प्रदीप कासनी – सरबजीत : एक दोस्त एक अदीब

आखिर दिसम्बर ‘98 का यह दिन आना ही था। दक दुर्निवार खिंच से आबद्ध कवि सधे कदमों से उस पाले को लांघ गया, जहां हम सब स्तब्ध और लाचार खड़े थे।

पिछले साल के आखिरी माह की तेरह तारीख को सरबजीत नहीं रहा। अपनी मृत्यु से कुछ माह पहले एक अच्छे-भले, चलते-फिरते, हंसते-बोलते, सोचते और महसूसते शख्स को एक दिन अचानक स्कूटर चलाते हुए थोड़ा अजीब-सा लगा। होम्योपैथी का शौकीनी कर्दगार वह खुद भी था, लिहाजा पहले-पहल उसने पटियाला के नामी होम्योपैथों के चक्कर लगाये। इलाज क्या हो जब तक मर्ज की ठीक से तश्खीस ही न हो। उदय प्रकाश की एक कविता है : ‘शरीर’, जिसमें कौल एक कवि का है, तहरीर दूसरे की, और बात इतनी-सी, कि :

महत्वपूर्ण ऐतिहासिक परिवर्तन
मेरे नियंत्रण से दूर और स्वायत्त, अपने ही नियमों में निमग्न
मेरे विचारों, रचनाओं, आकांक्षाओं और सिद्धांतों से बिल्कुल अप्रभावित में हूं एक दर्शक फ़क़त
अपनी ही दुनिया और अपनी ही देह का
अपनी ही मरम्मत में व्यस्त

मौजूं पंक्तियां। दिल्ली आकर मुम्किन हुई डाक्टरी आजमाइशों में सरबजीत को मस्तिष्क के ऐन मुर्तिकिज (केंद्रीय) डंठल पर ऐसा कैंसर बता दिया गया था, जिसकी बेबाकी के वास्ते न अमले-जर्राही में जगह बताई गई, न ही रेडियो थेरेपी वगैरह चारहों को ही महफूज़ और भरोसेमंद पाया गया- न यहां हिंदुस्तान में, न बाहर ही जहां रिपोर्टें भेज-भाजकर भरसक दरियाफ्तें की गईं।

दोस्तो-मित्रो और दीन-दुनिया से रुखसत लेते वक्त सरबजीत की उम्र अभी सैंतीस साल को भी नहीं पहुंची थी। आज जब अचानक वह हमारे बीच में नहीं है, तो उसकी यादों से बुना हुआ एक संजटिल नूर है हमारी कुल पूंजी। मेरे लेखे तो आज जब वह है नहीं, उसका खुला ठहाका यकायक कानों में गूंजता है, फिर एक सिहरन…और देर तक सन्नाटा। अपनी मौत से कुछ दिनों पहले चंडीगढ़ में वह था तो अस्पताली दिनों की अपनी यातना को भी एक लतीफे में बदलकर खिलखिला उठा था, बेशक साथ छोड़ती अपनी देह के अंत के करीब होने के प्रति पूरी बेदारी के आलम में। तो सरबजीत को याद करते हुए सबसे पहले तीखे नैन-नक्श लिए उसक जो खूबी उभरती है, उसमें यह है:

आलमे-फना (मृत्यु-लोक) के फेरे लेते हुए और शुआ-ए-मौत (मृत्यु-किरण) के लिश्कारे के सामने भी सहज, संयमित, मानवीय मौजूदगी को बनाये रखना।

