नकारे हों सैं गरज-गरज के प्यारे हों सैं
भीड़ पड़ी मैं न्यारे हों सैं तज के दीन ईमान नैं
जानकी छेड़ी दशकन्धर नै, गौतम कै गया के सोची इन्द्र नै
रामचन्द्र नै सीता ताहदी, गौरां शिवजी नै जड़ तै ठादी
हरिश्चन्द्र नै भी डायण बतादी के सोची अज्ञान नै
मर्द किस किस की ओड घालदे, डबो दरिया केसी झाल दे
निहालदे मेनपाल नै छोड़ी, जलग्यी घाल धर्म पै गोड़ी
अनसूइया का पति था कोढ़ी वा डाट बैठग्यी ध्यान नै
मर्द झूठी पीटें सैं रीस, मिले जैसे कुब्जा से जगदीश
महतो नै शीश बुराई धरदी, गौतम नै होकै बेदर्दी
बिना खोट पात्थर की करदी खोकै बैठग्यी प्राण नै
कहैं सैं जल शुद्ध पात्र मैं घलता लखमीचन्द कवियों मैं रळता
मिलता जो कुछ कर्या हुआ सै, छन्द कांटे पै धर्या हुआ सै
लय दारी मैं भर्या हुआ सै, देखी तो मिजान नै
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