असगर अली इंजीनियर – अनु. डा. सुभाष चंद्र
साम्प्रदायिक सवाल मुख्यत: सत्ता में हिस्सेदारी से जुड़ा था, चूंकि सत्ता में हिस्सेदारी के सवाल का आखिर तक कोई संतोषजनक हल नहीं निकला और अंतत: देश का विभाजन हो गया। यहां तक कि जिन्ना के चौदह सूत्री मांग पत्र, जो उन्होंने 1929 के प्रारंभ में ही (नेहरू रिपोर्ट विवाद के बाद) तैयार कर लिया था और जो मुस्लिम लीग के लिए महत्वपूर्ण बन गया था, में भी मुसलमानों की धार्मिक आजादी के बारे में कुछ विशेष नहीं था। मुख्यत: यह धर्मनिरपेक्ष मांगों से संबंधित था। यह विधान-मंडलों में मुसलमानों के प्रभावी प्रतिनिधित्व, बाम्बे प्रांत से सिंध का अलगाव, अलग चुनाव क्षेत्र जारी रखने आदि से संबंधित था।1 यदि कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों पार्टियां इसका संतोषजनक हल निकाल लेतीं तो शायद हमारे देश के विभाजन का सवाल ही नहीं उठता।
नेहरू रिपोर्ट इस मामले में मुख्य पड़ाव है। मुसलमानों के एक वर्ग ने मुख्य मांग उठाई कि केंद्रीय विधानमंडलों में वे एक-तिहाई प्रतिनिधित्व इसलिए चाहते थे ताकि बहुसंख्यक हिन्दू अल्पसंख्यक मुसलमानों के खिलाफ कोई कानून न बना सकें। 20 मार्च, 1927 को, दिल्ली में, जिन्ना की अध्यक्षता में प्रमुख मुस्लिम नेताओं की बैठक हुई। इसमें सर्वसम्मति से निर्णय लिया कि यदि निम्न सुझाव मान लिए जाएं तो मुसलमान अलग निर्वाचन क्षेत्र की मांग छोड़ देंगे-‘(1) सिन्ध को बाम्बे प्रांत से अलग करके एक अलग राज्य बनाया जाए, (2) उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांतों और बलूचिस्तान में भारत के अन्य प्रांतों की तरह सुधार किए जाएं। (3) पंजाब और बंगाल में आबादी के अनुपात में प्रतिनिधित्व दिया जाए। (4) केंद्रीय विधान मंडल में एक-तिहाई से उपरोक्त ढंग से गठित व उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांतों में जहां हिन्दू अल्पसंख्यक है, उनको वही रियायतें होंगी जो हिन्दू बहुल प्रांतों में मुसलमानों को देने के लिए तैयार होंगे।’2 जिन्ना ने मुस्लिम दृष्टिकोण इन शब्दों में व्यक्त किया, ‘मुसलमानों को महसूस न हो कि कहीं बहुसंख्यक समुदाय अल्पसंख्यकों को दबाने और उनसे निर्दयता का व्यवहार न करने लगे जैसा कि दूसरे कई देशों की बहुसंख्यक जनता की प्रवृत्ति रहती है।’3
काफी हद तक यह देश के विभाजन का कारण बना। धर्म या धार्मिक आजादी नहीं थी, बल्कि सत्ता में हिस्सेदारी व आजाद भारत में मुसलमानों का उचित ध्यान रखने की गारंटी वास्तविक विवाद थी। हालांकि मुस्लिम जनता प्रतिनिधित्व आदि के इन सवालों के लिए चिंतित नहीं थी और केवल पढ़े-लिखे मुसलमान ही ये गारंटी चाहते थे। जिन्ना के 14 सूत्रों में गरीब और अनपढ़ मुसलमान जनता के लिए कुछ नहीं था। कोई आश्चर्य की बात नहीं कि जिन्ना जैसे आधुनिक शिक्षा प्राप्त किए हुए मुसलमानों ने ही पाकिस्तान-आंदोलन का नेतृत्व किया न कि धार्मिक मामलों के विद्वान मौलाना अहमद मदनी जैसों ने या धार्मिक नेताओं में उच्च स्थान रखने वाले अबुल कलाम आजाद जैसे लोगों ने, बल्कि ये तो पाकिस्तान के विचार के ही विरुद्ध थे।
