ग़ज़ल
हमारी एक मुश्किल तो यही है,
हमारे सामने अंधी गली है।
बड़ी बेकार अपनी जि़ंदगी है,
मगर जैसी भी है कट तो रही है।
न जाने वक़्त की कैसी हवा है,
हर इक तस्वीर धुंधली हो रही है।
बहुत मुश्किल लगा अब इसमें रहना,
ये दुनिया जब से मण्डी बन गई है।
बढ़ाएगी ये आंधी भी अंधेरे,
उजालों की तो पहले ही कमी है।
कहीं भी मोजिज़ा1 होते न देखा,
मगर ये बात क्यों फैली हुई है।
भटक कर मैं कहीं गुम हो गया हूँ,
मुसीबत मुझ पे ये भी आ पड़ी है।
इन्हीं की मारफ़त फैली है नफ़रत,
इन अफ़वाहों का मक़सद ही यही है।
कुछ ऐसे लोग भी हैं जिनके दम से,
तबाही से ये दुनिया बच रही है।
भरी है आज दीवानों से मह्फ़िल,
अभी बस एक ‘राठी’ की कमी है।
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