ग़ज़ल
ऐसे अपनी दुआ क़ुबूल हुई,
राह तक मिल सकी न मंजि़ल की,
कारवाँ से बिछडऩे वालों को,
उन की मंजि़ल कभी नहीं मिलती।
खो गई नफ़रतों के सहरा1 में,
प्यार की वो नदी जो सूख गई।
राह बचकर निकल गई हमसे,
वो तो मंजि़ल वहीं पे आ पहुंची।
मेरे सर पर तना रहा सहरा,
ये हवाओं की कोई साजि़श थी।
एक मुद्दत से कह रहा हूँ जिसे,
दास्ताँ वो भी क्यों अधूरी रही।
मोम के घर में वो बहुत खुश था,
धूप गर तेज़ हो गई होती।
हक़ परस्ती की राह पर जो चला,
जानता हूँ उसी को मौत मिली।
जिन की अमृत भरी हैं तक़रीरें,
उनकी सरगोशियाँ2 हैं ज़हरीली।
जिन दिलों में थे ज़लज़ले लाखों,
कैसे पत्थर के हो गये वो भी।
लौट जाए सफ़र से घबरा कर,
ऐसी फ़ितरत3 नहीं है ‘राठी’ की।
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