ग़ज़ल
यारो! ख़ूब ज़माने आए,
ज़ालिम ज़ख़्म दिखाने आए।
ज़ुल्म से लडऩे जब निकले हम,
लोग हमें समझाने आए।
ज़ख़्म हमें देने वाले भी,
ख़ुद एहसान जताने आए।
चारागरी की आस थी जिन से,
वो भी ज़हर पिलाने आए।
जिनके रहे हमदर्द सदा हम,
वो भी हमें सताने आए।
जो डरते थे सायों से भी,
हम पर रौअ्ब जमाने आए।
जाल में ख़ुद उलझे बैठे हैं,
जो हमको उलझाने आए।
नफ़रत फैलाने की ख़ातिर,
हम को लोग मनाने आए।
रहज़न हम को रहबर बन कर,
राहों में लुटवाने आए।
मर जाते दुश्वार सफ़र में,
लौट के क्यूं दीवाने आए।
नफ़रत के सहराओं में हम,
प्यार के फूल खिलाने आए।
हम फूलों की खुशबू लेकर,
कांटों को महकाने आए।
‘राठी’ कुछ तो बात है तुझ में,
तुझ को लोग मनाने आए।