ग़ज़ल
न जाने क्या ज़माना आ गया है,
ख़ुशी से हम ने ग़म अपना लिया है।
चले आओ इधर लेकर उजाला,
अंधेरे ने मुझे घेरा हुआ है।
वो जिस रफ्तार से ऊपर चढ़ा था,
उसी र$फ्तार से गिरने लगा है।
जो औरों की बुलंदी पर ही ख़ुश हो,
कहाँ वो अपनी पस्ती देखता है।
अज़ीयतनाक1 ख़ामोशी से डर के,
कोई तूफ़ान से उलझा हुआ है।
ख़बर रखता था जो सब मंजि़लों की,
वो चौराहे पे सहमा सा खड़ा है।
हमेशा आदमी की बस्तियों में,
दरिन्दों ही का कब्ज़ा क्यों रहा है।
पड़ौसी को समझता हो जो दुश्मन,
भला वो शख़्स किस का हो सका है।
ज़रूरत प्यार की है अब वहाँ भी,
जहाँ नफ़रत का दरिया बह रहा है।
मुक्क़द्दस2 ख़ाक होंगी उसकी बातें,
जो पूजा घर में नफ़रत बेचता है।
उन्हीं के दम से फैला है अंधेरा,
उजाला जिनके क़ब्ज़े में रहा है।
मसर्रत3 ढूंढने निकला था ‘राठी’
उदासी औढ़े वापिस आ रही है।
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- पीड़ा भरी 2. पवित्र 3. खुशी