ध्यान देने योग्य है कि अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का दिल्ली में मुसलमान नेताओं द्वारा तैयार की गई मांगों के प्रति नकारात्मक रुख नहीं था। कांग्रेस कार्यकारिणी ने संयुक्त मतदाता सूची के स्वीकार करने के लिए मुस्लिम नेताओं की सराहना की। अखिल भारतीय कमेटी ने 15 मई, 1927 को बम्बई में होने वाले अधिवेशन में प्रस्तुत करने के लिए हिन्दू-मुस्लिम सवाल पर लंबा प्रस्ताव पारित किया। यह उल्लेखनीय है कि इसने मुसलमानों के समस्त सुझाव मान लिए। अखिल भारतीय केंद्रीय कमेटी ने थोड़ा सुधार करके इस प्रस्ताव को सर्वसम्मति से स्वीकार कर लिया।4
दिसम्बर, 1927 के मद्रास अधिवेशन में कांग्रेस ने मुसलमानों को पूरा आश्वासन दे दिया कि उनके जायज हितों की रक्षा की जाएगी….संयुक्त मतदाता सूची में आबादी के आधार पर प्रत्येक प्रांत व केंद्रीय विधानमंडल में सीटें आरक्षित की जाएंगी….। सिन्ध, उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांत और ब्लूचिस्तान से संबंधित अन्य मुस्लिम सुझावों को भी इसमें स्वीकार कर लिया गया।5
मद्रास अधिवेशन में पारित प्रस्ताव पर बोलते हुए कांगे्रेसी नेता गोविन्द वल्लभ पंत ने प्रस्ताव के बारे में कहा, ‘सबसे अच्छा सबसे सही इंतजाम जिसे दोनों समुदायों से भारी समर्थन मिला।’ उन्होंने यहां तक कहा कि प्रस्ताव पर एम.आर. जयकर और मदन मोहन मालवीय जैसे हिन्दू महासभा के नेताओं की भी पूरी सहमति थी।6
हालांकि जल्दी ही हिन्दू और मुसलमान दोनों की ओर से समस्याएं खड़ी हुई। मुहम्मद शफी के नेतृत्व में अखिल भारतीय मुस्लिम लीग के विरोधी गुट ने अलग मतदाता सूची त्यागने से मना कर दिया और जिन्ना को इस महत्वपूर्ण सवाल पर हिन्दुओं से समझौता करने का दोषी करार दिया। हिन्दू महासभा ने भी किसी भी प्रांत में किसी भी समुदाय के लिए आरक्षण के सिद्धांत को रद्द कर दिया, इसने संयुक्त मतदाता सूची मानने के एवज में नए मुस्लिम प्रांत के गठन का कड़ा विरोध किया। इसने नए राज्य निर्माण की अपेक्षा मतदाता सूची को छोटी बुराई माना।7 इस तरह साम्प्रदायिक समस्याएं पैदा करने के लिए दोनों तरफ से साम्प्रदायिक लोग जिम्मेदार थे। जिन्ना के विचार तर्कसंगत थे और वे कहीं भी विभाजन के नजदीक की बात नहीं कर रहे थे। दूसरी ओर उन्होंने मुसलमान नेताओं को संयुक्त मतदाता सूची स्वीकार करने के लिए राजी किया। अपने एक भाषण में समझौते के संकेत दिए। ये साम्प्रदायिक सद्भाव के प्रबल इच्छुक नेता की आवाज प्रतीत होती है-
‘हमारी तरक्की के लिए जरूरी है कि हिन्दू-मुस्लिम की समस्या सुलझाई जाए, हमारे जैसे विशाल देश के समस्त समुदाय मैत्री एवं भाईचारे की भावना से रहें। कोई देश किसी एक समुदाय का प्रभुत्व बनाकर और अल्पसंख्यकों को सुरक्षा की गारंटी दिए बिना लोकतांत्रिक संविधान और जनतांत्रिक प्रतिनिधिक संस्थाएं स्थापित करने में सफल नहीं हुआ है, जहां भी ऐसी समस्या पैदा हुई है। जब तक वैधानिक प्रावधानों के तहत स्पष्ट व पूर्ण रूप से अल्पसंख्यकों के हितों और अधिकारों की रक्षा न की जाए तो अल्पसंख्यक पूर्वाग्रही हो सकते हैं कि बहुसंख्यक सम्प्रदाय अत्याचारी एवं उत्पीडऩकारी बन सकता है और यह भय और भी बढ़ जाता है जब हमारा वास्ता बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता से पड़ता है।’8
एकता बनाए रखने के लिए तेज बहादुर सप्रू ने केंद्रीय विधानमंडल में सीटें आरक्षण के लिए जिन्ना की मांग का समर्थन किया। उन्होंने इस मांग के बारे में कहा, ‘यह नेहरू रिपोर्ट की विरोधी नहीं है।’ उन्होंने अपने प्रतिनिधि साथियों से कहा, ‘समस्या को सुलझाने के लिए हमें कुशल राजनीतिज्ञ की तरह व्यवहार करना चाहिए और अंकगणितीय आंकड़ों से भ्रमित नहीं होना चाहिए।’9
