ग़ज़ल
जो भी लड़ता रहा हर किसी के लिये,
कुछ न कुछ कर गया आदमी के लिये।
जो अंधेरे मिटाने को बेताब था,
ख़ुद फ़रोज़ां1 हुआ रोशनी के लिये।
राहतें बख़्श दीं जिसने सब को वही,
क्यों तरसता रहा हर खुशी के लिये।
जि़ल्लतों2 के उक़ाबों3 ने नोचा उसे,
जो मसीहा बना आदमी के लिये।
जिनके दम से उजाले थे चारों तरफ़,
उनको लडऩा पड़ा रौशनी के लिये।
मिटते जाना भी होने की तसदीक़4 है,
वरना मिटता कोई क्यूँ किसी के लिये।
फलसफा भी ज़रूरी तो होगा, मगर,
दर्द भी चाहिए शायरी के लिये।
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- जल उठना 2. अपमान करना 3. एक पक्षी का नाम 4. प्रमाणित