ग़ज़ल
रूठने वाले तो हम से फिर गले मिलने लगे हैं,
फिर भी अपने दरमियाँ1 रिश्ते नहीं है-फ़ासिले हैं।
कैसे मानूं इन सभी को गुमरही का शौक़ होगा,
जिन को भटकाया गया है ये उन्हीं के $काफ़िले हैं।
जि़न्दगी की राह यारो इतनी आसाँ भी नहीं है,
हर क़दम पर ग़म के मारे किस क़दर उलझे मिले हैं।
कुछ सवालों के सहारे कब संवर सकती थी दुनिया,
उन सवालों से उभरते जाने कितने सिलसिले हैं।
कर रहे थे रहनुमाई जिनकी जंगल के दंरिन्दे,
हम को ऐसे कारवां भी राह में अक्सर मिले हैं।
अपने जैसे ग़मज़दा2 लोगों की बस्ती को जलाना,
गर निडर होना यही है फिर तो हम बुज़दिल भले हैं।
फिर सितम वालों का हम पर दबदबा बढऩे लगा है,
जो कभी थे साथ अपने वो भी उनसे जा मिले हैं।
अब जहाँ के मालिकों को भी तसल्ली हो गई है,
हम सितम सहते रहेंगे, होंठ जो अपने सिले हैं।
ये बताओ कैसे राठी जी करेंगे तर्के-दुनिया3,
वो जहाँ भर के बखेड़े साथ जब लेकर चले हैं।
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