ग़ज़ल
बड़ी मुश्किल से जो दुनिया बसाई,
उसी की ताक में है अब तबाही।
यहाँ हर शख़्स को लडऩी पड़ेगी,
हज़ारों ही मुहाज़ों1 पर लड़ाई।
नगर तो प्यार का तुमने उजाड़ा,
मगर नफ़रत की बस्ती क्यों बसाई।
बनाया इक हुनर लोगों ने जब से,
हुई बदनाम तब से पारसाई2।
निशां बाक़ी हैं जो बरबादियों के,
वही तो देंगे ज़ुल्मों की गवाही।
चला दी रस्म कैसी हासिदों3 ने,
लगे देने शिकस्तों पर बधाई।
उन्होंने क्या बिगाड़ा था किसी का,
वो मासूमों की बस्ती क्यूँ जलाई।
है हम पर मेहरबां कुछ रात इतनी,
हमारे साथ चलती है सियाही।
हमारे दरमियां तो फ़ासला था,
बड़ी मुश्किल से अब दूरी मिटाई।
सितम जब भी हुआ लोगों पे ‘राठी’,
उदासी चल के मेरे पास आई।
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- मोर्चा 2. भलमानसाहत 3. ईर्ष्यालु