ग़ज़ल
कौन समझ सकता था उसको, सारा खेल निराला था,
घोर अंधेरों की बस्ती में चारों ओर उजाला था।
जिस के रूप की धूप से बिखरे लाखों रंग फ़ज़ाओं में,
हम कहते तो साथ सफ़र में, वो भी चलने वाला था।
और तो ऐसा कौन था जो कुछ सच्ची बातें कह सकता,
झूठों की बस्ती में सच का इक मैं ही रखवाला था।
जाने कैसे राही थे जो यूँ घबरा कर लौट गये,
वरना अंधेरों के जंगल से थोड़ी दूर उजाला था।
मैंने अपने लब खोले थे लेकिन तुम ने टोक दिया,
वरना अपने दर्द का क़िस्सा मैं दुहराने वाला था।
मतलब वाले लोग उसे कब चैन से रहने देते थे,
छलिया लोगों की बस्ती में जो भी भोला भाला था।
लोगों में तो अमृत बाँटा लेकिन मैंने ज़हर पिया,
मैं क्या करता मेरा दिल भी यारो एक शिवाला था।
जिस भी मोड़ पे मुड़ता था वो बाकी सब मुड़ जाते थे,
इक ‘राठी’ ही ऐसा था जो मंजि़ल का मतवाला था।