ग़ज़ल
हमें रोके रही बरसों तुम्हारी याद रस्ते में,
शिकायत ख़ाक करते क्यों हुए बरबाद रस्ते में।
तुझे मंजि़ल समझ कर तेरी ज़ानिब जब चले आए,
जहाँ ने संग बरसा कर हमें दी दाद रस्ते में।
हमारे साथ जो भी थे वो खुद मायूस लगते थे,
सुनाते किस को अपने ग़म की हम रुदाद रस्ते में।
ये मंजि़ल ढूँढने वाले नहीं हैं बल्कि रहज़न हैं,
भला इनसे कोई कैसे करे फ़रियाद रस्ते में।
बिछड़ कर तो चला हूँ तुम से मैं अनजान राहों पर,
मगर बेचैन रक्खेगी तुम्हारी याद रस्ते में।
सफ़र में साथ ‘राठी’ था तो ख़ुशियाँ साथ थी अपने,
मगर उससे बिछड़ कर हम रहे नाशाद रस्ते में।