बहस का उत्तर देते हुए आजादी हासिल करने के लिए जिन्ना ने पुन: हिन्दू-मुस्लिम एकता पर जोर दिया। उन्होंने कहा-
‘….यदि आप इस प्रश्र को आज नहीं सुलझाते, तो हमें इसे कल सुलझाना पड़ेगा, लेकिन इस दौरान हमारे राष्ट्रीय हितों को नुक्सान पहुंचेगा। हम सब इस धरती के पुत्र हैं। हमें मिलकर रहना है। हमें मिलकर काम करना और अपने मतभेदों को हर हालत में दूर करना है, न कि अधिक बिगाडऩा है। यदि हम एकमत नहीं होते तो कम से कम हम इस बात से सहमत हों कि मत वैभिन्न्य हो सकता है और हम दोस्तों की तरह विदा हों (सम्मेलन से-अनु.)। मुझ पर विश्वास करो, मैं एक बार फिर दोहराता हूं कि जब तक हिन्दुओं और मुसलमानों में एकता नहीं होती तो भारत कोई तरक्की नहीं कर सकता। हमारे समझौते में कोई तर्क, विचार या कोई और अड़चन न आए। हिन्दुओं और मुसलमानों में एकता देखने से अधिक खुशी मुझे किसी चीज में नहीं मिलेगी।’10
इस तरह यह सामने आता है कि 1928 तक जिन्ना हिन्दू-मुस्लिम एकता के हामी थे और कांग्रेस के काफी नेता उनके विचारों का अनुमोदन करते थे। नेहरू रिपोर्ट की असफलता की जिम्मेदार हिन्दू-महासभा थी। एसोसियेटिडड प्रैस से साक्षात्कार में कहा, ‘सम्मेलन में जयकर के भाषण ने नेहरू रिपोर्ट की नियति पर मुहर लगा दी थी।’11 एम.सी. छगला ने नेहरू रिपोर्ट पर बातचीत असफल हो जाने पर निम्न बयान जारी किया-
‘मैं विशेष रूप से रेखांकित करना चाहता हूं कि मुस्लिम लीग ने सम्मेलन में जो प्रतिनिधि भेजे, वे अत्याधुनिक विचारों के मुसलमान थे, जिनमें से अधिकतर ने पहले ही नेहरू रिपोर्ट पर सहमति दे दी थी और राष्ट्रीय हितों के लिए उनमें से कई अपने ही साथियों से लड़े हैं और संगठन से अलग हो गए हैं….यदि इन प्रतिनिधियों को साम्प्रदायिक करार दिया जाए तो शायद पूरे देश में एक भी राष्ट्रवादी मुसलमान नहीं है। मैं अभी भी आशा करता हूं कि सम्मेलन समापन से पहले लीग की मांगे स्वीकार करने का कोई रास्ता जरूर निकल आएगा। जिस प्रकार मुस्लिम लीग ने संघर्ष किया है और शफी गुट को बाहर निकाल दिया है, उसी प्रकार हर प्रावधान में मुसलमानों द्वारा दिए गए सुझावों, सुधारों और सलाहों पर हर बार सम्मेलन छोडऩे की धमकी देने वाली गूंजों और जयकार से भी निबटना चाहिए।’12
हालांकि सम्मेलन इस मुद्दे को सुलझा नहीं सका और इस कारण जिन्ना के रवैये में बदलाव हुआ, अब वे सोचते थे कि मुसलमानों को एक संस्था के रूप में कांग्रेस के प्रति अपने रुख पर पुनर्विचार करना चाहिए। वे इस विचार से सहमत हो गए कि मुसलमानों के बिखराव के कारण ही एक बार उनकी मांग अस्वीकार करके कांगे्र्रेस उन्हें नजरअंदाज कर रही है। इस प्रकार नेहरू रिपोर्ट साम्प्रदायिक सवाल और कांग्रेस के प्रति जिन्ना के रवैये में बदलाव बिन्दू थी। इसके बाद उन्होंने कड़ा रुख अपनाना शुरू किया। तीस के दशक के आरंभ में लंदन में दो गोलमेज कांफ्रेंसों में उनका रवैया इसका प्रमाण है। अभी तक पाकिस्तान के विचार का जन्म नहीं हुआ था और जिन्ना साम्प्रदायिक समस्या को विभिन्न प्रांतों के विधानमंडल और संसद में मुस्लिम प्रतिनिधित्व के रूप में सुलझाना चाहते थे। गोलमेल काफ्रेंस सफल नहीं हुई और अंतत: अंग्रेजों ने 1935 के संविधान में अपनी योजना के तहत मुसलमानों को संसद में एक-तिहाई प्रतिनिधित्व देने की घोषणा की। नेहरू रिपोर्ट की असफलता के बाद के घटनाक्रम से जिन्ना इतने हताश हुए कि वे भारत छोड़कर लंदन में बस गए और वहां वकालत शुरू कर दी।
