ग़ज़ल
हमारा हम सफ़र ही रास्ते में रह गया-यारो,
करें अब किस लिए हम अपनी मंजि़ल का पता-यारो।
मैं ख़्वाबों की हसीं दुनिया में था आख़िर ये क्या-सूझी,
मुझे ही कर दिया तुम ने हक़ीक़त आशना-यारो।
ये रहबर रहनुमाई के लिए जिस दिन से आया है,
उसी दिन से है अपना कारवां भटका हुआ-यारो।
अचानक इतना ज़हरीला धुआं फैला तो क्यों फैला,
हुआ जो कुछ भी हर ज़ानिब वो कैसे हो गया-यारो।
उजालों की तलब अब तो बहुत बेचैन करती है,
अंधेरों से निकलने का निकालो रास्ता-यारो।
अगर तुम घाटियों से चोटियों को तकते जाओगे,
तो कैसे तय करोगे दरमियाँ का फ़ासिला-यारो।
यक़ीनन वो हमारे दर्द को महसूस करता है,
मगर ‘राठी’ का है अपना अलग ही फ़िलसफ़ा-यारो।