ग़ज़ल
अंधेरा कब मिटा है जुगनुओं से,
जलाओं वो दिया जो रोशनी दे।
बहुत कुछ कह गया वो यूँ तो मुझ से,
मगर अल्फ़ाज़ वो उसके नहीं थे।
हमें ये फ़ैसला करना पड़ेगा,
सफ़र में साथ होगा कौन किस के।
समन्दर पीने वाले आ गये हैं,
कहाँ जाआगे सहराओं से बच के।
ख़ता कुछ तो हुई है मुझसे वरना,
तुम ऐसे रूठने वाले नहीं थे।
दिये हैं ज़ख़्म जिन लोगों ने तुम को,
तुम्हें उम्मीद है मरहम की उनसे।
जिधर मंजि़ल न मंजि़ल का निशां है,
उधर भी जा रहे हैं लोग भागे।
यकीनन कोई साजि़श हो रही है,
निकलता कौन वरना हम से आगे।
मैं अपने ज़ख़्म उस को क्यूँ दिखाऊं,
जो ग़ैरों की तरह मिलता है मुझ से।
इधर जो गर गुज़र ‘राठी’ का होता,
तो हंगामे यहाँ भी खूब होते।