ग़ज़ल
कौन बस्ती में मोजिज़ा गर है,
हौंसला किस में मुझ से बढ़ कर है।
चैन से बैठने नहीं देता,
मुझ में बिफरा हुआ समन्दर है।
लुट रहे हैं मिरे नफ़ीस ख्याल,
कोई रहज़न भी मेरे अन्दर है।
आदमी से हैं लोग ख़ौफ़ ज़दा,
वहशियों से किसी को क्या डर है।
ज़ुल्मों-इन्साफ़ की लड़ाई में,
मेरा दुश्मन तो हर सितमगर है।
मेरी हिम्मत निगल न जाए कहीं,
जि़ह्न में ख़ौफ़नाक अजगर है।
जो भी आता है लूटता है मुझे,
लुटते रहना मिरा मुक्क़द्दर है।
हम उगाएंगे प्यार की फ़स्लें,
गो ज़मीं नफ़रतों से बंजर है।
फासिला ये भी पार कर ही लें,
दूर मंजि़ल फ़क़त जुनूँ भर है।
तपता सहरा है सामने लेकिन,
एक बादल भी अपने ऊपर है।
जाने गुज़रे हैं हादिसे कितने,
जाने किस-किस का बोझ दिल पर है।
मैं तिरे दु:ख बंटाने आया था,
तू ये समझा कोई गदागर1 है।
राहे-मंजि़ल से दूर जाने का,
सारा इल्ज़ाम अब मुझी पर है।
इन फ़ज़ाओं को क्या हुआ ‘राठी’
हर तरफ इक उदास मंज़र है।
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