ग़ज़ल


कोई मंजि़ल न रास्ता है कोई,
फ़ासिलों में उलझ गया है कोई।
हर किसी को यूँ जांचता है कोई,
जैसे बस्ती का वो ख़ुदा है कोई।
ज़लज़लों को समेट कर ख़ुद में,
कैसे पत्थर का हो गया है कोई।
कैसी सीढी थी जिस पे चढते ही,
सब की नज़रों से गिर गया है कोई।
वक़्त ने रख दिया था चोटी पर,
फिर ज़मीं पर ही आ गिरा है कोई।
जो भी आया वही उलझता गया,
जाल ऐसा बिछा गया है कोई।
लोग हैं मुत्मइन1 अंधेरों से,
वरना सूरज लिये खड़ा है कोई।
ये बुलन्दी कहाँ नसीब उसे,
इस जगह उसको रख गया है कोई।
ले उड़ी सब दिलों से हमदर्दी,
वक़्त की ये नई हवा है कोई।
एक नफ़रत कदे में बरसों से,
प्यार की बात कर रहा है कोई।
रूठने की कोई वज़ह तो नहीं,
मुझ से किस वास्ते ख़फ़ा है कोई।
बे वज़ह दर्द जो मिला ‘राठी’
बे-गुनाही की ये सज़ा है कोई।
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  1. बिछा

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