अपनी बीमारी के पहले दौरे में उसने मुंदी आंखो  और बेहरारत देह के साथ एक लंबा वक्फ़ा अस्पताल और फिर रेणु शर्मा (अपनी पत्नी) के पैतृक घर में मानो उस काले अंधेरे महालोक के सौंदर्यन्वेषण में बिता डाला था। यह शख्स इस दौर में भी जबकि उसकी नाजुक पलकों के ढकने तक आंखों पर पड़ा भारी लोहा हो गए थे कि  समूची सकत लगाकर भी जिन्हें सरकाना तक मुहाल हो, अपनी परवाह नहीं करके आये-गए उन दोस्तो-परिचितों, रिश्तेदारों और सहकर्मियों की कठिनाइयों को सोच कर तकली$फज़दा होता था, जो दूर-पार से आकर जीते-जी एक बार उससे मिल लेना चाहते थे, उसका हाल जानना चाहते थे, अपनी दुआएं भेंट करना चाहते थे। इस दौर-ए-आखिर में भी यह शख्स नहीं चाहता था कि उसकी वजह से कोई मामूली-सा भी परेशान हो। सरबजीत की फितरत में नहीं था कि वह किसी भी थोड़ा-सा भी बोझ डाले, अपनी जीवन-संगिनी और भाईयों तक पर नहीं। अपने ही हिसार-ए-जिस्म (देह-किले) की एकांत कैद में घिर कर महज तमाशबीन बनकर रह गए सरबजीत की उन दिनों की स्थिति देह-तंत्र की तथाकथित हुकूमते खुदमुख्तारी (स्वायत्त सत्ता) के मिथक का काला मखौल ही उड़ा सकती थी।

एक बात और। मौत ऐसी आमफहम प्रघटना के प्रति पैदा किए गए अपने रवैये में सरबजीत व्यक्तिगत जिंदगियों के खात्मे के सिलसिले को बतौर सिलसिला ही लेता था, इसी दुनिया के भीतर निरंतर संपादित होता एक सिलसिला, जिसका चेहरा संभवत: हर दौर में और अलग-अलग समाजों में कुछ अपना ही होता हो। वह सहज ही आमफहम इन्सानियत का एक प्रतिमान हमारे सामने पेश कर देता रहा। साधारण, लेकिन हर हालत में जिंदगी का ही पक्षधर। आबिद आलमी जैसा धड़ल्ला जिसके एक छोर पर अतिमानवीयता तो दूसरी तरफ जाती अधीरता भी नजर आती हो, सरबजीत के किरदार में नहीं रही। आबिद आलमी कह सकते थे:

मुझको यूं कर लेगा बस में, य’ गलतफहमी है तेरी
मेरे ख्वाबों के जहां में जीना मरना कुछ नहीं है।

एक दिना अपना तमाशा खत्म करना होगा मुझको
लोग कह उठेंगे वरना ये तमाशा कुछ नहीं है।

अपनी असल जिंदगी में क्या, अपनी रचनाओं में क्या, सरबजीत एक अलग ही मिजाज से सुसज्जित शख्सियत रचते हैं। उनका एक अजीब मौजूअ (विषय) है सफर। नवम्बर ‘98 में (मृत्यु से माह भर पहले) हंस में शाया हुई उसकी एक मुख्तसर की कविता का (शीर्षक) भी यही है। बेहद मार्मिक और कुछ निहायत निजी हवालों में पगी हुई नज्म:

‘मुझे तय करना है सफर/और उम्र है कि जवाब दे रही है…
सफर में बहुत सारे वायदे हैं, जो किये हैं दोस्तों के साथ

मैंने कहा था तारा से
सफर के बारे में लिखना है अभी
उपन्यास
तय करने  थे कई ख्याल
खोखे पर चाय और गठरी के साथ।

सफर तो है अनंत
रास्ता अनंत।
यादें और वायदे अनंत
अंतहीन हूं मैं भी
पर
जाने क्यों
दे रही है उम्र जवाब!’

