ग़ज़ल


 
वहाँ हर शख़्स की नीयत बुरी थी,
हिफ़ाज़त कौन करता क़ाफ़िलों की।
सफ़र में हमने सूरज साथ रक्खा,
हमें भी रात वरना घेर लेती।
हमें क्या धुंध में कुछ सूझता था,
मगर इक राह क़दमों में पड़ी थी।
ये अपनों ही से नफ़रत करने वाले,
कहाँ ख़िदमत करेंगे आदमी की।
गली में घर जला है कोई वरना,
हमारे आँगनों में धूप कैसी।
न जाने क्यूँ तबाही पर तुला है,
उजडऩे की है नीयत आदमी की।
कभी तूफान भी रोके रुका है,
हदें कब किस ने बांधी ज़लज़लों की।
कभी देखा न जिस ने जख़्म खाकर,
वो क्या समझेगा शिद्दत दर्दे-दिल की।
भटक जाते थे ‘राठी’ गो मुसाफ़िर,
मगर भटके हुए हैं क़ाफ़िले भी।

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