जिन्ना के दृष्टिकोण में दूसरा मोड़ 1937 के चुनावों और कांग्रेस द्वारा मुस्लिम लीग के दो मंत्री लेने से इंकार करने पर आया। हालांकि दोनों के बीच औपचारिक या अनौपचारिक कोई समझौता नहीं था, लेकिन चुनावों के दौरान दोनों में कोई टकराव नहीं था। वास्तव में काफी जगह कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने एक-दूसरे के उम्मीदवारों को समर्थन दिया और उम्मीद थी कि कांग्रेस लीग के प्रतिनिधियों को कैबिनेट में शामिल करेगी। 1937 के चुनाव अभियान के जिन्ना के भाषणों में भी हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रति चिंता झलकती है। जनवरी, 1937 को नागपुर में अपने भाषण में उन्होंने कहा-
‘हिन्दुओं और मुसलमानों को एक सांझे मंच पर आना चाहिए। अपने प्रदेश के कल्याण अैर मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए उन्हें इकट्ठे रहना और इकट्ठे काम करना चाहिए….यह (लीग) स्वतंत्र और प्रगतिशील आदर्शों के लिए कटिबद्ध है। उसकी नए विधानमंडल में सर्वोत्तम प्रतिनिधि भेजने की इच्छा है, जो प्रगतिशील समूहों के साथ मिलकर मातृभूमि की स्वतंत्रता और विकास के लिए काम करें। मुसलमानों व सहयोगी समुदायों को सलाह है कि वे उत्तम चरित्र-निर्माण करें और स्वतंत्रता के रास्ते में आड़े आने वाले तत्वों को निकाल बाहर करें।’13
जिन्ना के इस भाषण से स्पष्ट है कि 1937 तक वे हिन्दू-मुस्लिम एकता और भारतीय मातृभूमि की बात करते थे और मातृभूमि के विकास एवं तरक्की के लिए दोनों समुदायों को मिलकर काम करने की बात करते थे, लेकिन बाद के घटनाक्रम से कांग्रेस और हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रति उनके दृष्टिकोण में मूलभूत बदलाव आया। कुछ लोगों का कहना है कि यदि कांग्र्रेस उत्तरप्रदेश में मुस्लिम लीग के दो मंत्रियों को कैबिनेट में शामिल करती, तो यह हिन्दू-मुस्लिम एकता के हित में होता। लेकिन कांग्रेस पर ऐसा करने का कोई बंधन नहीं था। दूसरी और रफी अहमद किदवई जैसे राष्ट्रवादी मुसलमान कांग्रेस-मुस्लिम लीग गठबंधन को निरस्त करने वालों में थे। 28 मार्च, 1937 को बाराबंकी से उन्होंंने पंडित नेहरू को लिखा : ‘मेरा मानना है कि यदि कांग्रेस कभी मुस्लिम लीग से समझौता या गठबंधन करने की सोचती है तो यह भारतीय मुसलमानों के प्रति अपने कत्र्तव्य को नहीं निभा रही होगी….किसी व्यक्ति विशेष की सुविधा के लिए कांग्रेस सिर्फ उत्तर प्रदेश में अलग पैमाना नहीं अपना सकती।’14
नेहरू मुस्लिम लीग के दो मंत्रियों को न लेने के लिए राष्ट्रवादी मुसलमानों के दबाव में थे। यह कहना गलत होगा कि कांग्रेस किसी औपचारिक समझौते से पीछे हटी। 21 जुलाई 1937 को नेहरू द्वारा राजेंद्र प्रसाद को लिखे पत्र से यह काफी स्पष्ट है। वह लिखते हैं कि ‘उत्तरप्रदेश के आम चुनावों में कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच अधिक विरोध नहीं था…. उत्तर प्रदेश के आम चुनावों में कांग्र्रेस और लीग में कोई समझौता नहीं था, लेकिन एक सहमति-सी बन गई थी….