सरबजीत के कब्ल-अज-वक्त इंतिकाल (असामयिक मृत्यु) से निश्चित कई क्षतियां ऐसी हुई हैं, जिनकी भरपाई मुमकिन नहीं है। आज बेढब फैल-पसर गई लंबी-चौड़ी (अदबो-इलम की) दुनिया में उसकी खुदगर्की और दिशाहीनता में एक साहित्यकार, संस्कृतिकर्मी, बल्कि एक सुसंस्कृत प्रतिभा और संस्कारशील आत्मा के रहने न रहने से कोई फर्क पड़ता, वह माने न माने, सरबजीत के अपने नजदीकी  दायरों में उसकी गैर-मौजूदगी से बनने वाली नागवार खला (रिक्तता) ही नहीं बने रहनी, अपनी छोटी-सी जिंदगी में पूरी जेहनी ओजस्तिा और इख्लाकी फहमो-शऊर के साथ उसके किए-धरे की थाती भी रहनी ही है। अपने इस निरभाग समय में सरबजीत की बेवक्त फौतीदगी ने शायद हमें वह तकलीफ नहीं दी है, जो उसके न रहने के बावजूद बना रखी गई संवादहीनता और सन्नाटे का मंजर दे गया।

क्या इतनी होशमंदी और सलाहीयत भी हम लोगों में बाक नहीं रही कि हम तेजी से एक-एक कर गुल होती बत्तियोंं के निहितार्थ समझें, कम अजकम या समझें न समझें जब-जब लगने वाले त्रासद झटकों पर दो पल ठिठक कर गौर ही करें।

सरबजीत जैसे अपनी मृत्यु में, वैसे ही जीते-जी अपने दौर के आसपास के परिवेश की हदबंदियों और दुच्चपनों से शुरू से ही काफी ऊंचे उठ गया था। उसके रचनात्मक व्यक्तित्व ने अभिव्यक्ति के लिए अपने कॉलेजी दिनों में भी कविता को नहीं, कहानी अथवा कथा-कथन के क्षेत्र को अपनाया। मुझे तो खैर ठीक-ठीक यह भी पकड़ में नहीं आता कि जब मेरे इलाके के कम ही लोग हिन्दी डिग्रियों के लिए लाइन लगाते हैं, तो थानेसर का यह सरदार लड़का सिख होने की सहूलियत-हरियाणा में ही सही/ और प्रखर जहानत के बावजूद इस पचड़े मेंं क्यों पड़ा। वामपंथी राजनीतिक तर्जे-ख्याल और अमल की जग में भी वह देर तक नहीं था, और पूरी तरह तो कभी भी नहीं। कोई पंद्रह साल पहले ही उसका पहला कहानी-संग्रह छपा: ‘बहुत दूर तक’ (शीर्षक से ही अंदाजा लगाएं तो वक्ती धुंधलकों के आर-पार बहुत दूर तक देखने की सामथ्र्य अपने तई वसूल कर पाने की वह जहद सरबजीत में प्रारंभिक दौर में भी देखी जा सकती है, जिसके चलते वह आगे-आगे कथा-कर्म के साथ-साथ आलोचना और समीक्षा कर्म-बेशक कहानी ही केंद्रित-की ओर आता गया)

यह अलग बात है कि पहले संग्रह की कथा-रचनाओं को लेकर आगे आये दिनोंं में स्वयं लेखक को ही दिलचस्पी नहीं रही कि उन शुरूआतों को कहीं गिनाया जाए। ‘छोडिय़े छोडिय़े डाक्रसाब (सरबजीत आदतन उन लोगों को भी यह आदर सूचक संबोधन दे देता जो कभी पीएचडी के आसपास भी नये हों) वे कुछ नहीं हैं-ऐसे ही लड़कपन के दिनों में लिखी गई कहानियां हैं’ उसकी राय होती। ‘शुरूआतें लड़कपन के दिनों में नहीं होंगी तो कब होंगी?’ और ‘चाहे जैसी भी हों, क्या शुरूआतों को बतौर शुरूआत नकारा जाना चाहिए, या कि नकारा जा भी सकता है?’ जैसा कोई सवाल चाय खोखे की गर्म घूंटों और मठरियों के बीच उसकी अनम्य विनम्रता को ध्वस्त नहीं कर पाते। सरबजीत की हलीमी शमशेर बहादुर सिंह सरीखी थी। डा. ओ.पी. ग्रेवाल से उसने केवल सैद्धांतिक मसलों पर जिरह नहीं की थी। जाने-अनजाने उन जैसे कई गुणावगुण और जमानासाजिशों से बेपरवाही और बेगर्जी भी पैदा कर ली थी। आत्म-प्रचार के झंझटों और पचड़ों में वह कभी पड़ा ही नहीं। एक काम को हाथ में लिया, मनोयोग पूर्वक जुटकर उसे पूरा किया और अगले पड़ाव की राह ली। बीते सफर में हासिल नियामतों या कारगुजारियों कीे कोई याददहानी करवा भी दे तो अपने किए-धरे को खुद ही-और अजीब निस्पृहता और निर्ममता के साथ-उसके कुछ अस्ल और कुछ आंक लिए गए अधूरे नाकाफी पहलुओं और नामुआफिकात के हवाले से परे धकेल देते रहे।

