ग़ज़ल
साथ मेरे कोई जब चला दूर तक,
ख़ुद संवरता गया रास्ता दूर तक।
पास आए जो तुम मुस्कराते हुए,
भर गई ख़ुशबुओं से फ़ज़ा दूर तक।
तुम से नज़रें मिली थी ज़रा देर को,
मैं मगर लड़लड़ाता रहा दूर तक।
दो क़दम ही मिरे साथ आए थे तुम,
रंग लेकिन बिखरता गया दूर तक।
मंजि़लें मिल तो जातीं मुझे राह में,
साथ चलते अगर तुम ज़रा दूर तक।
दूर तक तेरी यादों ने पीछा किया,
सामने अक्स तेरा रहा दूर तक।
उन से पूछा कहाँ तक चलोगे युँही,
ज़ेरे लब मुस्करा कर रहा, ‘दूर तक’।
देख ले गर कोई तुम को नज़दीक से,
होश क्या उसको आए भला दूर तक।
एक सहरा है ‘राठी’ को घेरे हुए,
और फूलों का हैं सिलसिला दूर तक।