कार्यकारिणी की बैठक से कुछ समय पहले उत्तरप्रदेश मुस्लिम लीग के नेता खालिक जामन और नवाब इस्माइल खान ने कांग्रेस से सम्पर्क किया था…स्वाभाविक तौर पर इसका कुछ संबंध मंत्रीपद की संभावना से था…जब मौलाना अबुल कलाम आजाद वर्धा से लखनऊ पहुंचे तो वे खालिक से मिले, जिसने उन्हें बताया कि – उनको और उत्तरप्रदेश बोर्ड के अध्यक्ष नवाब इस्माइल खान – दो को मंत्रीमंडल में शामिल करने के बदले उन्हें खाली चैक (सीटों के बारे में-अनु.) देने के लिए तैयार हैं। मौलाना ने इस स्थिति को संदेह की नजर से देखा, लेकिन पूरी मुस्लिम लीग का एक संगठन के रूप में अस्तित्व समाप्त होने और इसके कांग्रेस में आत्मसात की संभावना ने उनको आकर्षित किया। हम इन व्यक्तियों को लेना नापसंद करते थे, जो कांग्रेस के दृष्टिकोण से कमजोर थे। हमें आम कांग्रेसियों की प्रतिक्रिया का डर था।’15
इस प्रकार इस बहस के दो पहलू थे। मुस्लिम लीग के दो मंत्रियों को शामिल करने में – दोनों पार्टियों के बीच मधुर संबंध और हिन्दू-मुस्लिम एकता बढऩे की संभावना थी। लेकिन कांग्रेस ने पार्टी में भी इसके प्रभावों को देखना था। इसे अनदेखा नहीं किया जा सकता था।
हालांकि मंत्रीमंडल में शामिल न किए जाने से कड़वाहट बढ़ी और लीग ने जोर-शोर से कांग्र्रेस-विरोधी अभियान छेड़ दिया। लेकिन लीग द्वारा लगाए गए अधिकतर आरोप झूठे थे। मौलाना आजाद ने कहा, ‘मुस्लिम लीग का कांग्रेस के विरुद्ध मुख्य प्रचार यह था कि यह केवल नाम से ही राष्ट्रीय है। कांग्रेस को सामान्य तौर पर बदनाम करने से ही संतुष्ट नहीं हुई, बल्कि लीग ने कांग्रेस के मंत्रियों द्वारा अल्पसंख्यकों पर अत्याचार के आरोप भी मढ़े। इसने एक समिति गठित की, जिसने मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यकों के प्रति हर तरह के भेदभावपूर्ण व्यवहार के आरोप लगाए। मैं अपनी जानकारी के आधार पर कह सकता हूं कि ये आरोप पूर्णत: बेबुनियाद थे। वायसराय और विभिन्न प्रांतों के गवर्नरों का भी यही विचार था। इसलिए लीग द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट को संवेदनशील लोगों में कोई मान्यता नहीं मिली।’16
अब मुस्लिम लीग का सरोकार लगाए गए आरोपों की सत्यता के प्रति नहीं, बल्कि मुसलमानों में कांग्रेस के खिलाफ भारी प्रचार से था। केवल इसलिए नहीं कि कांग्रेस ने इनको नीेचा दिखाया था, बल्कि इसलिए भी कि वह अभी तक अभिजात वर्ग की राजनीति में विश्वास करती थी। चुनाव-परिणामों ने इसकी आंखें खोल दी। 1937 के चुनावों में इसकी करार हार हुई, उसने 482 सीटों पर चुनाव लड़ा, जिसमें से केवल 109 सीटें ही जीत पाई। इसके साथ ही, मुस्लिम बहुल चार प्रांतों में से किसी भी प्रांत में बहुमत हासिल नहीं कर पाई।17 ‘मुसलमानों की एकमात्र प्रतिनिधि होने का दावा करने वाली पार्टी के लिए यह करारा झटका था। लीग चुनाव परिणामों से चिंतित थी और अब मुसलमानों को रिझाना चाहती थी। यह ‘हिन्दू’ कांग्रेस का ‘मुसलमानों के प्रति भेदभाव’ का भूत खड़ा करके किया जा सकता था। जिन्ना एक कुशल कूटनीतिज्ञ था, उसने मुसलमानों में ‘हिन्दू’ कांगे्रस के प्रति दुर्भावना पैदा करने के लिए हरसंभव चाल चली। इस दुष्प्रचार ने मुसलमानों को, विशेषकर पढ़े-लिखे मुसलमानों को कांग्रेस से दूर किया।
