ग़ज़ल
कभी जब आप सा कोई मुझे तकता हुआ गुज़रे,
तो मेरे दिल पे जाने किस तरह का हादिसा गुज़रे।
बड़ी मीठी कसक होती है दर्दे दिल की उलफ़त में,
कभी अपने भी दिल पर दर्द का ये सिलसिला गुज़रे।
मिरा तो रास्ता रोके खड़ी थी मेरी मदहोशी,
मिरे आगे से जब मेरे नसीबों के ख़ुदा गुज़रे।
नज़र भर देखने की वक़्त ने फ़ुर्सत न दी वरना,
हसीं रंगीन जलवे सामने से बा-र-हा गुज़रे।
यही आलम रहा तो यादें माज़ी1 मार डालेगी,
मुझे दीवाना कर जाए कुछ ऐसा हादिसा गुज़रे।
मुझे शायद सिला मिल जाए कुछ अपनी वफ़ाओं का,
कभी ऐ काश! इन राहों से फिर वो बेवफ़ा गुज़रे।
सरापा नूर2 है वो शुक्र है परदे में है अब तक,
अगर बे परदा हो जाए तो इस आलम पे क्या गुज़रे।
यहीं पर कब से बैठा है इसी उम्मीद पर ‘राठी’,
कभी शायद यहीं से खुशबुओं का क़ाफ़िला गुज़रे।
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