सरबजीत की आलोचना की पहली किताब  ‘हिन्दी कहानी : आठवां दशक’ (कुरुक्षेत्र : संजीव प्रकाशन, 1988) ‘जिंदगी की हर सही और सार्थक समीक्षा की…’ समर्पित थी। आलोचक सरबजीत के सरोकार यहां बड़े थे- ‘ये सवाल बड़े अहम और परेशान करने वाले हैं कि क्यों हिंदी आलोचना खुद को इतना सक्षम नहीं बना सकी कि वह रचना की सार्थकता-निरर्थकता को सचमुच, साफ-साफ बयान कर सके? हिन्दी कहानी के संदर्भ में, आलोचना क्यों किसी आंदोलन-विशेष अथवा दशक-विशेष से बड़े भावुकता-भरे अंदाज में जुड़कर चलती रही? क्यों यह संभव नहीं कि अलग-अलग वैचारिकता से प्रतिबद्ध और मूडों व रंगतों से प्रभावित आलोचना में से भी कुछेक सांझे’ सत्य उभर कर आयें?…आखिर क्यों रचना और आलोचना के बीच के रिश्ते में से सहजता गुम हो रही है? रचना और आलोचना, जो कि एक-दूसरे के पूरक और प्रेरक हैं, क्यों एक-दूसरे को नकारने  में लगे हैं? रचनाकार और आलोचक की ईमानदारी का सवाल बारंबार क्यों उठता है?’

