ग़ज़ल
मुहब्बत से जुनूँ की दास्ताँ तक आ गया हूँ मैं,
किसी के इश्क में देखो कहाँ तक आ गया हूँ मैं।
ये राहें ख़ुद-बख़ुद कैसे मुनव्वर1 को उठीं यारब,
गुमां होता है मंजि़ल के निशाँ तक आ गया हूँ मैं।
किसे मालूम था जज़्बात ये भी रंग लायेंगे,
जुनूँ में अब किसी के इम्तिहाँ तक आ गया हूँ मैं।
कभी इक दर्द बन कर सिर्फ़उनके दिल में पिनहाँ2 था,
मगर अब गीत बन कर हर ज़बाँ तक आ गया हूँ मैं।
नहीं वो बात ही कुछ और थी जिसकी तमन्ना थी,
युँही जज़्बात की रौ में यहाँ तक आ गया हूँ मैं।
तुम्हारी इन हसीं मख़मूर3 आँखों की क़सम हमदम,
वहीं तक राहे उल्फ़त4 है जहाँ तक आ गया हूँ मैं।
तमन्ना है उफ़क़5 के धुंधले पर्दे चाक कर डालूँ,
किसी की जुस्तज़ू6 में अब यहाँ तक आ गया हूँ मैं।
कहीं मंजि़ल से आगे ही न आ पहुंचा हूँ मैं ‘राठी’,
जरा आवाज़ दो मुझ को कहाँ तक आ गया हूँ मैं।
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- चमक 2. छुपा हुआ 3. नशीली 4. प्यार 5. क्षितिज 6. ढूंढना