यहां पुन: इस पर जोर देना जरूरी है, जैसा कि 1937 के चुनावों ने भी दर्शा दिया कि मुस्लिम लीग का आम मुसलमानों में कभी लोकप्रिय आधार नहीं रहा। शिक्षित बुद्धिजीवी वर्ग में भी इसकी अधिकतर स्वीकार्यता केवल उर्दू-भाषी राज्यों जैसे उत्तरप्रदेश और बिहार के अल्पसंख्यक मुसलमानों में और कुछ हद तक बाम्बे प्रांत में ही थी, जबकि दक्षिण भारत के मुस्लिम अल्पसंख्यक प्रांतों में इसका कोई आधार नहीं था। जिन्ना को अपने और पार्टी के सीमित व संकीर्ण आधार का अहसास हुआ, इसलिए उन्होंने मुस्लिम जनता का विश्वास जीतने के लिए नए-नए तरीके अपनाने शुरू किए, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली। कांग्रेस के पास आर्थिक कार्यक्रम था, जो बहुत क्रांतिकारी तो नहीं था, लेकिन फिर भी इसने भारतीय जनमानस को आकर्षित किया। लीग के पास ऐसा कोई कार्यक्रम नहीं था। जब उल्लेखनीय उर्दू शायर इकबाल ने जिन्ना को मुसलमान जनता विशेषकर पंजाब से गरीबी दूर करने के लिए आर्थिक कार्यक्रम को प्राथमिकता देने के लिए लिखा तो उनसे पंजाब मुस्लिम लीग की अध्यक्षता छीन ली गई। जिन्ना को अब मुसलमानों के शक्ति सम्पन्न वर्गों-जागीरदारों, ताल्लुकेदारों और व्यापारियों का समर्थन हासिल था, इन वर्गों के नाराज हो जाने के डर से वे कोई क्रांतिकारी आर्थिक कार्यक्रम बनाने से बचते रहे। मुस्लिम लीग का मुस्लिम-समाज में अत्यधिक सीमित आधार था। गरीब जनता इसकी ओर कभी आकर्षित नहीं हुई। इस तरह जब 23 मार्च, 1940 को लाहौर में पाकिस्तान प्रस्ताव पारित हुआ तो मुसलमानों ने कोई जोश नहीं दिखाया। दूसरी ओर हजारों अंसारी (जुलाहा) मुसलमानों ने दिल्ली में दो-तीन महीने बाद इसके विरुद्ध प्रदर्शन किया।
उस समय सबको वोट का अधिकार नहीं था। 1935 में अंग्रेजों द्वारा लागू किए गए संविधान के अनुसार दस प्रतिशत भारतीय आबादी को भी वोट का अधिकार प्राप्त नहीं हुआ। जिनके पास कुछ शैक्षिक योग्यता थी या कुछ सम्पति थी, केवल वही वोट डाल सकते थे। इस कारण जनभावना का अनुमान नहीं लगाया जा सकता था और सभी महत्वपूर्ण निर्णय लोकप्रिय विचार जाने बिना लिए जाते थे।
मुस्लिम बहुत क्षेत्रों में मुस्लिम लीग की स्थिति और भी खराब थी। आयशा जलाल ने इस पहलू पर प्रकाश डाला है, वह लिखती हैं कि ‘पंजाब और बंगाल प्रांत अखिल भारतीय मुस्लिम लीग के लिए सबसे महत्वपूर्ण थे। इन दोनों प्रांतों में मुसलमान बहुत कम अंतर से ही बहुसंख्यक थे, इसलिए दूसरे लोगों के साथ अच्छे संबंध बनाए रखने की जरूरत के कारण कट्टर साम्प्रदायिक दृष्टिकोण अख्तियार नहीं कर सकते थे। दोनों प्रांतोंं के क्षेत्रीय-दृष्टिकोण जिन्ना के अनिश्चित केंद्रीय जनमत को कमजोर करते थे, इसलिए जिन्ना के लिए इन प्रांतों पर नियंत्रण रखना मुश्किल हो रहा था और साथ ही पंजाब के उत्तर- पश्चिम में स्थित नवगठित प्रांत सिन्ध व उत्तर पश्चिमी सीमांत प्रांत में समर्थन जुटाने के लिए उससे भी अधिक मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा था। लीग 1937 के चुनावों में सिन्ध और उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांत में सम्मानजनक प्रदर्शन भी नहीं कर पाई थी। असल में मुस्लिम बहुत सीमांत प्रांत ने अपने को कांग्र्रेस से जोड़ लिया था। अल्लाबख्श मंत्रीमंडल जो सत्ता से बाहर-अंदर होता रहा, वह शुरू से आखिर तक कांग्रेस के समर्थन पर निर्भर रहा।’18
