और सफर तय करना था अभी तो, सरबजीत! – ओमप्रकाश करुणेश

ओम प्रकाश करुणेश 

(कथाकर व आलोचक सरबजीत की असामयिक मृत्यु पर लिखा गया संस्मरण)

सरबजीत के साथ पहली मुलाकात ठीक ठाक से तो याद नहीं, पर खुली-आत्मीय भरी मुलाकातें…बाद तक भी कुुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी के हिन्दी-विभाग में डॉ. ओमानन्द सारस्वत के यहां हुई। तब मैं यहां शोध-छात्र था। संभवत: तारा की मुलाकात भी यहीं आर्टस फैकल्टी में हुई। (तब तारा लायब्रेरी साईंस में कार्यरत थे) तारा उन दिनों यहां कुछ सार्थक करने और अपनी तड़प को शब्द देने/सांझा करने को आतुर थे। ठीक हमारे ऊपर अंग्रेजी विभाग में डा. ओमप्रकाश ग्रेवाल जी थे। ज.ले.स. के साथ जुडऩे से पहले यूनिवर्सिटी के विभिन्न साहित्यिक कार्यक्रमों/गोष्ठियों व्याख्यान आदि में ग्रेवाल जी को सुनकर हम मात्र प्रभावित ही नहीं हुए, अपितु हम उनकी मेधा के कायल हुए। हमारी बातों-मुलाकातों में यह सब शामिल रहता था। निकटता बढ़ती गई…सीखने का सिलसिला जारी रहा। पढ़ाई से नौकरी में आने तक भी।

एक दफा विभाग में गुजरात से विद्यार्थियों का एक दल आया तो रचनाओं को सुनने-सुनाने का सिलसिला चला। सरब ने वहां उपस्थित सभी का मन मोह लिया। छात्र-छात्राओं ने इस छोटी-उम्र के रचनाकार से जब ‘आटोग्राफ’ लिए तो हमारे लिए यह हर्ष, गर्व और ईष्र्या की बात थी, लेकिन उसके लिए हमारी प्रगाढ़ता बढ़ती ही गई।

       एम.ए. में अध्ययनरत सरब, रेणु, हरवंश दुआ, मधुमालती आदि के बीच अच्छा संवाद था। पाठ्यक्रम के अलावा साहित्यिक बातचीत के लिए ये सभी मेरे  साथ आ जाते। तमाम सीमाओं के बावजूद हम उत्साहित होते और कुछ करने के लिए प्रेरित होते। इन सबमें सरबजीत का व्यक्तित्व मुग्धकारी था। एम.फिल. में हवा सिंह, दलबीर आदि के साथ वह मन की गांठें खोलता घंटों उनसे बहसता…बिना दु:खी हुए तथा हंसते-हंसते। हालांकि उसकी समझ तथा साहित्यिक रचनाशीलता अपने शुरुआती दौर में थी। फिर भी, उसमें प्रभावक व मारक शक्ति काफी थी।

      पहले पहल वह गज़ल/कहानी/कविता जेसी रचनाएं लिखने में मशगूल रहा। रेडियो पर आना, अखबारों, पत्रिकाओं आदि में छपना उसके लिए उत्साहित करने वाली बात होती थी। शुरुआती दौर में वह अपने लेखन पर मुग्धता की स्थिति में रहता था, पर सीखते रहने से उसकी समझ साफ, दृष्टि पैनी तथा लेखन की धार बदलती गई। रोमांटिक मूड से वह जीती-जागती दुनिया के वास्तव में प्रविष्ट हुआ। उसके प्रारंभिक दौर की रचनाओं में ‘बहुत दूर तक’ (कहानी संग्रह, 1983) तथा ‘हिन्दी कहानी का आठवां दशक’ (समीक्षा पुस्तक) रहीं। इन्हें वह अपना आरंभिक काम ही मानता था। पंजाब यूनिवर्सिटी से डा. यश गुलाटी के साथ ‘समकालीन हिन्दी कहानी में संघर्ष चेतना’ विषय पर किए गए शोध-कार्य की तारीफ डा. मैनेजर पाण्डेय ने भी की। डा. रमेश कुंतल मेघ भी उनकी आलोचना-शक्ति व रचनाशीलता से आश्वस्त थे। बाद में ‘हंस’ में उनकी कविताएं, आलोचनाएं भी छपी। लखनऊ में आयोजित कहानी गोष्ठी में अपनी बात के बूते पर सरब ने अपनी एक राष्ट्रीय पहचान कायम की। इसमें राजेंद्र यादव तथा अन्य मान्य विद्वानों ने सरब की कही बातों का विशेष उल्लेख भी किया।

