ग़ज़ल
दु:ख आया है बनकर अपना,
देखे कोई मुक़्कद्दर अपना।
सब आबाद नज़ारे उनके,
और हर वीराँ मंज़र अपना।
औरों का दु:ख धीरे-धीरे,
दिल में उतरा बनकर अपना।
नज़रें हैं ख़्वाबों से ख़ाली,
जि़ह्न1 भी बिल्कुल बंजर अपना।
चेहरा भूख की एक अलामत2,
दिल है बस इक पत्थर अपना।
सुख की इक छोटी-सी गागर,
दु:ख का पूरा सागर अपना।
दिल में रस का इक दरिया है,
फिर भी जीवन बंजर अपना।
दुनिया की हर रंगत हम से,
लेकिन हक़ है किस पर अपना।
अब नग़मों का वक़्त नहीं है,
रख दो साज़ उठा कर अपना।
ख़ुद को क्यूँ हल्का करते हो,
किस्सा रोज़ सुनाकर अपना।
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- जेहन 2. प्रतीक