यह कहना तर्कसंगत नहीं होगा कि भारत के सभी मुसलमान पाकिस्तान निर्माण के जिम्मेदार थे। उत्तरप्रदेश और बिहार जैसे मुस्लिम अल्पसंख्यक राज्यों का पढ़ा-लिखा अभिजात वर्ग तो अपने विशेषाधिकारों के छिनने के डर से पाकिस्तान के प्रति लालायित था, लेकिन मुस्लिम बहुल प्रांतों का पढ़ा-लिखा अभिजात वर्ग भी इसे लेकर उत्सुक नहीं था। वास्तव में पंजाब में जिन्ना के लिए यह काम आसान नहीं था। यहां विभिन्न धर्मों के सामंतों के अवसरवादी घटकों के ढीले-ढाले गठबंधन से बनी यूनियनिस्ट पार्टी का दबदबा था। लीग को मंत्रीमंडल से बाहर रखना यूनियनिस्ट पार्टी के हित में था। मई, 1942 में सिकन्दर हयात खान ने कांग्रेस में शामिल होने की संभावनाएं तलाशना शुरू कर दिया था, लेकिन इस वर्ष के अंत में उनकी मृत्यु हो गई। जिन्ना के रास्ते की सबसे बड़ी रूकावट दूर हो गई। मुस्लिम बहुल राज्यों में अपना रास्ता बनाने में जिन्ना को बड़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा था और इन प्रांतों में हिन्दुओं से कोई डर नहीं था, क्योंकि इनमें से कुछ प्रांतों में हिन्दू गठबंधन मंत्रीमंडल का हिस्सा थे। इन राज्यों में मुसलमान राजनीतिज्ञों को मुस्लिम लीग में शामिल करने के लिए जिन्ना को कई तरह के पापड़ बेलने पड़े। ऐसा करने में वह 1945 के बाद ही कामयाब हो पाए, तेजी से बदल रही परिस्थितियों में जिन्ना उनको यह समझाने में सफल हुए कि बेशक उनको प्रांतीय स्तर पर कोई डर न हो, लेकिन केंद्रीय स्तर पर केवल वही (जिन्ना) उनको आवश्यक रियायत दिला सकते थे।
ध्यान देने की बात है कि 1945 तक सोचा नहीं जा सकता था कि पाकिस्तान एक सच्चाई बन सकता है। पाकिस्तान बनाने का अंतिम प्रस्ताव 9 अप्रैल, 1946 को पारित हुआ। प्रस्ताव में अब दो के बजाए एक ‘स्वतंत्र सम्प्रभुसत्ता सम्पन्न देश’ की मांग की गई। पाकिस्तान और हिन्दुस्तान में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के लिए हिन्दू और मुसलमान प्रांतों के लिए दो अलग-अलग संवैधानिक सभाओं की मांग की।19
कैबिनेट मिशन योजना में भारतीय संघ के ढांचे में राज्यों को पूर्ण स्वायत्तता का उचित सुझाव था। इसमें केंद्र को केवल तीन विषय – रक्षा, संचार और विदेश नीति सौंपे जाने थे, शेष सभी शक्तियां स्वायत्त राज्यों को दी जानी थीं ओर इन राज्यों को दस साल बाद संघ से अलग होने की छूट थी। गहन संदेह का वातावरण था, जुबान की जरा-सी फिसलन भी विनाशकारी साबित हो सकती थी, कैबिनेट मिशन योजना के साथ यही हुआ। जवाहर लाल नेहरू ने कैबिनेट मिशन योजना के बारे में जो कहा वह जिन्ना के लिए बम का धमाका साबित हुआ। मौलाना आजाद ने उन 30 पृष्ठों में से एक में इसका वर्णन किया है जो प्रतिबंधित थे और 1988 में प्रकाशित हुए हैं-
‘इतिहास बदल देने वाली दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं में से एक घटी। 10 जुलाई को जवाहरलाल नेहरू ने बम्बई में प्रेस कान्फ्रेंस में विचित्र बयान दिया। प्रेस के कुछ प्रतिनिधियों ने उनसे पूछा कि क्या अखिल भारतीय कांग्रेस कार्यकारिणी में प्रस्ताव पारित करके कांग्र्रेस ने अंतरिम सरकार की बनावट समेत योजना को पूर्णत: स्वीकार कर लिया है।’
‘जवाहर लाल नेहरू ने अपने उत्तर में कहा कि कांंग्रेस समझौते से प्रभावित हुए बिना संविधान सभा में जाएगी और वह स्थिति के अनुसार निर्णय लेने में स्वतंत्र है।’
‘प्रेस के प्रतिनिधियों ने आगे पूछा कि इसका अर्थ है कि कैबिनेट मिशन योजना में बदलाव किया जा सकता है।’
‘जवाहर लाल नेहरू ने दृढ़ता से जवाब दिया कि कांग्रेस ने सिर्फ संविधान सभा में भाग लेना स्वीकार किया है, कैबिनेट मिशन योजना के संबंध में वह इसे बदलने या सुधार करने जैसा वह उचित समझे वैसा करने को स्वतंत्र है।’20