चाहे आलोचना हो, या संपादन-कर्म, कहानी विधा ही मूलत: सरबजीत के ध्यान और अध्यवसाय के बीचों-बीच रही है। अपनी साहित्य-सक्रियताओं को उसने हमेशा सामाजिक-नैतिक परिवेश देकर अवस्थित किया है। उभरते हुए परिदृश्य पर हमेशा एक तालिब-ए-इलम की सी बेचैन नजर गाड़े रखी है। अपने आसपास और अपनी जड़ों से भी कभी कटना नहीं चाहा, बेशक हमेशा उसके परिसीमनकारी पक्ष के अतिक्रमण की छटपटाहट भी बनी रही। उन्हीं दिनोंं में सरबजीत ने तारा पांचाल के मिलकर हरियाणा क्षेत्र के  कहानीकारों की रचनाओं का एक प्रतिनिधि आलोचनात्मक संस्करण तैयार किया: पनछटी (पिलानी : चिंता प्रकाशन, 1987)। ‘ईमानदार संघर्ष के नाम’ समर्पित इस जिल्द में अशफाक, ललित कार्तिकेय, ज्ञान प्रकाश विवेक, राकेश वत्स, विकेश निझावन आदि कथाकारों की रचनाएं संकलित करने के साथ हरियाणा-नामी इलाके में हिन्दी कहानी लेखन की स्थिति पर एक सिंपोजियम के तहत डा. ग्रेवाल, डा. यश गुलाटी और स्वयं अपना लिखा विशद आंकलन भी दिया गया, हालांकि इसका खुलासा करना भी सरबजीत को जरूरी लगा कि यह कार्य अथवा कार्य का ऐसा स्वरूप क्यों रखा गया। उसने लिखा कि किसी भी भाषा में सृजनात्मक साहित्य को किसी भौगोलिक सीमा के दायरे में बांधना कतई गलत है किंतु इसकी बेइंतिहा जरूरत तब दीख पड़ती है, जब किसी क्षेत्र-विशेष के उदासीन-पक्ष को झकझोरना हो ताकिइस प्रकार से साहित्यिक चेतना को अंकुरित व विकसित करके उस भाषा के साहित्य की केंद्रीय धारा से संबद्ध किया जा सके।’ सरबजीत का ख्याल था कि उस स्थिति में ही (स्थानीयता अथवा क्षेत्रीयोन्मुखी संकीर्ण दायरों से आगे निकल केंद्रीय धारा से संबद्ध होने में ही?) कोई साहित्य समृद्ध व उन्नत रचनाशीलता का परिचय दे सकता है। मुझे याद है कि हमारी सद्य: प्रकाशित रचनाओं सरबजीत का लघु-उपन्यास (अथवा लंबी कहानी?) ‘पगड़ी संभाल’ और मेरी हरियाणवी भाषिक रीति-रिवाज की लंबी कविता-सी एक जुगत ‘शामिल तारीख’ पर हुई संयुक्त विचार-गोष्ठी में कहे गए उसके विचार: मैं सरबजीत की आलोचकीय मेधा की सुसंगत निरंतरताओं और विकसनशीलताओं को देखने की कोशिश करता था। आपसी बातचीत में और बात के तार एक छेड़छाड़ और गैर-संजीदगी से पैदा होने वाली हांफ में उलझ कर टूट जाते तो यह सरबजीत की ही खूबी थी कि एक खुली हंसी और कोई नया मुद्दा उठाकर वह चीजों को भीड़ी गलियों से निकाल खुले मैदान ले जाता। व्यक्तिगत संदर्भों में सरबजीत के किरदार की खास-खास बातों को याद करने के सिलसिले में उसका एक नुक्स जो सामने आता है, वह है कि बेशक अपने मिलने-जुलने वाले और रचना-कर्म से जुड़े लोगों के यदा-कदा चरित्र-चित्रण से हम न शर्माते थे न बाज आते थे, मगर किसी की गैर-मौजूदगी में उसे उसकी खूबियां और अच्छाईयां ही हमेशा सूझतीं; यूं  आम्मो-सामने के संवाद में हमेशा एक आत्मीय साफगोई और निश्छलता रहती; पर्दादारियों और सेल्फ सेंसर से भरसक बचा जाता और खुलकर  अपनी बेवकूफियों, भोलेपनों और उलझनों तक के इजहार को उनकी जमीन मिलती। मेरे पढऩे के बेतरतीब बिखराव और बेसिम्त रफ्तार की वह आलोचना करता, और मुझे रास्ते पर लाने की कोशिश भी। स्वदेश दीक या सारा राय की कहानी पर मेरी टिप्पणियों में उसने बेमानी कामरेडी देखी और टोक दिया। उसे लिखने में राकुराकेश या किसी और दोस्त ने अकादमिक से या प्रोफेसरी सूखेपन की बात की तो उसने सिर्फ सुना। इस सबको याद करते हुए जब सरबजीत की हंस में छपने वाले समीक्षा-लेखों ‘भावात्मक गहनताओं के निहितार्थ’ (दिसम्बर ‘98) या ‘कथा भाषा और कथा-अनुभव की नई संरचना’ (फरवरी ‘99) जैसी संयमित और कहसी हुई रचनाओं को पढ़ते हैं तो यह भी शक होता है कि वह आपसी बातचीत की सरसरी, असंबद्ध और अपात्र टिप्पणियों को भी कहीं न कहीं अपनी हंसमुख प्रकृति में सहेज लेता था और आत्म-संघर्ष युक्त सृज
न क्षणों मं सजगतापूर्वक उन्हें इस्तेमाल करके हमें कहीं अधिक परिष्कृत और उच्चतर भाव-बोध से बिंधी हुई चीजें सौंप देता।

