ग़ज़ल
तुम ने अब इंसाफ़ की भी रस्म उल्टी क्यों चला दी,
सब गुनहगारों को बख़्शा, बेगुनाहों को सज़ा दी।
कुछ चिराग़ों से भी मिट सकते थे गलियों के अंधेरे,
पूरी बस्ती किन उजालों के लिए तुम ने जला दी।
अपनी ख़ातिर कोई जन्नत गर बनानी थी, बनाते,
तुम ने जाने पूरी दुनिया इक जहन्नुम क्यों बना दी।
देखिए, इन्साफ का सच्चा तो पैमाना यही है,
कब, कहाँ, किसने, किसे, किस बात पर, कितनी सज़ा दी।
हुक्म हाकिम का तो ये था दर्द के क़िस्से न छेडूँ,
मैंने महफ़िल में मगर रुदादे-ग़म पूरी सुना दी।
जब ज़रूरी हो गया था, मेरा तूफ़ानों से लडऩा,
जाने क्यूं उस वक़्त मुझ को तुम ने साहिल से सदा दी।
वो यकीनन आदमी होगा, मगर देखूँ तो उस ने,
इस ज़माने में शराफ़त उम्र भर कैसे निभा दी।
लोग ‘राठी’ जी की बातें ग़ौर से जब सुन रहे थे,
हम ने अपनी बात भी तब उनकी बातों में मिला दी।