मुस्लिम लीग ने इस योजना को दबाव में स्वीकार किया था। आजाद के अनुसार, ‘जवाहर लाल नेहरू का बयान जिन्ना को बम की तरह लगा। उसने तुरंत बयान जारी किया कि कांग्र्रेस अध्यक्ष की इस घोषणा से समस्त स्थिति पर पुन: विचार करने की आवश्यकता है।’ मुस्लिम लीग ने योजना को इस आश्वासन पर सहमति दी थी कि कांग्रेस ने इसे स्वीकार कर लिया है। जवाहरलाल नेहरू के दुर्भाग्यपूर्ण बयान में यह निहित था कि योजना में बहुसंख्यक हिन्दुओं द्वारा बदलाव किया जाएगा और अल्पसंख्यक मुसलमान बहुसंख्यक हिन्दुओं की दया पर होंगे। 27 जुलाई, 1946 को बम्बई में मुस्लिम लीग परिषद की बैठक में जिन्ना ने पाकिस्तान की मांग दोहराई और इसे मुस्लिम लीग के सामने बचा एकमात्र रास्ता बताया।
तीन दिन की बहस के बाद लीग परिषद ने कैबिनेट मिशन योजना को अस्वीकार कर दिया और पाकिस्तान निर्माण के लिए सीधी कार्यवाही करने का फैसला भी किया। इस अहम् फैसले के बाद जो घटित हुआ, उसे हम सब जानते हैं।
नेहरू ने ऐसा बयान क्यों दिया, जिसने भारतीय इतिहास को बदल दिया? पूछे जाने पर इस घटना के 12 साल बाद भी नेहरू कोई स्पष्ट उत्तर नहीं दे सके। लेकिन जो उन्होंने कहा कि वह विचारधारात्मक स्तर पर महत्वपूर्ण था : ‘मैं समझता हूं कि एक ऐसी बलवती भावना थी कि यदि ऐसा संघ बनता है तो एक तो इससे आंतरिक दबाव खत्म नहीं होते और दूसरे इसके विभिन्न संघटकों को सत्ता-हस्तांतरण करने से केंद्र सरकार बहुत कमजोर रह जाती, यह इतनी कमजोर रह जाती कि यह ठीक तरह से काम करने या प्रभावी आर्थिक कदम उठाने में भी सक्षम नहीं होती। यही असली कारण थे जिनके कारण हमें अंतत: विभाजन स्वीकार करना पड़ा। यह कितने भारी मन से किया गया चयन था, इसकी आप कल्पना कर सकते हैं। अब यह कहना मुश्किल है कि उन परिस्थितियों में और क्या किया जा सकता था।’21
जवाहरलाल नेहरू और सरदार पटेल दोनों मजबूत केंद्र के पक्ष में थे। उन्हें कमजोर केंद्र और अविभाजित भारत या मजबूत केंद्र और विभाजित भारत में से एक चुनना था, इन्होंने मजबूत केंद्र और विभाजित भारत को चुना। यह स्पष्ट है कि दो समुदायों के अभिजात वर्ग के बीच साम्प्रदायिक सवाल का संतोषजनक हल नहीं निकल पाया। हिन्दू महासभा की भी साम्प्रदायिक माहौल बनाने में भूमिका रही। यह भी इस विचार की थी कि हिन्दू और मुसलमान दो राष्ट्र हैं और ये सद्भावना से इकट्ठे नहीं रह सकते। उन्होंने मुस्लिम लीग के 1940 के लाहौर प्रस्ताव से काफी पहले 1937 में इस आशय का प्रस्ताव पारित किया था। महासभा के नेता भाई परमानंद ने 1938 में लिखा, ‘मि. जिन्ना मानते हैं कि इस देश में दो राष्ट्र हैं….यदि जिन्ना ठीक हैं और मैं मानता हूं कि वे हैं, तो कांग्रेस की सांझी राष्ट्रीयता की अवधारणा ही धराशायी हो जाती है। इस स्थिति के केवल दो ही समाधान हैं। एक तो देश का विभाजन है और दूसरा देश के अंदर ही एक अलग मुस्लिम देश विकसित होने देना।’22 इस तरह हिन्दू और मुस्लिम दोनों साम्प्रदायिक शक्तियों ने धर्म के आधार पर भारत के विभाजन का समर्थन किया। भारत को विभाजित करने के लिए सभी उत्तरदायी हैं।
संदर्भ :
- शरीफ अल मुजाहिद कायदे-आजम जिन्ना-स्टडीज इन इंटरपे्रेटेंशन, दिल्ली, 1985, पुनर्मुद्रित, पृ. 473
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स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा (मार्च-अप्रैल 2017, अंक-10), पेज – 28-32