सरबजीत की सैद्धांतिक और अमली आलोचना की एक बड़ी किताब का मसौदा दो साल पहले उसने तैयार कर दिया था। इसको  सामने रखकर हमने बातचीत की, प्रकाशक के  घर पर, और उसका नाम और अपने देहावसान के तीन महीने पहले तक सरबजीत ने स्वयं मनोयोगपूर्वक इस आलोचना-पुस्तक की प्रेस कॉपी ही तैयार कर डाली, बिल्कुल अपनी आसन्न मृत्यु की स्पष्ट चेतना के बीचों-बीच। ‘अर्थान्वितियां’ का आकल्पिक पाट चौड़ा है। उसमें हिन्दी कथाकथन को उसके ऐतिहासिक विकास के क्रम में भी सिलसिलेवार पकडऩे का अध्यवसाय है। (‘हिंदी कहानी का यथार्थवादी पक्ष: प्रेम चंद से नई कहानी तक’, ‘अकहानी के दौर में कहानी’ वगैरह) तो उसकी समकालिकताओं का बहुरंगी परिदृश्य भी निगाह की जद में रहता है। (यथा ‘कहानी का रूप और समकालीन कहानी के सरोकार’)। सरबजीत की कथालोचना का महत्वपूर्ण काम उनकी व्यक्तिगत कहानीकारों के कृर्तत्व-समीक्षा में देखा जा सकता है, जो यहां संकलित किया गया है। वे नये और बुजुर्ग सभी रचनाकारों के अध्ययन के दायरे में रखता आया है। अर्थान्वितियां में भी चर्चित कथाकारों में ग.मा. मुक्तिबोध, काशीनाथसिंह, स्वयंप्रकाश, रमेश उपाध्याय, ज्ञानरंजन, रवींद्र कालिया, शिवमूर्ति, विष्णु नागर, संजीव प्रभूति सभी लोग शामिल हैं। हमारी बदकिस्मती है कि किताब अभी तक अप्रकाशित है। सरबजीत को तीखा अहसास था (‘बणछटी पर अपने पश्चकथन में  उसने लिखा भी’) कि आज का साहित्यक युग नाम उछालने, महंगे प्रकाशन, मंचों व संघों का युग है और ऐसे समय में जैनुइन रचनाधर्मिता के लिए विस्तृत पाठक समाज के सामने आने का कोई आसान जरिया नहीं है। दूसरी तरफ यह भी सही है कि सरबजीत कभी विलुब्ध करतीं आसानियों के फेर में नहीं पड़ा। हरियाणा की एक छोटी (अतिलघु?) और हद दर्जे की अनियमित पत्रिका ‘जतन’ से उसका अपनापा-भरा लगाव हम कृतज्ञतापूर्वक याद करते हैं। जलेस में भी वह हमारा साथी था।

हम उम्मीद कर सकते हैं-और अध्यवसाय भी-कि सरबजीत की हालिया बरसों की अनेक अप्रकाशित और छोटी पत्रिकाओं में प्रकाशित और इधर-उधर बिखरी पड़ीं  रचनाएं जल्द से जल्द पुस्तकाकार सामने आयें ताकि  आज के दौर के एक बेहतरीन युवा और संभावनाशील दिमाग का कृतत्व समग्रता में उपलब्ध हो सके और उसकी सही-सही और सार्थक मूल्यांकन संभव हो। बहुत नजदीक के लोग बहुत-चाहकर भी शायद अपनी अतिभावुकताओं और पूर्वग्रहों को कई बार छोड़ नहीं पाते हैं। यूं सरबजीत का स्मरण करते हुए हम फिर से जानते हैं कि इनसानी किरदार शायद मुकम्मल तभी होता है जब वह खूबियों से सजा ही नहीं होता, अपनी कमजोरियों  और अधूरेपनों से भी जूझ रहा होता है।

साभार : उदभावना : 51-52

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