      साहित्य की दुनिया में बेहतर काम करने का पक्षधर था, जेनुइन व धारदार लेखन के लिए आतुर। साहित्यिक-सांस्कृतिक हल्कों में ‘पगड़ी संभाल’ जैसी उपन्यासिका देना महज एक उपलब्धि ही नहीं, जरूरत भी है। इससे रचनात्मक लेखन में सरब की उपस्थिति दर्ज हुई है। आलोचक के रूप में सतही, छिछली तथा कामचलाऊ टिप्पणियों की अपेक्षा वह प्रौढ़ तथा गंभीर बात करने की गहन चेष्टा करता था। उदय प्रकाश पर ‘पल-प्रतिपल’ में  छपी और अंत में प्रार्थना के शिल्प में तथा कहानी पर रचनात्मक तर्क, जैसे लेख पर काफी लोगों का ध्यान गया है। मृत्यु से कुछ समय पूर्व सरब की स्वदेश दीपक पर एक आलोचनात्मक टिप्पणी प्रकाशित हुई तथा बीमारी से कुछ समय बाद ठीक-सी हालत में सरब ने अपनी एक आलोचना की किताब भी तैयार की थी, घर पर इसको लेकर काफी विमर्श हुआ। तब जाकर पूरी गंभीरता के साथ प्रदीप कासनी जी के यहां पंचकूला में किताब का नाम तय हुआ-‘अर्थान्वितियां : समकालीन कहानी के हालिया सरोकार’। पर अफसोस कि यह किताब अभी तक अप्रकाशित ही है। सरबजीत जीते-जी इसे पुस्तक-रूप में नहीं देख पाया इस बात की हर किसी को पीड़ा है। इन टिप्पणियों, आलोचनाओं, पुस्तक-समीक्षाओं में उसने पेशेवर अकादमिक आलोचक की इमेज  व लकीर को साफ किया है। वह पूरी लगन, ईमानदारी और ऊर्जा के साथ अपनी बात कहने को आतुर रहता था। वह मुझमें भी एक रचनात्मक आलोचना की प्रतिभा खोजता था। अक्सर कोसते हुए मेरी निष्क्रियता को तोडऩे की चेष्टा करता और कुछ लिखने को उकसाता। उन तीरोंं की नोक मैं आज महसूस करता हूं।

      हिन्दी जगत् के  साहित्यिक माहौल में समझ के पिछड़ेपन से वह प्राय:  बहुत चिंतित रहता था। कुरुक्षेत्र या अन्यत्र ज.ले.स. के आयोजनों में सरब की सक्रिय भूमिका रहती थी। संगोष्ठियों में वह आकर्षण के केंद्र रहते थे। अपनी रचनाओं की धार व तरोताजा टिप्पणियों से वह सबके दिलो-दिमाग पर छा जाने की कुव्वत रखता था। उसके जाने से साथियों के हौसले पस्त हुए हैं, इस गहरे आघारत से वे सुबके भी हैं।

      दोस्तों के साथ दोस्ती, छेड़छाड़ व प्यार भरी शरारतें उसके स्वभाव में छिपी थीं। वह जब भी कुरुक्षेत्र आता तो खुले मन से जम्मू में मनोज शर्मा, रंजरू, महाराज कृष्ण संतोषी व अन्य मित्रों के साथ बिताए पलों तथा रचनात्मक मुठभेड़ों के किस्से  सुनाया करता। जम्मू से पटियाला के हिन्दी-विभाग में आने पर डा. राजपाल, पुष्पपाल सिंह, डा. चमन लाल, ब्रजमोहन शर्मा तथा अन्य सह-कर्मियों का जिक्र करता। उसे व्यक्तित्व के विश्लेषण की भाषा आती थी, वह उन पर बड़ी ही सटीक टिप्पणी जड़ता और फिर हंसते हुए उन्हें हल्के तौर पर लेने की बात भी साथ ही कह देता। वह ‘नेगेटिव’ नहीं बहुत ही ‘पोजिटिव’ सोच का व्यक्ति था।

      घर में सरबजीत  का आना हमारे लिए एक उत्सव होता था। तारा के घर जब  वह आता तो दूसरी जगहों पर वह हमारे साथ के अभाव से उपजी रिक्तता का जिक्र करता। बच्चों के साथ घुलना-मिलना, उनसे खेलना, तारा की रसोई से एक रोटी चुराना और उस पर नमक-घी लगाना-खाना तथा फिर चाय के कप की दरकार के साथ भाभी के सामने अनुनय की भाषा पर उतर आना हमें आज भी उसी खिलन्दड़ी  दुनिया में  ले जाता है। उसका न रह पाना हमारे लिए व्यक्तिगत रूप से भारी चोट है…पारिवारिक भी, साहित्यिक भी।

      अब वह नहीं है तो हमारे जीवन में एक खलल पड़ा है…. खालीपन भी आया है और एक अजीब सी हलचल पैदा हुई है। हम इस व्यक्तिगत तड़प को सामूहिकता में तबदील करने की चाह रखते हैं। यह आधा-अधूरा-पूरा सफर सरबजीत छोड़ गए हैं, इसे आगे ले जाया जाए।

साभार-जतन दिसम्बर 99

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